ब्रिटिश शासनकाल में कुटीर तथा हस्तकला उद्योगों का विनाश Notes

Hello दोस्तों, एक बार फिर से स्वागत है आपका Upsc Ias Guru .Com वेबसाइट पर पिछली पोस्ट में हमने आपको ब्रिटिश शासनकाल में धन का उत्सर्ग (निकास) के बारे में बताया था, आज की पोस्ट में हम आपको ब्रिटिश शासनकाल में कुटीर तथा हस्तकला उद्योगों का विनाश के बारे में बताएंगे, तो चलिए शुरू करते हैं आज की पोस्ट

कुटीर तथा हस्तकला उद्योगों का विनाश (Decline of Cottage and Handcraft Industirs)


ब्रिटिश शासन से पूर्व भारत परम्परागत उद्योग तथा दस्तकारियों के लिए विश्व प्रसद्धि था। यहाँ अनेक प्रकार के उद्योग बहुत विकसित तथा उन्नत अवस्था में थे। कताई-बुनाई यहाँ के राष्ट्रीय उद्योग थे जो देश भर में फैले हुए थे। रंगाई, छपाई, सोनेचाँदी के धागे व वस्त्र निर्माण के कार्य भी कताई-बुनाई उद्योग से सम्बद्ध थे। वस्त्र उद्योग के अलावा भारत भवन-निर्माण, ईट व चूना बनाने पत्थर व लकड़ी की नक्काशी, चीनी, नमक के उत्पादन कागज बनाने सोने-चाँदी व जवाहरात के कार्य, ताँबा, पीतल, काँसा आदि संबंधित विभिन्न उद्योग के लिए भी विश्वविख्यात था। लोहे की गलाई और ढलाई के काम में भी भारत उस समय काफी आगे बढ़ा हुआ था, देश को समुद्री जहाज बनाने की कला की भी अच्छी जानकारी थी। बंगाल में बने जहाज लन्दन तक माल ले जाया करते थे। British Raj me kutir udyog ke patan vinash ke karan

कुटीर उद्योग तथा दस्तकारियों को नष्ट करने के उपाय (कारण) –


अंग्रेज भारत में व्यापारी बनकर आये थे। उन्होंने जब देखा कि भारतीय वस्तुओं की माँग यूरोप के बाजारों में सबसे अधिक है तो उन्होंने भारत में व्यापार करना लाभदायक समझा। भारत से सबसे अधिक निर्यात सूती कपड़े का किया जाता था। उस समय सूती कपड़े के प्रमुख केन्द्र सूरत, गुजरात चंदेरी, बुरहानपुर, मैसूर, मद्रास, जौनपुर, बनारस, उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा तथा बंगाल थे। अहमदाबाद और सूरत रेशमी तथा सूती कपड़े के प्रमुख केन्द्र थे। सूती कपड़े के भारी निर्यात को देखकर इंग्लैण्ड में यह सोचा जाने लगा कि यदि इस पर रोक नहीं लगायी गयी तो इंग्लैण्ड की धन-दौलत भारत चली जायेगी। अंग्रेजों ने भारत की दस्तकारियों को नष्ट करने के लिए अग्र उपाय किये –

1. इग्लैण्ड की सरकार द्वारा रेशमी तथा सूती कपड़े के आयात पर प्रतिबन्ध – भारत से सूती कपड़े के आयात से इंग्लैण्ड के ऊनी तथा रेशमी कपड़े के उद्योग को हानि हो रही थी। भारत का बना कपड़ा इतना उत्तम था कि उसकी प्रतियोगिता में इंग्लैण्ड का बना कपड़ा नहीं ठहर सकता था। इसके परिणामस्वरूप इंग्लैण्ड के उद्योगों को हानि होने लगी। बहुत से उद्योग तो ठप्प हो गये। अनेक कारीगर बेरोजगार हो गये। इस स्थिति पर काबू पाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने 1700 ई. में एक कानून बनाकर रंगे तथा छपे हुए भारतीय कपड़े के प्रयोग पर पाबन्दी लगा दी। जो कपड़े इंग्लैण्ड में रंगा तथा छापा जाता था, उस पर यह प्रतिबन्ध लागू नहीं हाता था। इस कानून के बावजूद सफेद कपड़ा भारत से बराबर इंग्लैण्ड जाता रहा। सरकार ने सफेद सूती कपड़े के आयात को कम करने के लिए उस पर 15 प्रतिशत आयात कर लगा दिया। 1720 ई. में एक कानून बनाकर इंग्लैण्ड ने रंगे व छापे जाने वाले भारतीय कपड़े के उपयोग पर भी पाबन्दी लगा दी, किन्तु इन कानूनों के बावजूद भारतीय कपड़े का आयात बढ़ता चला गया। यूरोप के अन्य देशों ने भी भारतीय कपडे पर पाबन्दी लगा दी थी या आयात कर बहुत बढ़ा दिया था, किन्तु फिर भी भारतीय कपड़े के निर्यात में विशेष अन्तर नहीं पड़ा। British Raj me kutir udyog ke patan vinash ke karan

2. दस्तकारों पर अत्याचार – ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने राजनीतिक सत्ता प्राप्त करते ही भारत के कारीगरों तथा बुनकरों पर अनेक अत्याचार आरम्भ कर दिये। कम्पनी ने बुनकरों को अपना माल कम दाम पर बेचने के लिए मजबूर किया। उन पर यह भी दबाव डाला गया कि वे कम्पनी के कारखाने में काम करें और भारतीय व्यापारियों के लिए काम करना छोड़ दे। कम्पनी की नीति के परिणामस्वरूप कारीगरों की काम करने की स्वतन्त्रता नष्ट हो गयी। कम्पनी के कर्मचारी जुलाहों को अग्रिम धनराशि देकर एक शर्तनामें पर हस्ताक्षर करा लेते थे। इसके अनुसार उसकों एक निश्चित तिथि पर, निश्चित मात्रा में तथा निश्चित मूल्य पर कपड़ा देना होता था। कपड़े को जो मूल्य निश्चित किया जाता था, वह बाजार में प्रचलित मूल्य से कम होता था। इससे जुलाहों को बहुत घाटा होता था; जुलाहों की दुर्दशा का वर्णन करते हुए विलियम ने लिखा “आमतौर पर बुनकरों की सहमति आवश्यक नहीं समझी जाती थी, क्योंकि कम्पनी की ओर से जहाँ बिचौलिये नियुक्ति होते थे वे बुनकरों से जहाँ चाहते हस्ताक्षर करवा लेते थे और जो बुनकर रुपया लेने से इन्कार करता था उनकी पिटाई की जाती थी।” इस प्रकार के अत्याचार बंगाल, सूरत तथा देश के अन्य भागों में भी किये जाते थे। बुनकरों से कपड़ा अत्यधिक दबाव और अन्यायपूर्ण उपायों से प्राप्त किया जाता था। उनको इस बात के लिए बाध्य किया जाता था कि वे कम्पनी से ही व्यापारिक सम्बन्ध बनायें रखें और कम्पनी के लिए ही उत्पादन करें, कम्पनी की आज्ञा का उल्लंघन करने पर उन्हें जर्माना भी देना पड़ता था। कभी-कभी जुलाहे कम्पनी के लिए काम न करके जुर्माना देना अच्छा समझते थे। क्योंकि उन्हें अपने माल का डच, पुर्तगाल, फ्रांसीसी तथा अरब व्यापारियों से अधिक मूल्य प्राप्त हो सकता था। बहुत से जुलाहो ने तो कम्पनी के अत्याचारों से तंग आकर काम करना ही बन्द कर दिया था। इससे भारतीय परम्परागत उद्योगों को भारी हानि हुई। British Raj me kutir udyog ke patan vinash ke karan

3. कच्चे माल पर नियन्त्रण – अंग्रेजों ने भारत के कच्चे माल पर अपना पूरा नियन्त्रण स्थापित करने का प्रयत्न किया। उन्होंने यह प्रयत्न किया कि भारतीय उत्पादको को कच्चा माल अधिक से अधिक मूल्य पर उपलब्ध हो। भारतीय कारीगर कच्चा माल अर्थात कपास सूरत तथा बम्बई से खरीदते थे। कम्पनी के कर्मचारियों ने एक निजी कम्पनी खोलकर सूरत से 25,00,000 रुपये में सारी कपास खरीद ली। कारीगरों को पहले कपास 16 से 18 रुपये प्रति मन के हिसाब से मिलती थी, किन्तु कम्पनी की नीति के कारण अब उनको 28 से 30 रुपये प्रति मन के हिसाब से मिलने लगी। यही नीति वे आगे भी अपनाते रहे, इसका कपड़ा उद्योग पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा; ऊँचे दामों पर कपास लेकर कपड़ा बनाने से बनकारों तथा उत्पादकों को इतना लाभ नहीं होता था कि वे अपना जीवन-निर्वाह कर सकें। इस नीति के कारण भारत में बने कपड़े का मूल्य तो बढ़ गया, किन्तु उत्पादकों की मजदूरी नहीं बढ़ी इससे भारतीय उद्योगो को गहरा धक्का लगा। British Raj me kutir udyog ke patan vinash ke karan

4. भारतीय बाजार पर विदेशी वस्तुओं का आधिपत्य – ब्रिटेन में औद्योगिक क्रान्ति के परिणमस्वरूप वहाँ का आर्थिक ढाँचा बदल गया और एक शक्तिशाली औद्योगिक वर्ग का जन्म हुआ जिसका उद्देश्य ब्रिटिश उद्योगों का अधिक से अधिक विकास करना था। इस वर्ग ने कम्पनी को भारत में ऐसी नीति अपनाने पर बाध्य किया जिससे अंग्रेजी उद्योगों को कम कीमत पर कच्चा माल मिल सके और उद्योगों से उत्पादित माल भारत में आसानी से बिक सके।

कुटीर उद्योग के विनाश के परिणाम –


इंग्लैण्ड के औद्योगिक पूँजीपति भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के एकाधिकार को समाप्त करने के प्रयत्न में लगे हुए थे जिसमें उन्हें 1813 ई. में सफलता प्राप्त हुई। 1813 ई. में चार्टर अधिनियम के अनुसार कम्पनी का व्यापारिक एकाधिकार समाप्त हो गया। अब इंग्लैण्ड के उद्योगपतियों के सामने यह समस्या थी कि भारत को इंग्लैण्ड के माल के लिए एक बाजार के रूप में कैसे विकसित किया जाये। इसीलिए सबसे पहला कदम उन्होंने यह उठाया कि यहाँ पर उन्होंने मुक्त व्यापार-नीति को प्रारम्भ किया। भारत में इंग्लैण्ड से जो भी वस्तुएँ आती थीं उनको या तो निःशुल्क आने दिया जाता था या उन पर नाममात्र का ही आयात कर लगाया जाता था। जबकि भारत से इंग्लैण्ड में जाने वाले माल पर भारी कर लगाये गये। 1840 ई. में इंग्लैण्ड में सूती और रेशमी कपड़ों पर 3.5% और ऊनी कपड़ों पर 2% कर लगता था। जबकि भारतीय सूती कपड़े पर 10% रेशमी कपड़ो पर 20% और ऊनी कपड़ों पर 30% कर लगाया जाता था। इस नीति के परिणामस्वरूप भारतीय कपड़े की इंग्लैण्ड में खपत कम हो गयी उदाहरण के लिए, 1814 से 1835 ई. के बीच इंग्लैण्ड के सूती कपड़े की भारत में खपत 8 लाख गज से बढ़कर 5 करोड़ 10 लाख गज हो गया जबकि दूसरी ओर भारतीय कपड़े की इंग्लैण्ड में होने वाली खपत लगभग 12.5 लाख गज से घटकर लगभग 3.06 लाख गज रह गयी। 1844 ई. में भारतीय कपड़े का निर्यात घटकर 63 हजार गज रह गया। इस प्रकार की स्थिति सभी प्रकार के कपड़ों, लोहे से बर्तनों, काँच और कागज से बनी वस्तुओं के क्षेत्र में भी हई।


इंग्लैण्ड की औद्योगिक क्रान्ति के परिणामस्वरूप भारतीय बाजार विदेशी माल से घट गये। विदेशी माल गाँव-गाँव, शहर – शहर में पहुँचाया गया इससे भारत के पुराने नगर जो किसी समय उद्योगों में बहुत बड़े केन्द्र थे; जैसे- ढाका, मुर्शिदाबाद तथा सूरत इत्यादि बर्बाद हो गये। ढाका की मलमल जो विश्व में प्रसिद्ध थी, इसका कारोबार ठप्प हो गया। असंख्य लोगों को जीविका देने वाली कताई और बुनाई की कला भारत से समाप्त हो गयी। भारत के कुशल कारीगर शहरों को छोड़कर गाँवों में शरण लेने लगे, गाँवों में जो भी परम्परागत दस्तकारियाँ थीं उनको भी गहरी चोट पहुँची और इन कामों में लगे हुए लोग भी खेती में ही आश्रय ढूँढ़ने लगे। इसके परिणामस्वरूप खेती पर जनसंख्या का दबाव बढा, इससे गाँवों का संतुलन बिगड़ गया। अन्ततः भारत औद्योगिक देशों से एक खेतिहर देश बन गया। इस औद्योगिक पतन से राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी और इसके विभिन्न अंगो के बीच जो तालमेल था, वह जाता रहा। इससे देश में बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी आदि गम्भीर रोगों को तेजी से बढ़ने का अवसर मिला।


दूसरी ओर इंग्लैण्ड के पूँजीपतियों ने अपने उद्योगों के लिए भारत से कच्चा माल प्राप्त करने के लिए नई नीति का अनुसरण किया। अंग्रेजी सरकार ने 1833 ई. में अंग्रेजों को यह अनुमति दी कि वे भारत में भूमि खरीद सकते हैं। अंग्रेजों ने भारत में भूमि खरीदकर नील तथा चाय की खेती प्रारम्भ की। इससे अंग्रेजों ने अनाप सनाप धन कमाया। नील और चाय की खेती में जो मजदूर काम करते थे उनके साथ गुलामों जैसा व्यवहार किया जाता था। इसके अतिरिक्त अंग्रेजों ने कॉफी (कहवा) तथा पटसन के भी बागान लगाये। अंग्रेजों का उद्देश्य भारतीय उद्योगों के विकास में बाधा उपस्थित कर भारत से अपने उद्योगों के लिए अधिक से अधिक सस्ता माल प्राप्त करना था। इससे अंग्रेजों को भारी मात्रा में कच्चा माल प्राप्त हुआ। उदाहरण के लिए, 1813 ई. में भारत से 90 लाख पौण्ड की कपास इंग्लैण्ड भेजी गयी जो 1844 ई. में बढ़कर 8.6 करोड़ पौण्ड की हो गयी। इसी प्रकार अन्य कच्चे माल में भी वृद्धि हुई। इससे स्पष्ट है कि अंग्रेजों ने कच्चे माल के उत्पादन को बढ़ावा देकर अपने उद्योगों के लिए सस्ता माल प्राप्त किया। British Raj me kutir udyog ke patan vinash ke karan
अब भारत का प्रमुख काम इंग्लैण्ड को कच्चा माल देना और फिर उस कच्चे माल से बनी वस्तुओं के लिए बाजार उपलब्ध करना था।
उपर्यक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारत के परम्परागत उद्योगों का नाश हुआ और भारत में अनौद्योगीकरण को प्रोत्साहन मिला।

यह तो थी ब्रिटिश शासन में कुटीर उद्योगों का पतन की जानकारी के नोट्स अगली पोस्ट में हम आपको 20 मार्च 1927: महाड आंदोलन के बारे में जानकारी देंगे तो बने रहिए Upsc Ias Guru .Com के साथ 🙂

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