प्रथम कर्नाटक युद्ध – कारण, महत्त्व और परिणाम Notes

Hello दोस्तों, एक बार फिर से स्वागत है आपका Upsc Ias Guru .Com वेबसाइट पर आज की पोस्ट में हम आपको 18 वीं शताब्दी में भारत की राजनीतिक स्थिति और उपनिवेशवाद आक्रमण- 11 (प्रथम कर्नाटक युद्ध) के बारे में बताएंगे, तो चलिए शुरू करते हैं आज की पोस्ट

कर्नाटक में आंग्ल-फ्रांसीसी संघर्ष (Angli-French Conflict in karnataka)

यूरोपीय जातियों ने सर्वप्रथम व्यापारियों के रूप में भारत में प्रवेश किया और देश के अनेक स्थानों में अपने व्यापारिक केन्द्र स्थापित किए। अठारहवीं शताब्दी के मध्य तक उन्होनें व्यापार पर ही अपना ध्यान केन्द्रित किया और अधिकाधिक लाभ कमाने का प्रयत्न किया। किन्तु शताब्दी के मध्य में दक्षिण का, विशेषकर कर्नाटक की राजनीतिक सत्ता स्थापित करने का स्वप्न देखने लगे। सत्ता के लिए संघर्ष में अंग्रेज तथा फ्रांसीसी सबसे आगे थे। अतः उनके बीच प्रतिस्पर्द्धा अनिवार्य थी। परिणाम यह हुआ कि देशी नरेशों से संघर्ष करने से पहले वे आपस में भिड़ गये और उन्होंने तीन युद्ध लड़े जो कर्नाटक युद्धों के नाम से प्रसिद्ध है। इन युद्धों में अन्ततः अंग्रेजों की विजय हुई, जिसके फलस्वरूप उन्हें भारत में अपना एकछत्र राज्य स्थापित करने का अवसर मिल गया। फ्रांसीसियों तथा अंग्रजों के बीच संघर्ष के कारण

1. युरोप में इंग्लैण्ड तथा फ्रांस के बीच प्रतिस्पर्धा – अठारहवीं शताब्दी में यूरोप में इंग्लैण्ड और फ्रांस दोनों देशों में गहरी व्यापारिक व औपनिवेशिक प्रतिस्पर्धा चल रही थी। यूरोप में उस समय वे दोनों ही सबसे शक्तिशाली राष्ट्र थे। किन्तु सामुद्रिक शक्ति में इंग्लैण्ड बड़ा था। इन दोनों की प्रतिस्पर्धा यूरोपीय महाद्वीप तक ही सीमित नहीं थी, वे दोनों संसार के अन्य भागों में भी एक-दूसरे के कटु प्रतिद्वन्द्वी भी थे वे उत्तरी अमेरिका में, पश्चिमी द्वीपसमूह में तथा एशिया में सर्वत्र एक – दूसरे को नीचा दिखाकर व्यापार और उपनिवेशों के मामलों में सर्वोच्चता प्राप्त करना चाहते थे। फलस्वरूप अठारहवीं शताब्दी में दोनों देशों के बीच अनेक युद्ध लड़े गये।

2. ‌भारत में व्यापारिक प्रतिस्पर्धा – भारत में फ्रांसीसी सबसे बाद में आये, उनसे पहले पुर्तगाली, डच और अंग्रेज इस देश में अपने व्यापार का विस्तार कर चुके थे। उन्होने देश के अनेक भागों में अपनी व्यापारिक कोठियाँ कायम कर ली थी। जब फ्रांसीसी आये तो प्रारम्भ में उन्हें डचों के विरोध का सामना करना पड़ा, किन्तु आगे चलकर अंग्रेजों ने उनके मार्ग में सबसे अधिक रोड़े अटकाये, किन्तु इन सब कठिनाइयों के बाद भी फ्रांसीसी दक्षिणी भारत तथा बंगाल में अपने व्यापारिक केन्द्र कायम करने में सफल रहे। 1720 ई. के बाद फ्रांसीसी कम्पनी की स्थिति में सुधार होने लगा। 1721 ई. में उन्होने मॉरीशस पर अधिकार कर लिया। इस स्थिति में उनके और अंग्रेजों के बीच व्यापारिक प्रतिस्पर्धा होना स्वाभाविक था। इस प्रतिस्पर्द्धा ने ही आगे चलकर दोनों के बीच संघर्षो को जन्म दिया।

3. अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ – यद्यपि आरम्भ में फ्रांसीसी और अंग्रेज दोनों भारत में व्यापारिक उद्देश्य से आये थे, किन्तु अठारहवीं शताब्दी में आते-आते उन दोनों में राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ जाग्रत हो उठीं। औरंगजेब की मृत्यु (1707 ई.) के बाद मुगल साम्राज्य कुछ ही दशकों में जर्जरित हो गया। साम्राज्य के अनेक बड़े सूबे, जैसे- बंगाल, अवध और दक्खिन स्वतंत्र बन बैठे। दक्षिण की राजनीतिक स्थिति सबसे अधिक डाँवाडोल थी। क्षेत्र में निजाम तथा मराठों की बड़ी शक्तियों के अतिरिक्त अनेक छोटे-छोटे हिन्दू और मुस्लिम राज्य थे। यही नहीं हर छोटा-बढ़ा राज्य दरबारी कुचक्रों का अखाड़ा बना हुआ था। युरोप के फ्रांसीसी और अंग्रेज कोरे व्यापारी नहीं थे, वे अच्छे कूटनीतिज्ञ थे और अपनी रक्षा के लिए सैनिक टुकड़ियाँ भी रखते थे। उन्होनें शीघ्र ही दक्षिण की राजनीति की वास्तविकता और उसके खोखलेपन को समझ लिया, उन्हें विश्वास होने लगा कि यदि देशी राजाओं के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप किया जाये, उनके दरबारी कुचक्रों में भाग लिया जाये तो इस देश में राजनीतिक सत्ता की स्थापना करना कठिन नहीं है। इस काम में वास्तव में अंग्रेजों ने पहल की 1749 ई. में उन्होनें तंजौर के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप किया। उन्होंने तंजौर वास्तविक शासक प्रतापसिंह के विरुद्ध शाहजी की सहायता की और उसके बदले देवीकट्टई का क्षेत्र प्राप्त कर लिया आगे चलकर पांडिचेरी के फ्रांसीसी गर्वनर डूप्ले ने इसी नीति का अनुसरण किया और कर्नाटक तथा हैदराबाद के आंतरिक मामलों में इस्तक्षेप किया, जिसके परिणामस्वरूप द्वितीय कर्नाटक युद्ध हुआ।


प्रथम कर्नाटक युद्ध (1744-48 ई.)-First Battle of Karnataka (1744-48 AD)


प्रथम कर्नाटक युद्ध के कारण


व्यापारिक द्वन्द्विता – भारत में 1664 ई. में फ्रांसीसी ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना की गई। भारत में फ्रांसीसी कम्पनी ने अनेक व्यापारिक केन्द्र स्थापित किये और धीरे-धीरे व्यापार के क्षेत्र में उसका प्रभाव बढ़ने लगा। भारत में अंग्रेजों की ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भी व्यापार के क्षेत्र में अपना प्रभाव जमाने का प्रयास किया। परिणामस्वरूप अंग्रेज तथा फ्रांसीसियों के बीच व्यापारिक प्रतिस्पर्धा पैदा हो गयी। दोनों ही एक-दसरे को हानि पहुँचाकर अधिक से अधिक लाभ कमाना चाहते थे। इन परिस्थितियों में अंग्रेज तथा फ्रांसीसियों के बीच अपने व्यापारिक हितों की सुरक्षा के लिए संघर्ष आरम्भ हो गया। 2. 1740 ई. का ऑस्ट्रियाई उत्तराधिकारी युद्ध – उसी समय युरोप में ऑस्ट्रिया के सम्राट षष्ठम की मृत्यु हो गयी और उत्तराधिकार के लिए युद्ध नाम से प्रसिद्ध है। इस युद्ध में एक पक्ष में इंग्लैण्ड और दूसरे में फ्रांस सम्मिलित हो गया। युद्ध का‌ परिणाम यह हुआ कि भारत में अंग्रेज और फ्रांसीसी लड़ पड़े। यह प्रथम कर्नाटक युद्ध था। प्रथम कर्नाटक युद्ध की घटनाएँ

डूप्ले की कूटनीतिक चाल – उस समय डूप्ले जिसने 1742 ई. में कार्यभार संभाला था, पांडिचेरी का गर्वनर था और
मद्रास में अंग्रेज गवर्नर मोर्स था। उस युग में फ्रांस की सामुद्रिक शक्ति इंग्लैण्ड की तुलना में कमजोर थी। डूप्ले इस कमजोरी को समझता था, उसे अपनी सरकार से समुचित सहायता पाने की आशा नहीं थी, इसलिए उसने मद्रास के गर्वनर मोर्स के सामने प्रस्ताव रखा कि भारत में अंग्रेज और फ्रांसीसी तटस्थ बने रहें। किन्तु मोर्स ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया, क्योंकि उसे सूचना मिल गयी थी कि इंग्लैण्ड से उसकी सहायता के लिए और फ्रांसीसियों को भारत से मार भगाने हेतु एक बेडा आने वाला है। तब डूप्ले ने जनाब अनवरुद्दीन से अपील की। नवाब अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों दोनों का अधिपति था. क्योंकि वे दोनों उसके राज्य में रह रहे थे। नवाब ने डूप्ले की बात मान ली और अंग्रेजों को धमकी दी कि यदि उन्होने उसके राज्य को युद्ध-क्षेत्र बनाया तो उन्हें भयंकर परिणाम भुगतने पड़ेंगे। अंग्रेज नवाब से युद्ध मोल लेने की स्थिति में नहीं थे। इस प्रकार डूप्ले ने उस समय अपने को अंग्रेजों के आक्रमण से बचा लिया, जबकि उसकी स्थिति कमजोर थी। और नाविक सहायता की उसे कोई आशा नहीं थी। यह उसकी कूटनीतिक विजय थी।


मद्रास पर फ्रांसीसियों का अधिकार – इसी बीच अप्रैल 1746 ई. में इंग्लैण्ड से एक बेड़ा मद्रास आ पहुंचा। उधर डूप्ले मारीशस के गवर्गर ला बर्दने को अपनी सहायता के लिए बुलाया और बर्दने ने तुरन्त एक बेड़ा एकत्र किया और जलाई में कोरोमण्डल तट पर आ पहुँचा। 7 जुलाई को अंग्रेजी और फ्रांसीसी बेड़ो के बीच टक्कर हो गयी, किन्तु युद्ध अनिणीत रहा। अंग्रेजी बेड़े का कमाण्डर श्रीलंका रवाना हो गया और इस प्रकार मद्रास में अंग्रेज बिना नाविक सहायता के रह गया। डूप्ले ने इस अवसर से लाभ उठाया और ला बूर्दने को मद्रास पर आक्रमण करने को प्ररित किया। अब अंग्रेजों ने नवाब अनवरुद्दीन से शान्ति बनाये रखने की अपील की। किन्तु डूप्ले ने नवाब को वचन दिया कि वह मद्रास को जीत लेने के बाद उस नगर को उसके सुपुर्द कर देगा।

इस प्रकार डूप्ले ने नवाब को वचन दिया कि वह मद्रास जीत लेने के बाद उस नगर को उसके सुपुर्द कर देगा। इस प्रकार डूप्ले ने नवाब को अपनी ओर मिला लिया। फ्रांसीसियों ने मद्रास पर आक्रमण किया और सितम्बर 1746 मे उस पर अधिकार कर लिया। उसी समय डूप्ले और ला बूर्दने में झगड़ा हो गया। ला बूर्दने चाहता था कि फिरौती लेकर मद्रास अंग्रेजों को लौटा दिया जाये, जबकि डूप्ले और ला बूर्दने में झगड़ा हो गया। ला बूर्दने चाहता था कि फिरौती लेकर मद्रास अंग्रेजों को लौटा दिया जाये, जबकि डूप्ले उसे अपने अधिकार में रखना चाहता था जिससे कि उसे आधार बनाकर अंग्रेजों को दक्षिण भारत से मार भगाया जा सके। किन्तु ला बूर्दने सहमत नहीं हुआ। उसने अंग्रेजों से रिश्वत ले ली और 4,00,000 पौण्ड के बदले में मद्रास को अंग्रेजों के सुपुर्द करके मॉरीशस वापस लौट गया। किन्तु डूप्ले ने ला बूर्दने के समझौते को स्वीकार नहीं किया और मद्रास को पुनः हस्तगत कर लिया।

सेण्ट थोमे का युद्ध – जब डूप्ले का मद्रास (चेन्नई) पर अधिकार हो गया तो अनवरुद्दीन ने डूप्ले से माँग की कि वह नगर को उसके हवाले कर दे किन्तु डूप्ले अपने वायदे से मुकर गया। तब नवाब ने अपने पुत्र महफूज खाँ के नेतृत्व में एक सेना डूप्ले के खिलाफ भेज दी, किन्तु एक छोटी सी फ्रांसीसी सेना ने नवाब की सेना को सेण्ट टोम के युद्ध में धूल चटा दी। इतिहासकारों ने इस अत्यन्त साधरण सी विजय को बड़ा महत्व दिया है। ओर्म लिखता है, “यूरोपीय जातियों को भारतीय नरेशों की सैनिक शक्ति का उस समय तक सही अन्दाज नहीं था, किन्तु एक फ्रांसीसी टुकड़ी ने सम्पूर्ण सेना को हराकर उसका खोखलापन सिद्ध कर दिया। यह स्मरण रखने की बात है कि सेण्ट टोम के युद्ध में फ्रांसीसी टुकड़ी में केवल यूरोपीय सैनिक ही नहीं थे, उसमें भारतीय सिपाही भी सम्मिलित थे। कहा जाता है कि इससे यूरोपीय सेनानायकों ने यह निष्कर्ष निकाला कि भारतीयों को यूरोपीय ढंग की सैन्य-शिक्षा देकर उच्चकोटि का सैनिक बनाया जा सकता था। आगे चलकर अंग्रेजों ने इस नीति का सफलतापूर्वक अनुसरण किया।


अगस्त 1748 ई. में इंग्लैण्ड से एक बेड़ा आ गया जिसने आकर पॉण्डिचेरी की नाकेबन्दी कर ली। यद्यपि फ्रांसीसियों को कोई नाविक सहायता नहीं मिली, फिर भी उन्होंने पॉण्डिचेरी की साहस के साथ रक्षा की। अन्त में अंग्रेजों को घेरा उठाना पड़ा। इससे डूप्ले की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई।

★ युद्ध का अन्त (1748 ई.) – जिस समय भारत में पूर्वोक्त घटनाएँ घट रही थीं, उसी समय यूरोप में ऑस्ट्रियाई उत्तराधिकार का युद्ध बन्द हो गया तथा एक्स-ला-चैपल की संधि हो गयी। उसके अनुसार फ्रांसीसियों ने मद्रास अंग्रेजों को लौटा दिया।

युद्ध के परिणाम (महत्व) –


इस प्रकार कर्नाटक युद्ध समाप्त हो गया। युद्ध में दोनों पक्षों में से किसी ने न कुछ खोया और न कुछ पाया फिर भी इस युद्ध का ऐतिहासिक महत्व है। प्रो. डाँडवेल लिखते हैं, “उसने सामुद्रिक शक्ति के अति व्यापक प्रभाव का प्रदर्शन कर दिया, उसने यह भी दर्शा दिया कि भारतीय सेनाओं की युद्ध प्रणाली की तुलना में यूरोपीय रण पद्वति कहीं श्रेष्ठ थी और उसने यह भी प्रकट कर दिया कि भारतीय राज्य-व्यवस्था के मर्मस्थल में घुन लग गया था।’ इस युद्ध के दो विशेष परिणाम हुए। प्रथम, इस देश ने नरेशों की निगा में यूरोपीय जातियों की सैनिक प्रतिष्ठा स्थापित हो गयी। दूसरे, यूरोपीय जातियों को अनुभव हो गया कि देशी दरबारों की आन्तरिक राजनीति में हस्तक्षेप करके अपार लाभ उठाया जा सकता है और राजनीकि सत्ता की स्थापना की जा सकती है।

यह तो थी 18 वीं शताब्दी में भारत की राजनीतिक स्थिति और उपनिवेशवाद आक्रमण- 11 (प्रथम कर्नाटक युद्ध) की जानकारी के नोट्स अगली पोस्ट में हम आपको द्वितीय कर्नाटक युद्ध के बारे में जानकारी देंगे तो बने रहिए Upsc Ias Guru .Com के साथ 🙂

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