जैन धर्म की शिक्षाएं और सिद्धांत

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General studies paper – 4 notes 

Part – 19

Topic – जैन धर्म की शिक्षाएं और सिद्धांत, 3 रत्नों, पंच महाव्रत,10 लक्षण, 18 पाप,24 तीर्थंकर


-जैन धर्म की शिक्षाएं और सिद्धांत जैन धर्म की प्रमुख शिक्षाएं और सिद्धांत निम्नलिखित हैं 

1-निवृत्ति मार्ग

बौद्ध धर्म की भांति जैन धर्म भी निवृत्तिमार्गी है जैन धर्म के अनुसार संसार के समस्त सुख दुख मूलक है मनुष्य के दुखों का मूल कारण उसकी तृष्णा है वह आजीवन तृष्णा से घिरा रहता है जैन धर्म के अनुसार मनुष्य का वास्तविक सुख संसार त्याग में ही निहित है महावीर स्वामी का कहना था कि मनुष्य को सब कुछ त्याग कर संसार से कोई भी संबंध ना रखकर भिक्षु बनकर जीवन व्यतीत करना चाहिए । Jainism detailed summary on the principle and teaching

2-जीव और अजीव

जैन धर्म के अनुसार जीव और अजीव शाश्वत अनादि और अनंत है इनसे मिलकर ही या जगत बनता है जीव स्वभाव से नित्य चिंतन पूर्ण और अनंत ज्ञान में है जीव चैतन्य द्रव्य है और अजीव चैतन्य रहित है जीव और अजीव के सहयोग से सृष्टि का क्रम चलता है ।

3-बंधन और मुक्ति

बंधन का अर्थ है जीव का अजीव द्वारा आवरण जीव और अजीव के संबंध का माध्यम कर्म है बंधन के मुख्य कारण हैं राग और द्वेष राग और द्वेष जीव में आसक्ति पैदा करते हैं अजीव के जीव की ओर चलने की प्रक्रिया को जैन धर्म में आस्रव कहा गया है दूसरे शब्दों में पुदगल परमाणु का बनना आश्रव कहलाता है यही आश्रव व्यक्ति के कर्म बंधन का कारण होता है इस आश्रव के कारण जीव अपना मूल स्वरूप भूलकर जन्म मरण के चक्कर में फस जाता है बंध है या बंधन की अवस्था है । Jainism detailed summary on the principle and teaching

4-संवर और निर्जरा

जैन धर्म के अनुसार किए हुए कर्मों का फल भोगे बिना मनुष्य को मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता इसलिए मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि मनुष्य अपने पूर्व जन्म की कर्मफल का नाश करें और इस जन्म में  इसी प्रकार का कर्म फल संग्रहित ना करें नए कर्मों के आगमन की प्रक्रिया को रोकता ही संवर कहलाता है इस संवर के परिणाम स्वरूप धीरे-धीरे संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं पूर्व संचित कर्मों के विनाश की प्रक्रिया को निर्जरा कहते हैं ।

5-कर्म वाद

जैन धर्म के अनुसार मनुष्य के सारे सुख दुख कर्म के कारण ही हैं कर्म ही मनुष्य के जन्म मरण का कारण है प्रत्येक को अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है और अपने कर्मों के कारण ही उसे इस संसार में बार-बार जन्म लेना पड़ता है किए हुए कर्मों फल भोगी बिना जीव का छुटकारा नहीं हो सकता इस प्रकार कर्म ही पुनर्जन्म का कारण है । Jainism detailed summary on the principle and teaching

6-पुनर्जन्म

जैन धर्म के अनुसार पाप कर्मों के फलस्वरूप मनुष्य को बार-बार जन्म लेना पड़ता है कर्म और पुनर्जन्म का सिद्धांत साथ साथ चलता है जैन धर्म के अनुसार कर्मों के प्रभाव से बचने का कोई उपाय नहीं है हर कर्म का फल भोगना पड़ता है सब प्राणियों को अपने संचित कर्मों के कारण विभिन्न योनियों में जन्म लेना पड़ता है ।

7-निर्वाण

निर्वाण जैन धर्म का चरम लक्ष्य है उसके लिए कर्म फल से मुक्ति आवश्यक है जैन धर्म के अनुसार निर्वाण प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य अपने पूर्व जन्म के कर्म फल का नाश करें और इस जन्म में किसी प्रकार का कर्म फल संग्रहित ना करें निर्वाण की अवस्था में मनुष्य सभी प्रकार की कामनाओं से मुक्त हो जाता है ।

8-त्रिरत्न

जैन धर्म के अनुसार कर्म बंधन से मुक्त होने और निर्वाण प्राप्त करने के लिए 3 रत्नों का पालन करना चाहिए त्रिरत्न निम्न है ।

-सम्यक दर्शन

सम्यक दर्शन का अर्थ है यथार्थ ज्ञान के प्रति श्रद्धा जैन धर्म के अनुसार सत्य में विश्वास रखना ही समयक श्रद्धा है जैन तीर्थंकरों के उपदेशों में जो ज्ञान निहित है उसमे पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए श्रद्धा पूर्णतया युक्ति संगत होनी चाहिए ।

-सम्यक ज्ञान

सत और असत का भेद समझ लेना ही समयक ज्ञान है दूसरे शब्दों में जीव और अजीव के वास्तविक स्वरूप का पूर्ण ज्ञान ही सम्यक ज्ञान है । Jainism detailed summary on the principle and teaching

-सम्यक चरित्र

जैन धर्म के अनुसार मनुष्य का समस्त इंद्रिय विषयों से दूर रहना सम दुख सुख होना ही आचरण है और इसी को सम्यक चरित्र कहते हैं।

9-पंच महाव्रत

जैन धर्म के अनुसार सम्यक चरित्र के अंतर्गत जैन भिक्षुओं के लिए निम्न पंच महाव्रत की व्यवस्था की गई है

1- अहिंसा

जैन में अहिंसा पर अधिक बल दिया गया है जैन धर्म के अनुसार मन वचन और कर्म से किसी के प्रति अहित की भावना ना रखना ही वास्तविक अहिंसा है मनुष्य मन वचन और कर्म से ऐसा कोई कार्य करें जिससे किसी जीव को किसी प्रकार की चोट पहुंचे अहिंसा के सिद्धांत के अंतर्गत निम्न बातों पर बल दिया गया है ऐसे मार्ग पर मत चलो जहां कीटाणुओं के कुचलकर नष्ट होने की संभावना है मधुर वाणी का प्रयोग किया जाना चाहिए भोजन द्वारा किसी भी प्रकार की जीव का नाश ना हो भिक्षु को अपनी समस्त सामग्री का उपयोग करते समय यह देख लेना चाहिए कि उसके द्वारा कीटाणुओं का नाश ना हो ऐसे स्थान पर मल मूत्र त्याग करना चाहिए जहां किसी भी कीट की हिंसा ना हो सके। Jainism detailed summary on the principle and teaching

2- सत्य

सदैव ऐसी वाणी बोलनी चाहिए जो सत्य और मधुर हो इसके अंतर्गत निम्न पांच बातों पर बल दिया गया है

    1. बिना सोचे समझे नहीं बोलना चाहिए।
    1. क्रोध आने पर मौन रहना चाहिए।
    1. लोभ की भावना जागृत होने पर मौन रहना चाहिए।
    1. भयभीत होने पर भी असत्य नहीं बोलना चाहिए।
  1. हंसी मजाक में भी असत्य ना बोलना चाहिए ।

3-असतेय

अस्तेय का अर्थ चोरी ना करना बिना अनुमति किसी दूसरे व्यक्ति की वस्तु ग्रहण नहीं करनी चाहिए और ना ग्रहण करने की इच्छा ही करनी चाहिए इस विषय में निम्न पांच बातें ध्यान में रखनी चाहिए

    1. बिना आज्ञा किसी भी व्यक्ति के घर में प्रवेश नहीं करना चाहिए
    1. गुरु की आज्ञा के बिना भिक्षा का भोजन नहीं करना चाहिए
    1. बिना अनुमति के किसी के घर में निवास नहीं करना चाहिए
    1. किसी के घर में रहते समय बिना गृह स्वामी की आज्ञा के उसकी किसी भी वस्तु का प्रयोग नहीं करना चाहिए
  1. जहां कोई भिक्षु पहले से उपस्थित हो वहां गृहस्वामी की अनुमति के बिना उस घर में नहीं रहना चाहिए।

4- ब्रह्मचर्य

मनुष्य को विषय वासनाओं से दूर रहना चाहिए इस विषय में पांच बातें ध्यान में रखनी चाहिए

    1. किसी नारी से बात ना करें
    1. किसी नारी को ना देखें
    1. नारी संसर्ग का ध्यान भी ना करें
    1. सरल और अल्प भोजन करें
  1. जिस घर में कोई नारी रहती हो वहां नहीं रहे ।

5-अपरिग्रह

अपरिग्रह के अनुसार धन-धान्य वस्त्र आदि वस्तुओं का संग्रह न किया जाए क्योंकि उससे सांसारिक वस्तुओं में आसक्ति उत्पन्न होती है ।

-पंच अणुव्रत

जैन गृहस्थ के लिए पंच अणुव्रतोंका विधान है यह पांच अनुव्रत है-

(1) अहिंसा, (2) सत्य, (3) अस्तेय, (4) ब्रह्मचर्य और (5) अपरिग्रह।

अपरिग्रह इन पांच अणुव्रतों की मौलिक सिद्धांत पंच महाव्रत की भांति है परंतु गृहस्थ के लिए उनकी कठोरता कर दी गई है ब्रह्मचर्य के अंतर्गत वह विवाह कर सकता है तथा अपरिग्रह के अनुसार वह संपत्ति अर्जित कर सकता है परंतु उसे आवश्यकता से अधिक संपत्ति का संग्रह नहीं करना चाहिए । Jainism detailed summary on the principle and teaching

11-स्यादवाद

जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक वस्तु की अनेक पक्ष होते हैं इसलिए उसे अनेक दृष्टिकोण से अलग-अलग रूप में देखा जा सकता है इसलिए किसी वस्तु के स्वरूप के बारे में हमारे सभी कथन सापेक्ष रूप से सही हो सकते हैं एकांतिक रूप से नहीं सत्य के अनेक पहलू हैं और परिस्थिति के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को उसका आंशिक ज्ञान होता है कोई व्यक्ति यह दावा नहीं कर सकता कि उसका मत ही सत्य है तथा दूसरों का ग़लत संक्षेप में एक ही दृष्टिकोण को सही ना मानकर सभी दृष्टिकोण में कुछ ना कुछ सत्य मानने को स्यादवाद कहते हैं।

जैन धर्म के अनुसार किसी वस्तु या सत्य के बारे में 7 प्रकार की कथन हो सकते हैं

    1. शायद वह है।
    1. शायद वह नहीं है।
    1. शायद वह है और नहीं भी है।
    1. शायद वह नहीं कहा जा सकता है।
    1. शायद वह है परंतु कहा नहीं जा सकता।
    1. शायद वह नहीं है और कहा भी नहीं जा सकता।
  1. शायद वह है नहीं है और कहा भी नहीं जा सकता।

स्यादवाद को सप्त भंगी नय भी कहा जाता है यह जैन दर्शन का एक उदार और सहिष्णुता पूर्ण सिद्धांत है ।

12-तपस्या और उपवास पर बल देना

महावीर स्वामी ने आत्मा की शुद्धि के लिए तपस्या और उपवास पर बल दिया जब तक मनुष्य कठोर तपस्या और उपवास द्वारा विषय वासनाओं का अंत नहीं कर देता तब तक उसे निर्वाण प्राप्त नहीं हो सकता इसलिए जैन धर्म में उपवास और कठोर तपस्या पर अधिक बल दिया गया है तपस्या के अंतर्गत व्रत अन्न त्याग कष्ट सहन करना स्वाध्याय आदि शामिल है Jainism detailed summary on the principle and teaching

13- जैन धर्म के 10 लक्षण

जैन धर्म के अनुसार धर्म के 10 लक्षण बताए गए हैं जो इस प्रकार हैं

    1. उत्तम क्षमा
    1. उत्तम मार्दव (गर्व का अंत कर देना)
    1. उत्तम आर्जव (सरलता ग्रहण करना)
    1. उत्तम सत्य
    1. उत्तम सोच (आत्मा का शुद्धिकरण)
    1. उत्तम संयम
    1. उत्तम तप
    1. उत्तम त्याग
    1. उत्तम अकिंचन  (धन संपत्ति का संग्रह ना करना)
  1. उत्तम ब्रह्मचर्य

14- 18 पापों से दूर रहना

जैन धर्म में 18 प्रमुख पाप बताए गए हैं यह 18 पाप है

  1. हिंसा
  2. अस्तेय
  3. चोरी
  4. असंयम में रति तथा संयम में अरति
  5. मैथुन
  6. राग
  7. द्वेष
  8. परिग्रह
  9. मिथ्यादर्शन रूपी शल्य
  10. दोषारोपण
  11. चुगली
  12. माया
  13. लोभ
  14. कलह
  15. क्रोध
  16. मान
  17. परनिंदा
  18. मिथ्या

दर्शन जैन धर्म के अनुसार मनुष्य को इन 18 पापों से दूर रहना चाहिए इन पापों को नष्ट किए बिना मनुष्य मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता । Jainism detailed summary on the principle and teaching

15-अनीश्वरवाद

जैन धर्म ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता महावीर स्वामी का कहना था कि ईश्वर इस सृष्टि का रचयिता और हरता नहीं है तथा सृष्टि और प्रकृति अनादि है महावीर स्वामी का कहना था कि सृष्टि अथवा विषयों का संचालन करने के लिए ईश्वर जैसी किसी अलौकिक शक्ति की आवश्यकता नहीं है।

16- वेदों में अविश्वास

जैन धर्म वेदों को सत्य और प्रमाणिक नहीं मानता महावीर स्वामी के अनुसार वेद ईश्वर द्वारा रचित नहीं है इसलिए उन्होंने वैदिक यज्ञ और कर्मकांड का घोर विरोध किया।

17- आत्मवाद

जैन धर्म आत्मा के अस्तित्व में विश्वास करता है जैन धर्म के अनुसार आत्मा अजर और अमर है महावीर स्वामी के अनुसार प्रकृति से परिवर्तन संभव हो सकते हैं परंतु आत्मा अजर अमर है और सदैव एक से बनी रहती है महावीर स्वामी के अनुसार विश्व में 2 बुनियादी पदार्थ हैं

जीव

अजीव

जीव का अर्थ ही आत्मा है महावीर स्वामी का विश्वास था कि जीव संसार के कण-कण में पाया जाता है जैन धर्म अनेक आत्माओं के अस्तित्व में विश्वास करता है जैन धर्म के अनुसार जिस प्रकार जीव अलग-अलग होते हैं उनकी आत्मा भी अलग-अलग होती हैं इसलिए जैन धर्म अनेकात्मवादी कहा जाता है । Jainism detailed summary on the principle and teaching

18-जाति प्रथा का विरोध

जैन धर्म का जाति प्रथा तथा ऊंच-नीच के भेदभाव में कोई विश्वास नहीं है महावीर स्वामी ने जाति प्रथा का विरोध किया और सामाजिक समानता पर बल दिया उन्होंने निर्वाण का द्वार सभी जातियों के लोगों के लिए खोल दिया था उनका कहना था कि मोक्ष प्राप्ति के लिए किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए ।

19-नारियों की स्वतंत्रता पर बल देना

महावीर स्वामी ने नारियों की स्वतंत्रता पर बल दिया उन्होंने अपने धर्म तथा संघ के द्वार स्त्रियों के लिए खोल दिए थे उनका कहना था कि पुरुषों की भांति स्त्रियों को भी निर्वाण प्राप्त करने का अधिकार है।

24 तीर्थंकर के नाम और उनके चिन्ह 

1. श्री ऋषभनाथ- बैल
2. श्री अजितनाथ- हाथी
3. श्री संभवनाथ- अश्व (घोड़ा)
4. श्री अभिनंदननाथ- बंदर
5. श्री सुमतिनाथ- चकवा
6. श्री पद्मप्रभ- कमल
7. श्री सुपार्श्वनाथ- साथिया (स्वस्तिक)
8. श्री चन्द्रप्रभ- चन्द्रमा
9. श्री पुष्पदंत- मगर
10. श्री शीतलनाथ- कल्पवृक्ष
11. श्री श्रेयांसनाथ- गैंडा
12. श्री वासुपूज्य- भैंसा
13. श्री विमलनाथ- शूकर
14. श्री अनंतनाथ- सेही
15. श्री धर्मनाथ- वज्रदंड,
16. श्री शांतिनाथ- मृग (हिरण)
17. श्री कुंथुनाथ- बकरा
18. श्री अरहनाथ- मछली
19. श्री मल्लिनाथ- कलश
20. श्री मुनिस्रुव्रतनाथ- कच्छप (कछुआ)
21. श्री नमिनाथ- नीलकमल
22. श्री नेमिनाथ- शंख
23. श्री पार्श्वनाथ- सर्प
24. श्री महावीर- सिंह

 

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