टीपू सुल्तान का मुल्यांकन Notes

Hello दोस्तों, एक बार फिर से स्वागत है आपका Upsc Ias Guru .Com वेबसाइट पर आज की पोस्ट में हम आपको 18 वीं शताब्दी में भारत की राजनीतिक स्थिति और उपनिवेशवाद आक्रमण- 9 (टीपू सुल्तान का मूल्यांकन) के बारे में बताएंगे, तो चलिए शुरू करते हैं आज की पोस्ट

टीपू सुल्तान का मुल्यांकन tipu sultan history in hindi

टीपू का स्वभाव, चरित्र तथा उपलब्धियों के विषय में लेखकों के विभिन्न मत हैं। उस समय के अंग्रेज टीपू से बहुत भयभीत थे और उससे घृणा करते थे। यही कारण है कि पुराने अंग्रेज लेखकों ने और उनका अनुकरण करने वाले कुछ आधुनिक लेखको ने टीपू की कटु आलोचना की हैं। प्रेण्ट्रिक लिखता है कि “टीपू निर्दयी, क्रूर, अत्याचारी तथा रक्तपिपासू था। कर्नल विल्क्स का मत है कि “हैदर ने शायद ही कभी कोई भूल की हो और टीपू ने शायद कभी सही काम किया हो।” एक आधुनिक अंग्रेज लेखक बोरिंग लिखता है कि अपनी धार्मिक कट्टरता, स्वाभावित अत्याचारिता तथा निरंकुशता के कारण टीपू ने सहस्त्रों लोगों का जीवन नष्ट किया। बोरिंग का आरोप है कि जब टीपू ने अंग्रेजों से कनारा और मालाबार छीना था तो उससे ईसाइयों पर अत्याचार किये थे। उपर्युक्त सभी मत उन अंग्रेजों के हैं जिन्हें हम निष्पक्ष इतिहासकार की कोटि में रख सकते। उन्होंने अपने देशवासियों के धूर्ततापूर्ण कार्यों को उचित ठहराने के लिए टीपू जैसे अपने कट्टर शत्रु के लिए ऐसी असभ्य भाषा का प्रयोग किया है। निष्पक्ष भाव से देखने पर टीपू का चरित्र इससे बहुत भिन्न मिलेगा।


टीपू का चरित्र उच्चकोटि का था। वह उन दर्गुणें से मुक्त था जो उस काल के शासक-वर्ग में सामान्य रूप से पाये जाते थे। उसे ईश्वर में गहरी आस्था थी। वह सुशिक्षित था और फारसी, कन्नड़ तथा उर्दू अच्छी तरह बोल सकता था। वह विद्वानों का आदर करता था और उसके पास एक बड़ा पुस्तकालय था।


शूरत्व तथा आत्म-सम्मान टीपू के श्रेष्ठ गुण थे। उसने अंग्रेजों को अनेक युद्धों में परास्त किया और अन्त में निर्मोह युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ। वास्तव में टीपू की गणना भारत के उच्चकोटि के स्वाधीनता-प्रेमियों में की जाती है। यदि उसे केवल राज्य के विलासी जीवन का मोह होता तो वह भी निजाम की तरह अंग्रेजों की दासता स्वीकार कर सकता था, किन्तु उसने स्वाधीनता और आत्म-सम्मान को सर्वोपरि महत्व दिया।


टीपू को अपने समय की राजनीति का अच्छा ज्ञान था। उसने समझ लिया था कि अंग्रेज ही उसके कट्टर शत्रु हैं। वह युरोपीय राजनीति की मुख्य प्रवृत्तियों को समझता था। उसे इंग्लैण्ड और फ्रांस की पारस्परिक विश्वव्यापी प्रतिस्पर्धा की अच्छी जानकारी थी। उसने फ्रांस को तथा तुर्की के सुल्तान के पास अपने दूत भेजे और उनसे अंग्रजों के विरूद्ध सहायता माँगी। उसने काबुल के जमानशाह से पत्र-व्यवहार किया। इससे स्पष्ट है कि राजनीति और कूटनीति के विषय में उसका दृष्टिकोण संकुचित नहीं
था। tipu sultan history in hindi

टीपू को अपनी प्रजा के सुख-दुःख का ध्यान था। वह अत्यन्त परिश्रमी शासक था। तृतीय मैसूर युद्ध के बाद उसका आधा राज्य चला गया था, फिर भी उसी आर्थिक और सैन्य-व्यवस्था बिगड़ने नहीं पायी। मेजर डिरोन लिखता है- “उसका राज्य सर्वत्र जनसंकुल था और भूमि की क्षमता के अनुसार सब जगह अच्छी खेती होती थी, उसके सैनिक रण-क्षेत्र में अन्तिम पराजय के समय तक अनुशासनबद्ध और निष्ठावान बने रहे, यह इस बात का पक्का साक्ष्य है कि उसकी सेना में उच्चकोटि की व्यवस्था और नियम थे। यद्यपि उसका शासन कठोर तथा स्वेच्छाचारी था, किन्तु उसकी निरंकशता ऐसी थी जैसी कि एक नीति-निपुण और योग्य शासक की होनी चाहिए।” लेफ्टीनेंट मूर नाम का एक अन्य सैनिक अफसर लिखता है, “यदि कोई व्यक्ति किसी अपरिचित देश की यात्रा करे और उसे हर चीज फली-फूली दिखाई दे और लोग सुखी हों तो वह स्वभावत: यह निष्कर्ष निकालेगा कि उस देश की शासन-व्यवस्था जनता की भावनाओं के अनुकूल है। यही चित्र टीपू के राज्य का है और यही उसके शासन के विषय में हमारा निष्कर्ष है।”


टीपू विचारवान व्यक्ति था, उसकी नवीन विचारों और प्रयोगों में विशेष रुचि थी। उस जैसा क्रियाशील मस्तिष्क वाला अन्य कोई शासक उस काल के भारत में नहीं था। उसने शासन के हर क्षेत्र में सुधार किये। उसने विदेशी व्यापार को प्रोत्साहन दिया और उसके लिए विदेशों में दूत भेजे। उसने 9 आयुक्तों की एक व्यापार-परिषद् स्थापित की जो सामुद्रिक तथा स्थल व्यापार को बढ़ाने के लिए कार्य करती थी। टीपू ने नाप-तौल की विधि में सुधार किया, नयी जंत्री (कलैण्डर) प्रचलित की, नये सिक्के तखार अधिकारियों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही की। उसने सेना को पुनर्गठित किया और सैनिक नियमो को संगहीत तथा विभिन्न स्तरों के अधिकारियों के कर्तव्य निश्चित किये। tipu sultan history in hindi


टीपू का धर्मान्धता का आरोप लगाना अनुचित है। उसने अनेक हिन्दू मन्दिरों के निर्माण हेतु आर्थिक सहायता दी। कहा जाता है कि अन्तिम युद्ध में कूदने के पहले उसने ब्राह्मणों से पूजा तथा मन्त्रोच्चारण कराया। उसने हिन्दुओं को उच्च पदों पर नियक्त किया। हाँ, यह स्वीकार करना होगा कि शत्रुओं के प्रति उसका व्यवहार कठोर था।


किन्तु यह मानना पड़ेगा कि हैदरअली की तुलना में उसमें कूटनीतिक सूझबूझ कम थी। उसने फ्रांसीसियों का तो दामन पकड़ा और तुर्की के सुल्तान से भी सहायता की आशा की, किन्तु निजाम और मराठों को अपनी ओर मिलाने के लिए कुछ भी नहीं किया और हर बार अपने विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बन जाने दिया। शायद उसमें मिथ्या आत्म-सम्मान की भावना प्रबल थी इसलिए उसने अपने पड़ोसियों की ओर मित्रता का हाथ बढ़ाने का प्रयत्न नहीं किया।

यह तो थी 18 वीं शताब्दी में भारत की राजनीतिक स्थिति और उपनिवेशवाद आक्रमण- 9 (टीपू का मुल्यांकन) की जानकारी के नोट्स अगली पोस्ट में हम आपको आंग्ल-सिख युद्ध (Anglo-Sikh War) के बारे में जानकारी देंगे तो बने रहिए Upsc Ias Guru .Com के साथ 🙂

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