आंग्ल-सिख युद्ध – कारण, महत्त्व और परिणाम Notes

Hello दोस्तों, एक बार फिर से स्वागत है आपका Upsc Ias Guru .Com वेबसाइट पर आज की पोस्ट में हम आपको 18 वीं शताब्दी में भारत की राजनीतिक स्थिति और उपनिवेशवाद आक्रमण- 10 (आंग्ल-सिख युद्ध) के बारे में बताएंगे, तो चलिए शुरू करते हैं आज की पोस्ट

पंजाब पर आक्रमण और उसका विलय Anglo-Sikh War


सिक्खों के 10 वें गुरू गोविन्द सिंह जी ने व्यक्तिरूप गुरू के सिद्धान्त को समाप्त करके खालसा पंथ की स्थापना की। अब सिक्खों की पवित्र पुस्तक “गुरू ग्रन्थ साहिब ने गुरू का स्थान ले लिया। कालान्तर में दल खालसा की स्थापना की गई, जिसे छोटे छोटे जत्थों में बाँट दिया। इन्हें मिसल कहा जाता था, ये 12 थीं। इनमें से एक मिसल सुकरचकियां के नेता रणजीत सिंह थे जिन्होने पंजाब में सिक्ख राज्य स्थापित किया। रणजीत सिंह ने बिखरे हुए सिक्ख राज्यों को एक संगठित राज्य में परिवर्तित करने के प्रयास किये। उनकी निगाहें सतजल नदी के पूर्व में स्थित राज्यों पर थी, जिस पर अंग्रेज भी अपना आधिपत्य चाहते थे। अंग्रेजों ने एक मिशन मैत्री प्रस्ताव के लिए चार्ल्स मेटकांफ के नेतृत्व में रणजीत सिंह के पास भेजा, फरवरी 1809 में ऑक्टर लोनी ने सतलज के पूर्वी प्रदेशों पर अंग्रेजी नियन्त्रण की घोषणा कर दी। अप्रैल 1809 में अंग्रेजों और रणजीत सिंह के बीच अमृतसर की संधि हई।


🌟 सतलज नदी को सीमा मान पूर्वी प्रदेशों पर अंग्रेजों के नियंत्रण को स्वीकार कर लिया गया तथा उत्तर पश्चिम में रणजीत सिंह को विस्तार की छूट दे दी गई।

🌟 संधि की किसी धारा का उल्लंधन पर संधि समाप्त मानी जायेगी।

🌟 दोनों ने एक दूसरे के मित्र बने रहने का वादा किया। लेकिन अंग्रेजों ने उसके बाद राज्य पर आक्रमण कर उसे अपने राज्य में मिला लिया। इस संधि से अंग्रेजों का वर्चस्व सतलज तक कायम हो गया वे उत्तर में सिक्खों के भय से मुक्त हो गए। इससे सिक्ख राज्य के स्थायित्व विपरीत प्रभाव पड़ा। रणजीत सिंह की कमजोरी भी प्रकट हो गई। 1831 में त्रिपक्षीय संधि (रणजीत सिंह, अंग्रेज और शाहशुजा) के अनुसार सिंध के मामले में रणजीत सिंह ने ब्रिटिश मध्यस्थता को स्वीकार कर लिया। रणजीत सिंह संघर्ष नहीं चाहता था लेकिन अफगान युद्ध के समय ब्रिटिश सेना को पंजाब से निकलने की अनुमति नहीं दी। 27 जून, 1839 को लकवे के कारण उनकी मृत्यु हो गई।

प्रथम आंग्ल-सिक्ख युद्ध – (1845-46) Anglo-Sikh War

रणजीत सिंह की मृत्यु के पश्चात सरदारों की महत्वाकांक्षा व स्वार्थ जाग उठे। ऐसे में अंग्रेजी गर्वनर जनरल सिक्ख सेना में असन्तोष उत्पन्न करने की योजना बना रहा था और अंग्रेज अपनी साम्राज्यवादी महत्वकांक्षा को पूरी करने के लिए सेना व तोपों की संख्या लगातार बढ़ाते जा रहे थे। पंजाब में गुटबंदी और राजनैतिक अराजकता के माहौल में डोगरा सरदार गुलाब सिंह और सिक्ख सेना व सामन्तों के संघर्ष ने स्थिति और अधिकर खराब कर दी। उधर खालसा सेना पर रानी जिन्दा तथा लाल सिंह का नियंत्रण कम हो रहा था तो वे उसे अंग्रेजों से लड़ाने का प्रयास करने लगे। अंग्रेज भी युद्ध की तैयारी में लग गये। 1843 ई. में अंग्रेजों ने सिन्ध तक पहुँचने के लिए पंजाब को जीतना अंग्रेजों के लिए आवश्यक हो गया। 13 दिसम्बर, 1845 में हार्डिंग ने युद्ध की घोषणा कर दी। पाँच स्थानों पर युद्ध हुआ, सबराओ का युद्ध निर्णायक रहा जिसमें सिक्ख पराजित हुए, लाहौर अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया। लाहौर की संधि के साथ युद्ध समाप्त हुआ।

लाहौर की संधि – (1 मार्च 1846)


महाराजा व उसके उत्तराधिकारियों ने सतलज पार के सभी प्रदेशों पर अपना अधिकार त्याग दिया।

दिलीप सिंह को महाराजा और रानी जिन्दा को संरक्षक रहने दिया गया।

क्षति पूर्ति के रूप में 50 लाख व कश्मीर व हजारा प्रान्त अंग्रेजों के पास चला गया।

सिक्ख सेना सीमित कर दी गई।

लाहौर में अंग्रेज सेना का रहना स्वीकार किया गया।

सिक्खों की शक्ति काफी कमजोर हो गई, दिसम्बर 1846 में “भैरोंवाल की संधि” नाम से एक अन्य सन्धि अंग्रेज सरकार ने लाहौर दरबार के साथ की जिसके अनुसार हेनरी लारेन्स (ब्रिटिश एजेन्ट) की अध्यक्षता में अंग्रेज समर्थक 8 सिक्ख सरदारों की संरक्षण परिषद का गठन किया गया। 22 लाख रूपये अंग्रेज सेना के लाहौर में रहने का व्यय भार लाहौर पर डाला गया। रानी जिन्दा 1 लाख रूपये वार्षिक पेंशन देकर बनारस भेज दिया गया। इस संधि से अंग्रेज पंजाब के एक भाग के स्वामी हो गए।


द्वितीय आंग्ल-सिक्ख युद्ध- (1848-49) Anglo-Sikh War


सिक्ख नेताओं के विश्वासघात से मिली पराजय से सिक्ख बहत क्रुद्ध थे। सेना से मुक्त किए गए सैनिकों में भी असंतोष था। 1847-48 में किये गये सुधार सिक्ख सरदारों के हितों के विपरीत थे। अंग्रेज रेजिडेन्ट व अंग्रेज अधिकारी लगातार सिक्ख राज्यों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप कर रहे थे। रानी जिन्दा को षड़यंत्र रचने के आरोप में कैद कर चुनार भेज दिया गया इससे सिक्खो में रोष पैदा हो गया। इधर महाराजा दिलीप सिंह के वैवाहिक मामलों में दखल देकर और मुल्तान गर्वनर मूलराज को स्थानीय सैनिक विद्रोह व अधिक लगान की मांग ने अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष करने के लिए विवश कर दिया। 22 नवम्बर 1848 को रामनगर का युद्ध अंग्रेजों व सिक्खों में अनिर्णायक रहा। 13 जनवरी 1849 को चिलियानवाला के युद्ध में भी हार जीत का निर्णय नहीं हो सका। फरवरी 1849 में गुजरात (चेनाब नदी के किनारे) की लड़ाई में सिक्ख सरदारों का राजा को सहयोग न करने से हार गये तथा 13 मार्च 1849 को युद्ध समाप्त हो गया। लॉर्ड डलहौजी ने 29 मार्च 1849 को एक घोषणा कर पंजाब को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया। घोषणा में कहा गया कि पंजाब के राज्य का अंत हो गया है। महाराजा दिलीप सिंह के सारे प्रदेश भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के अंग हैं, कोहीनूर हीरा और पंजाब का राज्य दिलीप सिंह और उसका संरक्षक परिषद ने अंग्रेजों को समर्पित कर दिया।

युद्ध का परिणाम


पंजाब में सिक्ख राज्य का अंत हो गया। महाराजा दिलीप सिंह को पेंशन दे दी गई। नवीन प्रशासनिक व्यवस्थाओं के लिए हेनरी लोरेन्स की अध्यक्षता में तीन सदस्यों के बोर्ड का गठन किया गया। ब्रिटिश भारत की सीमाएं अफगानिस्तान तक पहुंच गई।

यह तो थी 18 वीं शताब्दी में भारत की राजनीतिक स्थिति और उपनिवेशवाद आक्रमण- 10 (आंग्ल-सिख युद्ध) की जानकारी के नोट्स अगली पोस्ट में हम आपको कर्नाटक में आंग्ल-फ्रांसीसी संघर्ष (Angli-French Conflict in karnataka) के बारे में जानकारी देंगे तो बने रहिए Upsc Ias Guru .Com के साथ 🙂

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