ब्रिटिश शासन के दौरान कृषक आन्दोलन Notes

Hello दोस्तों, एक बार फिर से स्वागत है आपका Upsc Ias Guru .Com वेबसाइट पर पिछली पोस्ट में हमने आपको महाड सत्याग्रह : दलित क्रांति, कालाराम मंदिर सत्याग्रह के बारे में बताया था, आज की पोस्ट में हम आपको बीसवीं शताब्दी के कृषक आंदोलन के बारे में बताएंगे, तो चलिए शुरू करते हैं आज की पोस्ट

बीसवीं शताब्दी के कृषक आंदोलन

• 19वीं शताब्दी तक यातायात एवं परिवहन की व्यवस्था सीमित थी। जिससे आर्थिक एवं सामाजिक गतिशीलता में कमी के कारण क्षेत्रीय भावना अधिक प्रबल थी। लोगों में राजनीतिक जागरूकता की कमी के साथ राष्ट्रवादी भावना का भी अभाव था। किसी एक सर्वमान्य आधुनिक अखिल भारतीय विचारधारा के न होने के कारण इस काल के आंदोलन का स्वरूप क्षेत्रीय, तात्कालिक शोषक जैसे जमीदारों, साहूकारों के विरुद्ध, केवल आर्थिक एवं तात्कालिक समस्याओं के समाधान की मांग पर आधारित रहे। ये आन्दोलन मांग पूरी होते ही समाप्त हो जाते थे। इन विद्रोहों ने प्रशासक वर्ग को कभी प्रत्यक्ष रूप से चुनौती नहीं दी। peasant movement during the british rule


• 20 वीं शताब्दी के प्रारंभ से ही यातायात की सुविधा बढ़ने से आर्थिक एवं सामाजिक गतिशीलता का बढ़ना, राजनीतिक एवं आर्थिक जागरूकता के विकास, अखिल भारतीय नेतृत्व वाले नेताओं की उपस्थिति, ब्रिटिश राज के वास्तविक चरित्र की समझ, सुधारवादी आंदोलनों एवं अखिल भारतीय स्तर पर राष्ट्रीय आंदोलनों की शुरुआत आदि जैसे कारणों ने इस काल के कृषक आंदोलनों का चरित्र परिवर्तित कर दिया। peasant movement during the british rule

• अब कृषक आंदोलन अधिक संगठित थे। व्यापक क्षेत्र में प्रसार एवं प्रभावी होने के साथ ही ये स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गये। राष्ट्रीय आंदोलन के नेतृत्वकर्ता जैसे होमरूल लीग, कांग्रेस आदि ने अपना आधार बढ़ाने हेतु किसानों के साथ स्वयं को जोड़ने का प्रयास किया तथा उनकी मांगों को प्रशासन के समक्ष उठाना प्रारम्भ किया। अब आंदोलन का स्वरूप तात्कालिक मांगो तक सीमित न रहकर बड़े परिप्रेक्ष्य में देखा जाने लगा।

चम्पारण सत्याग्रह, 1917


• 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में गोरे बागान मालिकों ने किसानों से एक अनुबंध कर लिया, अंतर्गत किसानों को अपनी भूमि के 3/20 वें हिस्से में नील की खेती करना अनिवार्य था। यह व्यवस्था ‘तिनकठिया पद्धति’ के नाम से जानी जाती थी।

•19वीं सदी के अंत में जर्मनी में रासायनिक रंगो (डाई) का विकास हो गया, जिससे नील बाजार से बाहर हो गया था।

• इसके कारण चम्पारण के बागान नील की खेती बंद करने को विवश हो गये। किसान भी मजबूरन नील की खेती से छुटकारा पाना चाहते थे।

• किन्तु परिस्थितियों को देखकर गोरे बागान मालिक किसानों की विवशता का फायदा उठाना चाहते थे। उन्होने दूसरी फसलों की खेती करने के लिए किसानों को अनुबंध से मुक्त करने के एवज में लगान व अन्य करों की दरों में अत्यधिक वृद्धि कर दी।

• इसके अतिरिक्त उन्होनें अपने द्वारा तय की गयी दरों पर किसानों को अपने उत्पाद बेचने के लिए बाध्य किया। चम्पारण से जुड़े एक प्रमुख आंदोलनकारी राजकुमार शुक्ल ने गाँधीजी को चम्पारण बुलाने का फैसला किया।

• गाँधीजी, राजेन्द्र प्रसाद, ब्रिज किशोर, मजहर उल-हक, महादेव देसाई, नरहरि पारिख तथा जे.वी. कृपलानी आदि ने चम्पारण पहुँच कर मामले की जांच की और गाँधी जी ने कृषकों को अहिंसात्मक असहयोग आंदोलन के लिए प्ररित किया।

• इन दबावों के फलस्वरूप सरकार ने सारे मामले की जांच करने के लिए एक आयोग का गठन किया तथा गाँधीजी को भी इसका सदस्य बनाया।

• परिणामस्वरूप चम्पारण कृषि अधिनियम पारित किया गया जिसके तहत नील उत्पादकों द्वारा की जाने वाली अवैध वसूली बंद कर दी गयी बाद में एक और समझौते के पश्चात् गोरे बागान मालिक अवैध वसूली का 25 प्रतिशत हिस्सा किसानों को लौटाने पर राजी हो गये। peasant movement during the british rule


खेड़ा सत्याग्रह, 1918


• वर्ष 1918 के भीषण दर्भिक्ष के कारण गुजरात के खेड़ा जिले की पूरी फसल बरबाद हो गयी, फिर भी सरकार ने किसानों से मालगुजारी वसूल करने की प्रक्रिया जारी रखी।

• “राजस्व संहिता” के अनुसार यदि फसल का उत्पादन, कुल उत्पाद के एक-चौथाई से भी कम हो तो किसानों का राजस्व पूरी तरह माफ कर दिया जाना चाहिए, किन्तु सरकार ने किसानों का राजस्व माफ करने से इन्कार कर दिया।

• खेड़ा जिले के युवा अधिवक्ता वल्लभ भाई पटेल, इंदुलाल याज्ञिक तथा कई अन्य युवाओं ने गाँधीजी के साथ खेड़ा के गांवों का दौरा प्रारम्भ किया। इन्होंने किसानों को लगान न अदा करने की शपथ दिलाई।

• गाँधीजी ने घोषणा की कि यदि सरकार गरीब किसानों का लगान माफ कर दे तो लगान देने में सक्षम किसान स्वेच्छा से अपना लगान अदा कर देंगे।

• दूसरी ओर सरकार ने लगान वसूलने के लिए दमन का सहारा लिया। कई स्थानों पर किसानों की संपत्ति कुर्क कर ली गयी तथा उनके मवेषियों को जब्त कर लिया गया।

मान दे सकते है। इस आदेश

इसी बीच सरकार ने अधिकारियों को गुप्त निर्देश दिया कि लगान उन्हीं से वसूला जाए जो लगान दे सकते गाँधीजी का उद्देश्य पूरा हो गया तथा आंदोलन समाप्त हो गया।


किसान सभा आंदोलन peasant movement during the british rule


भूमिका –
1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश प्रशासन द्वारा विद्रोह का प्रमुख केंद्र रहे अवध प्रांत में एक समर्थक वर्ग के निर्माण पाने तालुकदारों को भूमि पुनः लौटा दी गयी थी। प्रशासन द्वारा लागू लगान की ऊँची दरें एवं जमीदारों को पुनः कृषि अर्थ पर अधिकार मिल जाने से मनमाने अत्याचारों द्वारा जबरन गैर-कानूनी तरीके से वसूली जैसे भूमि से बेदखली अवैध कर नजराना आदि से किसान त्रस्त थे। प्रथम विश्व युद्ध के बाद अनाज तथा अन्य आवश्यक चीजों के दाम अत्यधिक बढ़ने से अवध के किसानों की दशा अत्यंत दयनीय हो गयी।


• होम रूल लीग के कार्यकर्ता इस काल में अवध में सक्रिय थे तथा उन्होनें किसानों को संगठित कर किसान सभा नाम से संगठन बनाया।

• गौरीशंकर मिश्र, इंद्रनारायण द्विवेदी तथा मदन मोहन मालवीय की सहायता से 1918 में उत्तर प्रदेश किसान सभा, का गठन किया गया।


प्रसार –
• जून 1919 तक लगभग 450 शाखाओं का गठन किया जा चुका था एवं झिगुरी सिंह, दुर्गापाल सिंह एवं बाबा रामचंद्र आदि सभा के प्रमुख नेता थे।


• दिल्ली के कांग्रेस अधिवेशन (1918) में उत्तर प्रदेश के किसानों ने बड़ी संख्या में भाग लिया था। बाबा रामचंद्र ने जवाहर लाल नेहरू से गांवों का दौरा करने का भी आग्रह किया। इसके बाद नेहरू द्वारा कई गावों का दौरा कर कृषकों से संपर्क स्थापित किया गया।


अवध किसान सभा –

• असहयोग आंदोलनकारियों एवं संवैधानिक संघर्ष के पक्षधर नेताओं के मध्य विवाद के कारण असहयोग आंदोलनकारियों द्वारा समानांतर संगठन अवध किसान सभा का गठन अक्टूबर 1920 में किया गया। गौरीशंकर मिश्र, जवाहरलाल नेहरु, बाबा रामचन्द्र एवं देवनारायण आदि नेताओं के प्रयासों से लगभग 330 किसान सभाएं इस संगठन में शामिल हो गई।


• अवध किसान सभा ने किसानों से बेदखल जमीन न जोतने एवं बेगार नहीं करने की अपील की तथा इसे न मानने वाले किसानों का सामाजिक बहिष्कार करने तथा विवादों का निपटारा पंचायतों के माध्यम से करने की अपील की।

• आंदोलन में उच्च एवं निम्न दोनों जातियों के किसानों का प्रतिनिधित्व था।

अंतिम चरण

• जनवरी 1921 तक आंदोलन हिंसक रूप लेने लगा। इस दौरान बाजारों, मकानों खलिहानों की लूटपाट के साथ किसान नेताओं की गिरफ्तारी से संबधित अफवाहों के कारण पुलिस से हुई झड़प मुख्य घटनायें थी।

• आंदोलन के प्रमुख केंद्र रायबरेली, फैजाबाद एवं सुल्तानपुर आदि जिले थे।

• सीमित संसाधनों एवं सरकारी दमन के कारण आंदोलन लगभग समाप्त हो गया।

• इसी बीच सरकार द्वारा अवध मालगुजारी रेंट संशोधन पारित कर दिया गया। इससे आगे किसानों को राहत का आशा मिलने से आंदोलन मार्च 1921 तक समाप्त हो गया।

एकता आंदोलन (Ekta Movement or Unity Movement)

1921 के अंत तक संयुक्त प्रांत के उत्तरी जिलों हरदोई, बहराइच एवं सीतापुर में किसानों द्वारा लगान की दरों में बढ़ोत्तरी और उपज के रूप में लगान बसूलने की प्रथा को लेकर पुनः आंदोलन प्रारंभ कर दिया गया।

किसानों के इस आंदोलन को एकता आंदोलन कहा गया। यह निम्नलिखित मुद्दों पर आधारित थाः

• लगान 50 प्रतिशत से भी अधिक वसूला जाता था।

• लगान वसूली के समय जमीदार के ठेकेदारों द्वारा अपनायी जाने वाली बर्बर नीतियां।

• बेगार की प्रथा।

• एकता बैठक प्रारंभ होने से पहले सभा स्थल पर एक गड्डा खोदकर उसमें पानी भरा जाता था, जिसे गंगा मान कर पुजारी वहाँ एकत्रित किसानों को शपथ दिलाता था कि वे

• केवल निर्धारित लगान अदा करने के साथ लगान अदायगी में समय का पालन करेंगे।

• बेदखल करने की स्थिति में भूमि नहीं छोड़ेगे।

• बेगार नहीं करेंगे।

• अपराधियों की कोई सहायता न करने के साथ पंचायतों के निर्णय को मानेंगे।

• एकता आंदोलन का नेतन्व समाज के निम्न स्तर के किसानों-मदारी पासी एवं अन्य पिछड़ी जातियों के किसान कई छोटे जमींदारों ने किया। आंदोलन में अनुशासन और अंहिंसा की कमी के कारण यह राष्ट्रवादी मुख्यधारा के नेतृत्व से अलग पड़ गया। मार्च के अंत तक प्रशासन द्वारा यह आंदोलन कुचल दिया गया।

यह तो थी बीसवीं शताब्दी के कृषक आंदोलन की जानकारी के नोट्स अगली पोस्ट में हम आपको बीसवीं शताब्दी के कृषक आंदोलन -2 के बारे में जानकारी देंगे तो बने रहिए Upsc Ias Guru .Com के साथ 🙂

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