ब्रिटिश शासनकाल में धन का उत्सर्ग (निकास) Notes

Hello दोस्तों, एक बार फिर से स्वागत है आपका Upsc Ias Guru .Com वेबसाइट पर पिछली पोस्ट में हमने आपको ब्रिटिश शासनकाल में ग्रामीण ऋणग्रस्तता के बारे में बताया था, आज की पोस्ट में हम आपको ब्रिटिश शासनकाल में धन का उत्सर्ग (निकास) के बारे में बताएंगे, तो चलिए शुरू करते हैं आज की पोस्ट

धन का उत्सर्ग (निकास) (Drain of Wealth)


भारत के धन का अविरल प्रवाह इंग्लैण्ड की ओर था, जिसके बदले भारत को पर्याप्त आर्थिक व्यापारिक अथवा भौतिक नहीं मिला। ऐसे धन को भारतीय राष्ट्रीय नेताओं तथा अर्थषास्त्रियों ने ‘धन की निकासी‘ की संज्ञा दी है। इस धन का निकासी को इंग्लैण्ड ने भारत से प्रत्यक्ष रूप में भेंट अथवा अंशदान माना है। आर्थिक उत्सर्ग की धारणा -वाणिकवाद विचारधारा के अनुसार आर्थिक निकास उस समय होता है जब किसी देश के प्रतिकूल व्यापार सतुलन क फलस्वरूप सोने और चाँदी का निकास होता रहे। प्लासी के युद्ध से पूर्व 50 वर्षो में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत में दो करोड़ पौंड मूल्य का सोना-चाँदी इसलिए भेजा कि वह भारत से निर्यात किये जाने वाली वस्तुओं का मूल्य दे सके। इंग्लैण्ड के वणिक वादशास्त्रियों ने कम्पनी की इस व्यापारिक नीति की आलोचना की है। अंग्रेजी सरकार ने भी बहुत से ऐसे कानून बनाये और प्रतिबन्ध लगाये जिससे भारत का माल पहुँचना कम हो सकें। अन्य साधनों के अतिरिक्त 1720 ई. में संसद में एक ऐसा कानून बनाया जिसके अधीन इंग्लैण्ड में भारतीय रेशमी तथा सूती कपड़ा पहनने वालों पर जुर्माना किया जाता था। Drain of Wealth during Colonial India (British Raj)


प्लासी के युद्ध के पश्चात् यह स्थिति उल्टी हो गयी। इंग्लैण्ड का भारतीय अर्थव्यवस्था पर एकाधिकार हो गया और भारतीय धन का इंग्लैण्ड की ओर प्रवाह होने लगा। ज्यों -ज्यों ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारतीय क्षेत्रों पर अधिकार जमा लिया, वह अधिशेष भारतीय राजस्व उनके हाथ लगना आरम्भ हो गया। इस धन के निकास ने एक अन्य रूप धारण कर लिया। अब कम्पनी के पास लगातार धन बरसने लगा जो कई स्त्रोतों से आता था –

1 – वह लाभ जो भारत में उत्पीड़ित भूमि कर प्रणाली से बचता था (बंगाल की स्थाई कर व्यवस्था),

2 – वह लाभ जो भारतीय मण्डियों पर एकाधिकार नियन्त्रण के फलस्वरूप व्यापार से होता था।

3 – वह बलपूर्वक धन की प्राप्ति जो कम्पनी के अफसर भारत में प्राप्त करते थे।

4 – वह मोटे-मोटे वेतनों के रूप में प्राप्त किया हुआ धन जो संसार में किसी भी वेतनभोगी को वेतन के रूप में नहीं मिलता था (गवर्नर-जनरल का वेतन 20 हजार रुपया प्रतिमास था, सैनिक पदाधिकारियों के वेतन समकालीन इंग्लैण्ड के पदाधिकारियों के कई गुना थे।) यह सब अधिशेष धन कम्पनी पुनः भारत में पूँजी के रूप में लगा देती थी अर्थात किये जाने योग्य पदार्थ खरीद कर बाहर भेज देती थी। इस पूँजी के प्रतिकार के रूप में भारत को कुछ भी प्राप्त नहीं होता था। यह व्यवस्था 1813 ई. के चार्टर एक्ट से समाप्त की गयी जब कम्पनी के व्यापारिक और क्षेत्रीय राजस्व को अलग अलग कर दिया गया।


1813 ई के पश्चात इस आर्थिक निकास ने ‘अप्रतिफल’ निर्यात का रूप धारण कर लिया। कुछ अपवाद के शुरू के वर्षो को छोड़कर भारत का इंग्लैण्ड के साथ द्वितीय विश्व युद्ध तक प्रतिकूल व्यापार सन्तुलन (Unfavourable balance of trade) ही बना रहा। इस निकाय सिद्धांत का मुख्य पक्ष यह है कि भारत के राष्ट्रीय उत्पादन का कुछ भाग भारत की जनता के उपयोग अथवा पूँजी निर्माण के लिए उपलब्ध नहीं था। वह केवल राजनीतिक कारणों के लिए इंग्लैण्ड में भेजा जा रहा था और भारत को उसके प्रतिकार के रूप में कुछ नहीं मिला। Drain of Wealth during Colonial India (British Raj)

आर्थिक उत्सर्ग के तत्व –


सामाज्यीय शासकों ने भारत की खाल उधेड़ेने के सहस्रों ढंग अपनाये। भारतीय प्रशासन अंग्रेजों के हाथ में था। वह केवल इंग्लैण्ड के हित में चलाया जाता है। यह निकास निम्नलिखित रूप से था –

1 गृह व्यय – गृह व्यय उस व्यय में था जो भारत राज्य के सचिव तथा उससे सम्बद्ध व्यय के रूप में था। 1857 ई. के विद्रोह से पूर्व यह गृह व्यय भारत के औसतन राजस्व का 10-13 प्रतिशत के रूप में होता था। 1857 ई. के उपरान्त यह बहुत बढ़ गया और 1897-1901 के बीच यह 24 प्रतिशत हो गया। 1901-02 में गृह व्यय 173,60,000 था। इस गृह व्यय के मुख्य तत्व निम्नलिखित थे Drain of Wealth during Colonial India (British Raj)

(अ) ईस्ट इण्डिया कम्पनी के भागीदारों को लाभांश – 1833 ई. के चार्टर एक्ट में यह प्रावधान था कि कम्पनी के भागीदारों को भारतीय राजस्व में से 1874 ई. तक 6,30,000 पौंड वार्षिक दिये जायेंगे। 1974 ई. में 45 लाख पौंड का ऋण लिया गया ताकि कम्पनी के शेयर सरकार दगुने भाव पर खरीद सके और इस ऋण का ब्याज चलता था।

(ब) विदेश में लिए गए सार्वजनिक ऋण – ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अपने सिर पर 7 करोड़ पौंड ऋण चढ़ा लिया था जो प्रायः उन युद्धों में लगाया गया जिनके द्वारा भारत में कम्पनी के क्षेत्रों का विस्तार किया गया अथवा उन युद्धों में लगाया गया जो कम्पनी की क्षेत्रीय लोपुकता का स्वरूप थे (अफगान, बर्मा, नेपाल) 1900 ई. में इस सार्वजनिक ऋण की मात्रा 22 करोड़ 40 पौंड थी। यह भी ठीक है कि इसमें के कुछ ऋण उत्पादक उद्देश्यों से लिया गया था; जैसे रेलवे, सिंचाई के लिए योजनाएँ तथा अन्य सार्वजनिक कार्य, यद्यपि इसमें सभी रेलवे लाइनें उत्पादकता की भावना से नहीं बनायी गयी थीं।


सर थियोडोर मोरिसन ने अपने एक भाषण भारत में आर्थिक संक्रमण’ में इस ओर ध्यान आकर्षित किया था कि रेलवे में पूँजी लगाने से भारत में एक अन्य उद्योग का आरम्भ हुआ है जिसमें नियुक्तियों के अवसर उत्पन्न हुए हैं और भारत के लिए औद्योगिक समृद्धि का युग प्रस्तुत हुआ है। इसी प्रकार यह भी कहा गया कि सिंचाई परियोजनाओं के प्रारम्भ होने से भारत की अधिक भूमि अधिकार क्षेत्र में आ गयी है और उत्पादन बढ़ा है और भारत को लाभ हुआ है। मोरिसन के अनुसार भारत को यह ऋण बहुत सस्ती दर पर मिला। परन्तु याद रहे कि रेलवे और सिंचाई परियोजनाएँ मुख्य रूप से केवल इंग्लैण्ड के हित में ही बनायी गयी थीं। चूँकि इंग्लैण्ड का भारतीय अर्थव्यवस्था पर अधिकार था इससे भारत का औद्योगिकरण नहीं हुआ, क्योंकि रेलों का सभी सामान इंग्लैण्ड में खरीदा गया (इंजन से लेकर माल ढोने के डिब्बे तक) न ही इससे देश में नियुक्तियों के अवसर बढ़े, अपितु इससे देश में बेकारी की समस्या और बढ़ गयी, क्योंकि इंग्लैण्ड का बना सूती कपड़ा हर जगह मिलने लगा और स्थानीय बुनकरों का धन्धा ठप्प हो गया। इसमें तो कार्ल मार्क्स की भविष्यवाणी भी अशुद्ध निकली। Drain of Wealth during Colonial India (British Raj)

(स) सैनिक तथा असैनिक व्यय – इसमें वे सभी व्यय सम्मिलित थे जो अंग्रेजी पदाधिकारियों को पेंशन तथा अवकाश के लिए मिलते थे। इसके अतिरिक्त लन्दन में स्थिति इण्डिया ऑफिस के संस्थापन तथा प्रचलन पर व्यय और ब्रिटिश युद्ध के सचिवालय को दिये जाने वाला व्यय भी सम्मिलित था। ये सभी व्यय इसलिए थे, क्योंकि भारत विदेशी दासता के फन्दे में जकड़ा था।

(द) इंग्लैण्ड में भण्डार वस्तुओं की खरीद – भारत राज्य सचिव तथा भारत सरकार इंग्लैण्ड में करोड़ों रुपये का माल सैनिक, असैनिक तथा समुद्री विभाग के लिए अंग्रेजी मण्डियों से खरीदते थे। 1861 और 1920 ई. के बीच मद व्यय गृह व्यय का 10-12 प्रतिशत प्रति वर्ष होता था। Drain of Wealth during Colonial India (British Raj)

2 -विदेशी पूँजी निवेश पर दिया जाने वाला ब्याज – भारतीय राष्ट्रीय आय से एक अन्य महत्वपूर्ण निकास था व्यक्तिगत विदेशी पूँजी निवेश पर दिया जाने वाला ब्याज और लाभ। 20 वीं शताब्दी में निजी क्षेत्र की बहुत सी पूँजी का भारत में निवेशन किया गया। दोनों युद्धों के बीच में 30-60 करोड़ रुपया प्रतिवर्ष बाहर जाता था। यह स्मरण रहे कि विदेशी पूँजीपति भारत के औद्योगिक विकास में रत्तीभर भी रुचि नहीं रखता था, अपित उसने भारतीय औद्योगिक विकास के रास्ते में हर सम्भव रूप से रुकावट डाली और भारतीय साधनों का अपने हित में प्रयोग किया।

3 – विदेशी बैंक इन्श्योरेन्स, नौवहन कम्पनियाँ – बैंक, इन्श्योरेन्स और नौवहन कम्पनियों ने भारत से करोड़ो रुपया लाभ के रूप में कमाया। इस धन को ले जाने के अतिरिक्त इनकी सबसे बडी देश को की जाने वाली हानि यह था कि इन सब कम्पनियों ने भारतीय कम्पनियों को पनपने नहीं दिया।


आर्थिक उत्सर्ग का अनुमान (Estimates of Economic Drain)


भारत से इस धन का निकास कितना हुआ इसके विषय में विद्वानों के अनुमान में अत्यधिक अन्तर है, विशेषकर ये अनुमान कब लगाये गये इस रूप से। 1859 में लिखते हुए जार्ज विन्गेट का अनुमान था कि 1835 से 1851 ई. तक यह निकास 42,21,611 प्रतिवर्ष था, अथवा कुल £ 7,17,67,387, 1901 में विलियम डिग्वी ने यह अनुमान लगाया था कि 1757-1815 के बीच यह कुल निकास 50 करोड़ और 100 करोड़ के के बीच था। 1948 ई. में लिखते हुए एक अमेरिकन विद्वान प्रो. होल्डर फरबर ने 1783-1793 के बीच यह मात्रा 19 लाख पौंड प्रति वर्ष निश्चित की है। यह स्मरण रहे कि इस समय कंपनी एक छोटे से क्षेत्र पर ही कार्य कर रही थी। दादाभाई नौरोजी, जी.वी. जोशी, डी.ई. वाचा तथा आर.सी. दत्त जैसे भारतीय राष्ट्रवादियों ने अपनीअपनी गणना की है। दादाभाई ने भिन्न-भिन्न अनुपात दिये और कई बार गणना को बदला। उसने अंग्रेजी राज्य के आरम्भ से लेकर 1865-1866 तक समस्त निकास का अनुपात डेढ़ सौ करोड़ पौंड लगाया है। 1897 ई. में उसने 1883-92 के बीच के दस वर्षों का निकास 35 करोड़ 90 लाख पौंड निश्चित किया हैं। 1901 में वाचा ने 1860-1900 के बीच इस निकासी की वार्षिक औसत 30 से 40 करोड़ रुपये के बीच दी है। उसी वर्ष आर.सी. दत्त ने 2 करोड़ 20 लाख पौंड प्रति वर्ष का अनुमान लगाया। प्रो.सी.एन. वकील ने यह अनमान लगाया है कि 1834-1924 के बीच इस धन निकास की मात्रा 39 करोड़ 40 लाख पौंड और 59 करोड़ 20 लाख पौड की होगी। 1963 में लिखते हुए पैवलौव ने अनुमान लगाया है कि 1930 ई. से आगे अंग्रेजी साम्राज्यवादियों ने भारत से 12 करोड़ और 14 करोड़ पौंड के बीच केवल शुल्क (tribute) के रूप में प्राप्त किये। इस धन से भारत प्रतिवर्ष भिलाई के आकार के तीन इस्पात कारखाने लगा सकता था, जो कि इस साम्राज्यीय युग के समस्त इस्पात के उत्पादन से कहीं अधिक होते। Drain of Wealth during Colonial India (British Raj)

धन के उत्सर्ग का आर्थिक तत्व –


दादाभाई नौरोजी ने धन के निकास को ‘अनिष्ठों का अनिष्ठ‘ की संज्ञा दी है और भारत की निर्धनता का मायक बताया। उनके अनुसार इंग्लैण्ड भारत का लहू चूस कर उसे समाप्त कर रहा है। 1905 में सुण्डरलैंड को लिखे गये एक पत्र में उन्होंने कहा, “भारत की अवस्था बहुत बुरी है। उसकी स्वामी और दास की अवस्था नहीं है, परन्तु उससे भी गिरी हुई है। यह एक ऐसे लुटे हुए राष्ट्र की अवस्था है जहाँ लुटेरे आते रहे, परन्तु वे लुटेरे लूटकर चले जाते थे, परन्तु यह लुटेरा तो सिर पर बैठा हुआ है। पुराने मध्ययुगीन लुटेरों की और अंग्रेजी लुटेरों की तुलना करते हुए एक अन्य आलोचक ने कहा, “पुराना लुटेरा केवल धनी आदमी की दुकानों को लूटता था जहाँ धन एकत्रित होता था और छोटे ग्रामों और झोंपड़ियों को नहीं लूटता था। उसकी तुलना में साम्राराज्यीय लुटेरा सबसे छोटे सबसे गरीब और दूर क्षेत्रों में भी पहुँच गया है और इस प्रकार अंग्रेजी शोषण की पद्धतियाँ कम कष्टदायी तो अवश्य हैं, परन्तु अधिक पक्की और वे रक्त चूसने के नाई हैं।”

इस धन के निकास के कारण देश में पूँजी एकत्रित नहीं हो सकती, जिससे देश के औद्योगिक विकास की गति बहुत धीमी हो गयी। भारतीय धन का इंग्लैण्ड को निकास होने से इंग्लैण्ड में औद्योगिक विकास के साधन तथा गति बहुत बढ़ गयी, विशेषकर क्रान्ति के दिनो में। इसका अधिक घिनौना पक्ष यह भी था कि यही धन पुन: भारत में पूँजी के रूप में लगा दिया जाता था और भारत का शोषण निरन्तर बढ़ता जाता था।

दादाभाई नौरोजी ने एक बार कहा था, “भारत का धन बाहर जाता है और फिर वही धन भारत में ऋण के रूप में आ जाता है और इस ऋण के लिए और अधिक ब्याज, इस प्रकार यह ऋण कुचक्र सा बन जाता है।” इस धन के निकास से भारत के रोजगार तथा आय की सम्भावनाओं पर अत्यधिक प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। आर.सी. दत्त. ने एक भारतीय कवि की इस उपमा का उल्लेख किया था कि जिसमें राजा का अपनी जनता से अधिक कर ग्रहण करना सूरज का पृथ्वी से उस पानी को प्राप्त करने के समान होता है जो वर्षा के रूप में पुनः भूमि को दे देता है, परन्तु यहाँ तो सूरज पानी से ग्रहण कर, वर्षा केवल इंग्लैण्ड को ही देता है।


नौरोजी ने नैतिक निकास” की ओर संकेत किया है, जिससे तात्पर्य यह था कि भारतीय लोगों को उनके देश में भी विश्वास तथा उत्तरदायी पदों से बाहर रखा जाता है। उन्होंने लिखा, “आत्मा तथा बुद्धि का चातुर्य और श्रेष्ठता जो प्रकृति सभी देशों को देती है, भारत के लिए एक खोया हुआ देश है। इसलिए प्रशासन की आधुनिक प्रणाली के अधीन भारतीय जाति का तीन रूप से हास हो रहा है।’


हाल ही में कुछ विद्वानों ने इस निकास सिद्धांत की कुछ परिकल्पनाओं पर प्रश्न उठाया है। रानाडे ने भारत के आर्थिक पिछड़ेपन के समाजशास्त्रीय कारण दिये थे, उन्हें फिर दोहराया गया है। माँरिस डी. मॉरिस ने गभोवधि सिद्धांत पर अधिक बल दिया है और कहा है कि इंग्लैण्ड की भूमिका ने एक ‘चौकीदार’ का आरक्षण दिया, एक तर्कसंगत प्रशासन दिया और एक प्रकार की सामाजिक छत्रछाया दी जिसके आधार पर आर्थिक विकास के होने की सम्भावना थी। भारतीय विद्वानों ने विदेशी पूँजी के दुरुपयोग और कम उपयोग की ओर संकेत किया है और यही दर्शाया है कि साम्राज्यीय प्रशासन जानबूझकर देश को कम विकास की ओर ले जा रहा था।


आज ऐतिहासिक दृष्टि से हम यह कह सकते हैं कि धन के निकास सिद्धांत से एक ऐसी भाषा में जो साधारण व्यक्ति की भाषा में समझी जा सकती थी, अंग्रेजी शासन के शोषक तत्वों की ओर ध्यान दिलाया। स्वतंत्रता युद्ध के दिनों में धन के निकास का सिद्धांत अंग्रेजों के भारत में अंग्रेजी प्रशासन को बदनाम करने के लिए एक सरल सा नारा बन गया। Drain of Wealth during Colonial India (British Raj)

यह तो थी ब्रिटिश शासनकाल में भारत से धन का निष्कासन की जानकारी के नोट्स अगली पोस्ट में हम आपको ब्रिटिश शासन में कुटीर उद्योगों का पतन के बारे में जानकारी देंगे तो बने रहिए Upsc Ias Guru .Com के साथ 🙂

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