द्वितीय कर्नाटक युद्ध – कारण, महत्त्व और परिणाम Notes

Hello दोस्तों, एक बार फिर से स्वागत है आपका Upsc Ias Guru .Com वेबसाइट पर आज की पोस्ट में हम आपको 18 वीं शताब्दी में भारत की राजनीतिक स्थिति और उपनिवेशवाद आक्रमण- 12 (द्वितीय कर्नाटक युद्ध) के बारे में बताएंगे, तो चलिए शुरू करते हैं आज की पोस्ट

द्वितीय कर्नाटक युद्ध (1749-54 ई.) Second Battle of Karnataka (1749-54 AD)


युद्ध के कारण –

1. अंग्रेज-फ्रांसीसी शत्रुत – अंग्रेज-फ्रांसीसी एक-दसरे को अपना शत्रु समझने लगे थे। प्रथम कर्नाटक युद्ध में यह शत्रुत और भी गहरी हो गई। यद्यपि प्रथम युद्ध समाप्त हो गया था, किन्तु वे एक -दसरे को नीचा दिखाने तथा नुकसान पहुंचाने का बार-बार प्रयत्न करते रहे। प्रथम कर्नाटक युद्ध में उनको कुछ भी नहीं मिल पाया था इससे उनको निराशा हुई। इस निराशा को आशा में बदलने को दोनों ही पक्ष प्रयत्न करते रहे। परिणामस्वरूप द्वितीय कर्नाटक युद्ध की स्थिति पैदा हुई।

2. उत्तराधिकार का संघर्ष – 1748 ई. में दक्खिन के सबेदार आसफशाह, निजामुलमुल्क का देहान्त हो गया और उत्तराधिकार के लिए संघर्ष छिड़ गया। निजाम का पुत्र नासिरजंग और धेवता मुजफ्फरजंग दो मुख्य प्रतिद्वन्द्वी थे। उन्हीं दिनों कर्नाटक के नवाब दोस्त अली का दामाद चाँदा साहब अर्काट की गद्दी को, जिस पर उस समय अनवरुद्दीन का अधिकार था, हस्तगत करना चाहता था।

3. चाँदा साहब का कर्नाटक पर अधिकार – चाँदा साहब और मुजफ्फरजंग ने अपने-अपने स्वार्थो को पूरा करने के लिए एक संयुक्त मोर्चा बना लिया। चाँदा साहब ने डूप्ले से सहायता माँगी। डूप्ले तुरन्त सहमत हो गया। उसने सोचा कि यदि उसकी योजना सफल हो गयी तो दक्खिन और कर्नाटक दोनों राज्यों पर उसका प्रभाव स्थापित हो जायेगा। शीघ्र ही एक संधि हो गयी। चाँदा साहब ने मुजफ्फरजंग और फ्रांसीसियों की सहायता से अगस्त 1749 ई. अनवरुद्दीन को अम्बर के युद्ध में परास्त किया और मार डाला। चाँदा साहब का कर्नाटक पर अधिकार हो गया। अनवरुद्दीन के पुत्र मुहम्मद अली ने भाग कर त्रिचनापल्ली के दुर्ग में शरण ली। चाँदा साहब ने फ्रांसीसीयों की सहायता के बदले उन्हें पॉण्डिचेरी के निकट 80 गाँव भेंट स्वरूप प्रदान कर दिये। अंग्रेजों का इस घटना से चिन्तित होना स्वाभाविक था।

4. सेण्ट टोम पर अंग्रेजों का अधिकार – अंग्रेज फ्रांसीसीयों की बढ़ती शक्ति को सहन नहीं कर सकते थे। उन्होनें तुरन्त मुहम्मद अली के नाम से सेण्ट टॉम पर, जो चाँदा साहब के राज्य में था, अधिकार कर लिया। सेण्ट टोम मद्रास (चेन्नई) से लगभग 6.4 किमी. दूर था। यदि वह फ्रांसीसीयों अथवा चाँदा साहब के हाथों में पड़ जाता तो मद्रास के लिए खतरा उत्पन्न हो सकता था। अतः अंग्रेजों के लिए उस स्थान का विशेष महत्व था।

5. तंजौर की समस्या – तंजौर की समस्या ने अंग्रेज तथा फ्रांसीसियों की प्रतिस्पर्धा को और बढ़ा दिया। 1738 ई. में पॉण्डिचेरी फ्रांसीसी गर्वनर ड्यूमा ने तंजौर में उत्तराधिकार युद्ध प्रारम्भ कर दिया। इस युद्ध में अंग्रेजों ने भाग लिया, जिसके बदले उनको कोटाई स्थान प्राप्त हो गया। इस घटना से फ्रांसीसियों में गहरा असन्तोष पैदा हुआ और उन्होंने अंग्रेजों को खुलकर विरोध किया। इससे दोनों में कटुता पैदा हुई। युद्ध की घटनाएँकर्नाटक पर चाँदा साहब का अधिकार हो जाने पर अंग्रेज़ तथा फ्रांसीसी खुलकर एक-दूसरे के सामने आ गये।

युद्ध का प्रमुख घटनाएँ निम्न प्रकार हैं

1. हैदराबाद में फ्रांसीसी प्रभाव – उधर नासिरजंग दक्खिन का सूबेदार बन बैठा था। अंग्रजों ने उसका पक्ष लिया और उसे कर्नाटक पर अपना प्रभुत्व पुनः स्थापित करने के लिए प्रेरित किया। फलस्वरूप 1750 ई. में नासिरजंग कर्नाटक में जा धमका और मुजफ्फरजंग को युद्ध में परास्त कर दिया और बन्दी बना लिया। उस समय ऐसा लगा कि डूप्ले की पूरी योजना पर पानी फिर गया, किन्तु वह हतोत्साहित नहीं हुआ। उसने मछलीपट्टम पर अधिकार कर लिया और एक अन्य फांसीसी सेनानायक बुसी ने जिजी को हस्तगत कर लिया। शीघ्र ही भाग्य ने पुनः पलटा खाया और नासिरजंग की हत्या कर दी गयी। मुजफ्फरजंग जो पहले बन्दी बना लिया गया था, बाद में मुक्त हो गया और फ्रांसीसियों की सहायता से दक्खिन का सूबेदार बन गया।

नये नवाब ने फ्रांसीसियों को मछलीपट्टम और दिवी के नगर तथा बहुत-सा धन नकद प्रदान किया। डूप्ले को उसने एक गाँव की जागीर तथा 2,00,000 पौण्ड नकद भेंट किये। इसके अतिरिक्त उसे कृष्णा नदी से लेकर कन्याकुमारी तक के प्रदेश के गर्वनर की उपाधि भी प्रदान की गयी। चाँदा साहब को अर्काट का नवाब मान लिया गया। मुजफ्फरजंग की प्रार्थना पर डूप्ले ने एक फ्रांसीसी सैनिक अकड़ी बुसी के नेतृत्व में उसकी सहायता के लिए भेज दी, किन्तु दुर्भाग्य से मुजफ्फरजंग एक आकस्मिक संघर्ष में मारा गया। बुसी ने निजामुलमुल्क के तीसरे बेटे सलाबतजंग को हैदराबाद (निजाब की राजधानी) की गद्दी पर बैठा दिया। वह सात वर्ष तक हैदराबाद में रहा और नये नवाब की बाह्य तथा आन्तरिक शत्रुओं से रक्षा करता रहा। उसने नवाब से फ्रांसीसियों के लिए उत्तरी प्रदेश जिसमें मुस्तफानगर, एल्लौर, राजमहेन्द्री और चिकाकोल सम्मिलित थे, प्राप्त कर लिया। इस प्रदेश की वार्षिक आय तीस लाख रुपये थी।यहाँ तक डूप्ले को अपनी योजना में आश्चर्यजनक सफलता मिली। हैदराबाद और अर्काट दोनों की गद्दियों पर जो व्यक्ति बैठे थे वे पूर्णतः उसके प्रभाव में थे। दो वर्ष से कम के समय में विदेशी व्यापारियों की एक छोटी सी कम्पनी ने दक्खिन तथा कर्नाटक में सर्वोच्च सत्ता प्राप्त कर ली थी।

2. त्रिचनापल्ली का घेरा – डूप्ले को दक्खिन तथा कर्नाटक में सफलता मिली थी, इससे उसका प्रभाव बढ़ गया था। जैसा कि पहले लिखा जा चुका है कि मुहम्मद अली ने त्रिचनापल्ली में शरण ली थी। डूप्ले भली-भाँति समझता था कि मुहम्मद अली को मार्ग से हटाना अत्यन्त आवश्यक है, इसलिए उसने चाँदा साहब को त्रिचनापल्ली पर तुरन्त आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। किन्तु चाँदा साहब ने अपना बहुत सा समय तंजौर पर आक्रमण करने में नष्ट कर दिया, जिससे मुहम्मद अली को अपनी रक्षा की समुचित तैयारियाँ कर लेने का अवसर मिल गया।


डूप्ले को पूर्ण और स्थायी सफलता के लिए मुहम्मद अली से जिसने त्रिचनापल्ली में शरण ले रखी थी, अन्तिम रूप से निपट लेना आवश्यक था। शायद डूप्ले इस काम में भी सफल हो जाता, किन्तु अंग्रेजों ने उसका संकल्प पूरा नहीं होने दिया। 1750 ई. में सौण्डर्स मद्रास का अंग्रेज गवर्नर नियुक्त होकर आ गया था। वह पहले गवर्नर की तुलना में अधिक कर्मठ और उत्साही था। वह पूरी शक्ति के साथ संघर्ष में कूद पड़ा इंग्लैण्ड से भी उसे अपने काम में भरपूर सहायता मिली। यदि डूप्ले अंग्रेजों की सहायता पहुँचने से पहले ही मुहम्मद अली पर प्रहार कर देता तो शायद उसे सफलता मिल जाती। किन्तु कूटनीति में अंग्रेजों ने उसे परास्त कर दिया। उनकी सलाह से मुहम्मद अली डूप्ले से संन्धि की बातचीत चलाती रही। तब तक अंग्रेज अपनी तैयारियां पूरी करके उसकी सहायता के लिए पहुँच गये। डूप्ले इस चाल को नहीं समझ सका। मई 1751 ई. में जब अंग्रेजों की सैनिक टुकड़ी त्रिचनापल्ली पहुँच गयी, तब उसने लॉ के नेतृत्व में एक सेना भेजी। किन्तु लॉ नितान्त आयोग्य सिद्ध हुआ। वर्ष के अन्त तक त्रिचनापल्ली को घेरा चलता रहा। तब तक मैसूर और तंजौर के‌ शासक तथा मराठा सरदार मुरारीराव भी मुहम्मद अली की सहायता के लिए आ पहुंचे। ।

3. अर्काट का घेरा – जिस समय त्रिचनापल्ली का घेरा चल रहा था। उसी समय रॉबर्ट क्लाइव नामक एक व्यक्ति कुछ समय पहले ही कम्पनी की सेना में भर्ती होकर भारत आया था। मुहम्मद अली के सझाव पर उसने चाँदा साहब की राजधानी अर्काट पर आक्रमण करने का प्रस्ताव रखा, जिसे मद्रास के गर्वनर सॉण्डर्स ने स्वीकार कर लिया। प्रस्ताव के पीछे अनुमान यह था कि चाँदा साहब की राजधानी की रक्षा के लिए अपनी सेना की टुकड़ी त्रिचनापल्ली से अर्काट अवश्य भेजेगा इस प्रकार त्रिचनापल्ली की सुरक्षा सम्भव होगी। योजना को कार्यान्वित करने का भार क्लाइव को ही सौंपा गया। उसने केवल 200 यूरोपीय और 300 भारतीय सैनिकों की सहायता से बिना कठिनाई के अर्काट पर अधिकार कर लिया। जैसा कि अनुमान लगाया गया था, चाँदा साहब ने शीघ्र ही अपनी एक सैनिक टुकडी त्रिचनापल्ली से अकोट भेजी। क्लाइव ने 53 दिन तक वीरतापूर्वक नगर की रक्षा की। अन्त में अक्टूबर 1751 ई. में घेरा डालने वाली सेना वापस चली गयी।


अकोट पर अधिकार हो जाने से अंग्रेजों की शक्ति और प्रतिष्ठा में बहत वृद्धि हुई तथा फ्रांसीसियों को भार आघात पहुँचा। फ्रांसीसी जनरल लॉ जो त्रिचनापल्ली के घेरे का संचालन कर रहा था, क्लाइव की सफलता से घबड़ा गया और भागकर श्रीरंगम के द्वीप में शरण ली। अंग्रेजों ने द्वीप को घेर लिया। डूप्ले ने कुमुक भेजी, किन्तु जून 1752 ई में लाॅ तथा उसकी सेना ने समर्पण कर दिया। अंग्रेजों ने उन्हें बन्दी बना लिया। इसी बीच तंजौर के सेनानायक ने चाँदा साहब का वध कर दिया।


इस प्रकार फ्रांसीसी सेनानायकों की मूर्खता और अयोग्यता के कारण डूप्ले की सारी योजना चौपट हो गयी और उसकी आशाओं पर तुसाराघात हो गया। किन्तु उसने साहस नहीं छोड़ा उसने मुरारीराव तथा मैसूर के शासक को अपने पक्ष में मिला लिया और तंजौर के राजा को तटस्थ रहने के लिए राजी कर लिया। सितम्बर 1750 ई. में उसने त्रिचनापल्ली का घेरा पुनः आरम्भ किया। 1753 ई. में पूरे वर्ष छुट-पुट सैनिक संघर्ष चलते रहे जिनमें कभी एक पक्ष को और कभी दसरे
पक्ष को सफलता मिली। डूप्ले को अन्त तक त्रिचनापल्ली को जीत लेने की आशा बनी रही।

4. डुप्ले की फ्रांस वापसी – फ्रांस की सरकार इस युद्ध से तंग आ गयी थी, वह डूप्ले की नीति और योजना को नहीं समझ सकी। वह फ्रांसीसी सेनाओं की पराजयों तथा भारी आर्थिक हानि से चिन्तित हो उठी थी। अतः 1754 ई. में उसने डूप्ले को वापस बुला लिया और उसके स्थान पर गोडेहू को गवर्नर बनाकर भेजा।

5. गोडह्मू तथा अंग्रेजों के बीच सन्धि (1755 ई.)- फ्रांस की सरकार ने गोडह्मू को अंग्रेजों से सन्धि करने का आदेश देकर भेजा था। उसने आते ही डुप्ले की नीति को उलट दिया और शीघ्र ही अंग्रेजों से सन्धि कर ली। सन्धि की पहली शर्त यह थी कि दोनों कम्पनियाँ देशी राजाओं के झगड़ों में हस्तक्षेप नहीं करेंगी और न वे उनसे कोई पद या उपाधि ग्रहण करेंगे। दूसरे, इस बात की गारण्टी दी गयी कि उस समय भारत में दोनों कम्पनियों के अधिकार में जो-जो प्रदेश थे, वे उनके ही पास बने रहेंगे। तीसरे अंग्रेजों को उत्तरी सरकार में स्थित मछलीपट्टम या दिवी दे दिया जायेगा। स्मरण रहे कि उत्तरी सरकार को पहले रहे फ्रांसीसियों ने‌ हैदराबाद के नवाब से प्राप्त किया था।


डूप्ले का चरित्र तथा उसकी असफलता के कारण –


डूप्ले की इतिहासकारों ने बहुत प्रशंसा की है। वह दूरदर्शी राजनीतिज्ञ था। उसमें साहस भी बहुत था। उसने जो नीति अपनायी वह फ्रांसीसी कम्पनी के हितों की दृष्टि से बहुत सही थी। यदि फ्रांस की सरकार उसका साथ देती तो उसे अवश्य ही सफलता मिलती। अंग्रेजों ने आगे चलकर वास्तव में उसी की नीति का अनुसरण किया और भारत में अपना साम्राज्य कायम करने में सफल हुए। डूप्ले सच्चा देशभक्त था। उसकी असफलता के मुख्य कारण निम्नलिखित थे

1. फ्रांस से समय पर सहायता न मिलना – डूप्ले को फ्रांस की सरकार ने समय पर सहायता नहीं दी। वास्तव में वह उसकी योजनाओं तथा उसके कार्य के महत्व को समझ ही नहीं सकी।

2. आर्थिक कारण – फ्रांसीसी कम्पनी की आर्थिक स्थिति खराब थी। डूप्ले ने स्वयं व्यापार की ओर कम ध्यान दिया, जिससे उसकी आर्थिक कठिनाइयाँ दिन-प्रतिदिन बढ़ती गयीं और उसके मंसूबों पर पानी फिर गया। उसकी तुलना में अंग्रेजों की आर्थिक स्थिति अच्छी थी, क्योंकि उन्होंने व्यापार की कभी उपेक्षा नहीं की थी।

3. डूप्ले की त्रुटियाँ – डूप्ले ने बुसी को हैदराबाद भेजकर भूल की। बुसी ने हैदराबाद में तो फ्रांसीसीयों का प्रभुत्व कायम कर लिया, किन्तु कर्नाटक में डूप्ले अकेला पड़ गया और अंग्रेजों का सामना न कर सका। बुसी योग्य सेनापति था। वह अंग्रेजों का मुकाबला करने के लिए अधिक सक्षम था। डूप्ले को जिन सेनानायकों पर निर्भर रहना पड़ा वे निकम्मे साबित हुए।

4. समृद्रिक शक्ति की कमजोरी – कुछ इतिहासकारों का मत है कि डूप्ले की असफलता निश्चित थी, कोई उसे बचा नहीं सकता था। अंग्रेजों की सामुद्रिक शक्ति फ्रांस की तुलना में कहीं अधिक थी, इसी कारण उस शताब्दी में यूरोप में जितने भी युद्ध हुए उन सब में फ्रांस की पराजय हुई। अतः डूप्ले कुछ भी करता, भारत में फ्रांसीसी अंग्रेजों की शक्ति का मुकाबला नहीं कर सकता था।

यह तो थी 18 वीं शताब्दी में भारत की राजनीतिक स्थिति और उपनिवेशवाद आक्रमण- 12 (द्विती र्नाटक युद्ध) की जानकारी के नोट्स अगली पोस्ट में हम आपको तृतीय कर्नाटक युद्ध के बारे में जानकारी देंगे तो बने रहिए Upsc Ias Guru .Com के साथ 🙂

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