औरंगजेब की दक्षिण नीति, उद्देश्य, परिणाम || मुगल साम्राज्य Notes

Hello दोस्तों, स्वागत है आपका फिर से हमारी इतिहास नोट्स की सीरीज में इससे पहले हमने आपको औरंगजेब का इतिहास के बारे में विस्तार से बताया था, इस पोस्ट से हम आपको औरंगजेब की दक्षिण नीति, उद्देश्य, परिणाम के बारे में बतायेगे जिससे आपको  मध्यकालीन भारत के इतिहास की जानकारी मिल सके और आपकी तैयारी को और भी बल मिल सके तो चलिए शुरू करते है आज की पोस्ट 🙂

औरंगजेब की दक्षिण नीति, उद्देश्य, परिणाम

औरंगजेब के दक्षिण राज्यों पर विजय के कारण –

1. औरंगजेब महत्वाकांक्षी साम्राज्यवादी शासक था। वह सम्पर्ण भारत को जीतकर एकछत्र शासन की स्थापना करना चाहता था। अपने शासन के प्रारम्भिक काल में औरंगजेब ने दक्षिण के प्रबन्ध को अपने राज्यपालो के हाथ में छोड़ रखा था। राज्यपालों को दक्षिण के बीजापुर और गोलकुण्डा राज्यों को नियन्त्रित रखने में कोई कठिनाई नहीं हुई, क्योंकि उस समय इन राज्यों की दशा अच्छी नहीं थी। उस समय बीजापुर शक्तिशाली राज्य था। इसलिए मुगल सेनाओं का अनेक बार बीजापुर से संघर्ष हुआ। Aurangzeb ki dakshin niti notes

2. गोलकुण्डा का नरेश अब्दुल कुतुबशाह अयोग्य, कर्मण्य तथा विलासी था। उसके शासन का भार अधिकारियों के हाथ में था। इसने अपनी रक्षा के लिए शिवाजी से सन्धि कर ली थी। यह सन्धि मुगल साम्राज्य के लिए एक खतरा थी।

3. दक्षिण में मराठों की शक्ति थी। इनकी शक्ति दिन-पर-दिन बढ़ती जा रही थी। विद्रोही राजकुमार मराठों की शरण में पहुँच चुका था। वह भी मराठों से मिलकर मुगल साम्राज्य के लिए खतरा पैदा कर रहा था। Aurangzeb ki dakshin niti notes

4. कट्टर सुन्नी मुसलमान होने के कारण वह इन शिया राज्यों को समाप्त करना चाहता था।

5. वह दक्षिण भारत में विजय के अधूरे कार्य को पूर्ण करना चाहता था।

6. दक्षिण मुगल विद्रोहियों का शरण स्थाल बना हआ था। शहजादा अकबर तथा राजपूत सरदारों ने औरंगजेब के खिलाफ विद्रोह कर मराठों के यहाँ शरण ली थी।

7. दक्षिण के राज्यों ने बहुत समय से कर नहीं दिया था।

8. औरंगजेब की सेना अत्यन्त विशाल थी। वह उसको बराबर युद्ध में लगाये रखता था। इन्हीं कारणों से औरंगजेब ने दक्षिण के अभियानों में अपने शासन के 25 वर्ष लगा दिये।

बीजापुर पर आक्रमण –

सिंहासन पर बैठने के बाद 1665 ई. में औरंगजेब ने जयपुर के राजा जयसिंह को बीजापुर के सुल्तान अली आदिलशाह पर आक्रमण करने के लिए भेजा, क्योंकि बीजापुर के सुल्तान ने पुरानी सन्धि को तोड़ दिया था और मराठों से मिलकर मुगलों के विरुद्ध संघर्ष की तैयारी कर रहा था। जयसिंह ने सबसे पहले शिवाजी को पराजित किया और 1665 ई. में शिवाजी से पुरन्दर की सन्धि हो गयी जिसके अनुसार शिवाजी ने बीजापुर के विरुद्ध मुगलों का साथ देने का वचन दिया।

दूसरा, जयसिंह ने भारी रिश्वत देकर आदिलशाह के अनेक अमीरों को अपनी ओर मिला लिया। इससे बीजापुर सुल्तान की स्थिति दुर्बल हो गयी। फिर भी बीजापुर सुल्तान अली आदिलशाह द्वितीय ने अपने राज्य की रक्षा की पूरी तैयारी कर ली थी। चारों ओर छ: मील तक के सारे प्रदेश को उजाड़ दिया था जिससे मुगलों को रसद आदि की कोई सहायता न मिले। जयसिंह ने शिवाजी की सहायता से बीजापुर पर आक्रमण किया किन्तु जयसिंह पूर्णतया असफल रहा। उसे न तो एक इंच भूमि मिल पायी और न दुर्ग पर अधिकार मिल सका। आर्थिक दृष्टि से यह युद्ध विनाशकारी सिद्ध हुआ। इस युद्ध में लगभग एक लाख तीस हजार रुपया व्यय हुआ था। जयसिंह को सम्राट ने वहाँ से लौट आने का आदेश दिया और दक्षिण का भार राजकुमार मुअज्जम और जसवन्तसिंह को सौंपा। औरंगजेब ने जयसिंह से बहुत बुरा-भला कहा। 12 जुलाई, 1666 ई. को बुरहानपुर में जयसिंह की मृत्यु हो गयी। कहा जाता है कि सम्राट की आज्ञा से उसे विश देकर मरवा दिया गया था।


24 नवम्बर, सन् 1672 ई. को अली आदिलशाह की मृत्यु हो गयी। उसके बाद उसका 4 वर्षीय पुत्र सिकन्दर सिंहासन पर बैठा। सुल्तान की बहन शहरबानू को मुगलों के अन्तःपुर में पहुंचा दिया और उसकी शादी राजकुमार आजम के साथ कर दी। बीजापुर की इस दुर्बलता की स्थिति में शिवाजी ने बीजापुर की सहायता की। परिणामस्वरूप मुगलों को बीजापुर जीतने में सफलता नहीं मिली। राजकुमार मुअज्जम की असफलता के कारण उसे वापस बुला लिया गया और राजकुमार आजम को बीजापुर के विरुद्ध भेजा गया, लेकिन उसे भी असफल होते हुए देखकर सन् 1681 ई. में औरंगजेब स्वयं दक्षिण पहुँचा। Aurangzeb ki dakshin niti notes

सबसे पहले उसने अपनी शक्ति, शिवाजी को नष्ट करने के लिए लगाने में उचित समझा। उसके राज्य पर मुगलों ने चारों ओर से आक्रमण किये किन्तु कुछ समय उपरान्त उसने अनुभव किया कि गोलकुण्डा और बीजापुर पर अधिकार किये बिना मराठों को हराना कठिन है इसलिए 1 अप्रैल, 1685 ई. में उसने बीजापुर को घेरने के लिए सेना भेज दी। 15 महीने तक यह घेरा चलता रहा। जब सेनापतियों को सफलता न मिली तो वह स्वयं गया और बड़ी कुशलता के साथ घेरे का संचालन किया। 12 सितम्बर, 1686 ई. को किले के रक्षकों ने हथियार डाल दिये। सुल्तान सिकन्दर सम्राट की सेवा में उपस्थित हुआ। उसे मुगल सेना का मनसबदार बना दिया गया और खान की उपाधि प्रदान की तथा एक लाख रुपये वार्षिक पेंशन दे दी गयी। बीजापुर को मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया। Aurangzeb ki dakshin niti notes


गोलकुण्डा पर विजय –

उस समय गोलकुण्डा पर अबुल हसन शासन कर रहा था। शासन की वास्तविक शक्ति उसके ब्राह्मण मन्त्री मदन्ना के हाथ में थी। अबुल हसन बड़ा ही विलासी तथा निकम्मा शासक था। गोलकुण्डा ने मुगलों के विरुद्ध बीजापुर की सहायता की थी। गोलकुण्डा यद्यपि 1657 से 1685 ई. तक मुगलों के आक्रमण से सुरक्षित रहा किन्तु जुलई 1685 ई. में औरंगजेब ने शाहआलम के नेतृत्व में गोलकुण्डा पर आक्रमण करने के लिए एक सेना भेजी, लेकिन मुगलों को इस संघर्ष में कोई सफलता नहीं मिली, तब मुगलों ने कूटनीति से काम लेकर गोलकुण्डा की सेना के सेनापति मीर मुहम्मद इब्राहिम को रिश्वत देकर अपनी ओर मिला लिया। इससे भयभीत होकर गोलकुण्डा के दुर्ग में शरण ली। शाहआलम में हैदराबाद पर कब्जा कर लिया। उस समय बाध्य होकर सुल्तान ने मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली, किन्तु गोलकुण्डा को अभी भी पूर्ण मुगल साम्राज्य में सम्मिलित नहीं किया गया था। Aurangzeb ki dakshin niti notes

अत: औरंगजेब ने सन 1687 ई. में गोलकुण्डा के विरुद्ध पुनः युद्ध की घोषणा कर दी और गोलकुण्डा के दुर्ग का घेरा डाल दिया लेकिन गोलकुण्डा के दुर्ग से भयंकर गोलाबारी होने के कारण मुगलो का उस पर अधिकार न हो सका। इस संघर्ष से मुगलों को जन तथा धन की अपार क्षति उठानी पड़ा। मुगल सेन में बैचेनी पैदा हो गयी। औरंगजेब के चरित्र की यह विशेषता थी कि उसके अन्दर भयानक दृढ़ निश्चय था। अतः उसन अनेक असफलताओं के बावजूद घेरा नहीं उठाया। अन्त में उसने यह अनुभव किया कि सीधी लड़ई में सफलता प्राप्त नहीं का जा सकती।


अतः उसने विश्वासघात का सहारा लिया। उसने सुल्तान के एक अफगान नौकर अब्दुल गनी को रिश्वत देकर अपनी ओर मिला लिया। उसने अपने स्वामी से विश्वासघात करके 2 अक्टूबर, 1687 ई. को प्रातः 3 बजे दुर्ग के फाटक खोल दिये। इस प्रकार दुर्ग पर मुगलों का अधिकार हो गया। सुल्तान अब्दुल को दौलताबाद के किले में बन्दी बनाकर रख दिया गया और 50 लाख रुपये आर्थिक भत्ता उसके लिए निश्चित कर दिया गया और गोलकुण्डा को मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया।


बीजापुर तथा गोलकुण्डा के दमन के परिणाम –

औरंगजेब की बीजापुर तथा गोलकुण्डा को ध्वस्त करने की नीति का कुछ इतिहासकारों ने समर्थन किया है तो कुछ ने तीव्र आलोचना। एलफिन्स्टन, स्मिथ तथा कुछ अन्य इतिहासकारों ने इसे औरंगजेब की संकीर्णता बताया। उनका कहना है कि यदि इन राज्यों को ध्वस्त न किया गया होता तो इन राज्यों से मराठों के दमन में सहायता मिलती। यह राज्य मुगल साम्राज्य तथा मराठों के बीच दीवार का काम करते थे। इन राज्यों के सैनिक मराठों की सेना में भर्ती हो गये।

मराठों से संघर्ष – दक्षिण में मराठे मुगलों को चुनौती दे रहे थे। अतः मराठाओं को पराजित किये बिना औरंगजेब दक्षिण में मुगल साम्राज्य की स्थापना नहीं कर सकता था। इसके अतिरिक्त मराठाओं ने औरंगजेब के विरोधियों को अपने यहाँ संरक्षण दिया था विद्रोही राजकुमार अकबर, अजीतसिंह तथा दुर्गादास ने महाराष्ट्र में जाकर शरण ली, इसलिए औरंगजेब ने मराठाओं को कुचलने का निश्चय किया। Aurangzeb ki dakshin niti notes

उस समय मराठाओं का प्रसिद्ध नेता शिवाजी था। महाराष्ट्र की भौगोलिक स्थिति ऐसी थी कि दक्षिण के बीजापुर और गोलकुण्डा दोनों ही राज्यों से सौदा भी किया जा सकता था और दोनों को हराया भी जा सकता था। इस स्थिति के कारण भी मुगलों के सामने बड़ा संकट था।


शिवाजी का उद्देश्य दक्षिण के हिन्दुओं को संगठित करके साम्राज्य की स्थापना करना था। इसी कारण 20 वर्ष की आयु में ही शिवाजी ने अनेक विजयें प्राप्त कर लीं। उसने बीजापुर के कई दुर्ग छीन लिए। उसने जाबली पर भी विजय प्राप्त कर ली। 1656 ई. में पहली बार शिवाजी ने अहमदनगर और चुनार पर आक्रमण करके मुगलों से टक्कर ली। 1657 ई. में बीजापुर ने मुगलों से सन्धि कर ली इससे दक्षिण में मुगलों की शक्ति मजबूत हो गयी। उस समय शिवाजी ने भी आत्मसमर्पण कर दिया। जिस समय औरंगजेब दक्षिण में चला आया तो शिवाजी ने कोंकण प्रदेश पर आक्रमण कर दिया और उसने कल्याण, भिवानीमण्डी तथा माहली पर अधिकार कर लिया। बीजापुर ने शिवाजी को परास्त करने के लिए अफजलखाँ को भेजा। अफजलखाँ शिवाजी को धोखे से मारना चाहता था। शिवाजी को इस बात का पहले से ही सन्देह था। शिवाजी ने भेंट के समय अफजलखाँ की हत्या कर दी और उसकी सेना को मार भगाया। इसके परिणामस्वरूप दक्षिणी कोंकण तथा कोल्हापुर के जिलों पर शिवाजी का अधिकार हो गया। इसके बाद भी बीजापुर से शिवाजी का संघर्ष चलता रहा। Aurangzeb ki dakshin niti notes

शिवाजी की इस बढ़ती हुई शक्ति को कुचलने के लिए औरंगजेब ने दक्षिण के मुगल वायसराय शाइस्ताखाँ को शिवाजी के विरुद्ध भेजा, शिवाजी ने शाइस्ताखाँ की सेना पर अचानक हमला बोल दिया। इसमें शाइस्ताखाँ घायल हुआ, उसका पुत्र, एक सरदार, 40 सेवक तथा 6 स्त्रियाँ मार डाले गये। शाइस्ताखाँ की सेना घबराकर भाग खड़ी हुई। इस सफलता के बाद शिवाजी ने सूरत की लूट की जिसमें उसे लगभग एक करोड़ रुपये की सम्पत्ति प्राप्त हुई।


इस पराजय के बाद औरंगजेब ने जयसिंह को शिवाजी की शक्ति को कुचलने के लिए भेजा। जयसिंह एक महान् सेनानायक और कूटनीतिज्ञ था। उसने कूटनीति से काम लेकर दक्षिण के अनेक सामन्तों को शिवाजी का विरोधी बना दिया। उसने पुरन्दर के दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया और महाराष्ट्र के गाँवों को लूटने और जलाने के लिए भी सेना भेज दी। जब शिवाजी ने यह देखा कि मराठाओं की पराजय निश्चित है तो उसने दुर्ग को मुगलों के हाथों सौंपकर जयसिंह से 21 जून, 1664 ई. को सन्धि कर ली। इस सन्धि के अनुसार शिवाजी ने अपने साम्राज्य का तीन-चौथाई भाग मुगलों को सौंप दिया और मुगल सेना में नौकरी करने के लिए पाँच हजार घुड़सवारों की सेना भेजने का भी वायदा किया। उसने बीजापुर के विरुद्ध मुगलों का साथ भी दिया। जयसिंह ने शिवाजी को आगरा चलकर औरंगजेब से भेंट करने के लिए राजी कर लिया।

22 मई, 1666 ई. को शिवाजी मुगल दरबार में उपस्थित हुए। वहाँ पर शिवाजी को 5 हजारी मनसबदार की पंक्ति में खड़ा कर दिया गया। शिवाजी ने इस व्यवहार को अपना घोर अपमान समझा। इससे शिवाजी के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने इसका खुले दरबार में घोर विरोध किया। इस कारण शिवाजी व उसके पुत्र शम्भाजी को बन्दी बनाकर आगरा के जयपुर हाउस में रख दिया गया, किन्तु तीन माह की कैद भुगतने के बाद वह अपने पुत्र शम्भाजी के साथ मिठाई तथा फलों के बड़े-बड़े टोकरों में छिपकर भाग निकले और 25 दिन की कठिन यात्रा के बाद सुरक्षित महाराष्ट्र पहुंच गये। शिवाजी के भागने का समाचार जब औरंगजेब को मिला तो उसने शिवाजी को पकड़ने के हर सम्भव प्रयास किये किन्तु इसमें उसे सफलता नहीं मिली।

औरंगजेब की दक्षिण नीति का परिणाम –

1. उत्तरी भारत में अव्यवस्था – औरंगजेब ने अपने शासन के बहुमूल्य 25 वर्ष दक्षिण के युद्धों में बर्बाद किये। इस दौरान वह उत्तर की ओर से बेखबर रहा। इसके परिणामस्वरूप उत्तरी भारत में अराजकता तथा अनुशासनहीनता फैल गयी। प्रान्तों में विद्रोह होने लगे, वह सीमा की भी सुरक्षा व्यवस्था नहीं कर सका और न राजपूतों का ही पूरी तरह से दमन कर सका। उत्तरी भारत में मुगल साम्राज्य की सत्ता शिथिल पड़ गयी। मुगल सत्ता का जो भय और आतंक था वह समाप्त हो गया।

2. मराठों का उत्कर्ष – औरंगजेब ने बीजापुर तथा गोलकुण्डा पर आक्रमण करने की महान भूल की क्योंकि इन मुस्लिम राज्यों के नष्ट होने से मराठों को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिल गया। दक्षिण के इन मुस्लिम राज्यों के समाप्त होने से उनकी शक्ति को रोकने वाला कोई नहीं था। औरंगजेब ने अपनी बहुत बड़ी सैनिक शक्ति इन शिया राज्यों को नष्ट करने में लगा दी इसलिए औरंगजेब प्रभावशाली रूप से मराठों का दमन नहीं कर पाया। यदि औरंगजेब इन शिया राज्यों से मित्रता कर लेता और इन राज्यों का उपयोग मराठाओं के विरुद्ध करता तो वह दक्षिण में मराठा शक्ति को कुचलने में सफल हो जाता, लेकिन वह ऐसा नहीं कर सका और मराठों का उत्कर्ष मुगल साम्राज्य के लिए घातक सिद्ध हुआ। Aurangzeb ki dakshin niti notes

3. साम्राज्य के विस्तार का दुष्परिणाम – दक्षिण के राज्यों को जीतकर साम्राज्य में मिलाने से साम्राज्य की सीमा बहुत बढ़ गयी। औरंगजेब ने बीजापुर तथा गोलकुण्डा को जीतकर अपने राज्य में मिलाकर उन पर सीधे शासन करने का प्रयत्न किया. इसलिए वह उन पर नियन्त्रण रखने में असफल रहा। यातायात तथा संचार के साधनों की कमी के कारण इतने बड़े साम्राज्य का एक केन्द्र से ही संचालन करना असम्भव था।

4. सैनिक शक्ति‌ का ह्रास – दक्षिण के युद्धों में औरंगजेब की सैनिक शक्ति का भी बहुत ह्रास हुआ। हजारों सैनिकों का बलिदान हुआ। केवल गोलकुण्डा के दुर्ग के घेरे में ही कई हजार शाही सैनिक मारे गया बाजा सैनिकों ने बड़ी वीरता से युद्ध किया।

5. आर्थिक बर्बादी – दक्षिण के युद्धों में औरंगजेब की अर्थव्यवस्था का दिवाला निकल चुका था युद्ध में करोड़ों रुपया बर्बाद हुआ, किसानों की फसल बर्बाद हो गयी. व्यापार चौपट हो गया तथा दक्षिण इलाका ऊजाड़ लगने लगा। इस बर्बादी का मुगल साम्राज्य पर घातक प्रभाव पड़ा।

6. राजपूत राज्यों का स्वतन्त्र होना – औरंगजेब 25 वर्ष तक दक्षिण में लगा रहा. वह राजपूत राज्यों को अपने अधीन नहीं कर सका। राजपूतों में मारवाड़ तथा मेवाड़ के राज्य प्रमुख थे। मारवाड़ के महाराणा अजीतसिंह ने अपने आपको स्वतन्त्र घोषित कर दिया और मुगल अधिकारियों को मारवाड़ से मार भगाया। दक्षिण के युद्धों में मुगल शक्ति नष्ट हो चुकी थी, उनमें अब राजपूतों को बस में करने की शक्ति नहीं थी। Aurangzeb ki dakshin niti notes

यह तो थी औरंगजेब की दक्षिण नीति, उद्देश्य, परिणाम की जानकारी के नोट्स अगली पोस्ट में हम आपको मुगल साम्राज्य के पतन के कारण के बारे में जानकारी देंगे तो बने रहिए Upsc Ias Guru .Com के साथ 🙂

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