भारत में फ्रांसीसियों की असफलता के कारण

Hello दोस्तों, एक बार फिर से स्वागत है आपका Upsc Ias Guru .Com वेबसाइट पर आज की पोस्ट में हम आपको 18 वीं शताब्दी में भारत की राजनीतिक स्थिति और उपनिवेशवाद आक्रमण- 14 (भारत में फ्रांसीसियों की असफलता के कारण) के बारे में बताएंगे, तो चलिए शुरू करते हैं आज की पोस्ट

भारत में फ्रांसीसियों की असफलता के कारण –

❂ फ्रासीसियों का यूरोप में उलझना – अठारहवीं शताब्दी में फ्रांसीसी सम्राटों की यूरोपीय महत्वकांक्षाओं के कारण उनके साधनों पर अत्यधिक दवाब पड़ा। ये सम्राट फ्रांस की प्राकृतिक सीमाओं को स्थापित करने के लिए इटली, बेल्जियम तथा जर्मनी में बढ़ने का प्रयत्न कर रहे थे तथा वे उन देशों से युद्ध में उलझ गये। वास्तव में उन्हें इस क्षेत्र की अधिक चिन्ता थी तथा भारत और उत्तरी अमरीका में कई गुना अधिक बड़े क्षेत्र की कम। फलस्वरूप ये उपनिवेश पुर्णतः हाथ से जाते रहे तथा यूरोप में नहीं के बराबर क्षेत्र ही उन्हें मिल सका। इंगलैण्ड अपने आपको यूरोप से पृथक मानता था तथा उसकी उस प्रदेश में प्रसार की कोई इच्छा नहीं थी। यूरोप में उसकी भूमिका केवल शक्ति सन्तुलन बनाये रखने की थी। वह एकचित्त होकर अपने उपनिवेशों के प्रसार में लगा हुआ था। उसे निश्चय ही सफलता मिली और उसने भारत तथा उत्तरी अमरीका में फ्रांस को पछाड़ दिया।

दोनों देशों की प्रशासनिक भिन्नताएँ – वास्तव में फ्रांसीसी इतिहासकारों ने अपने देश की असफलता के लिए घटिया शासन-प्रणाली को दोषी ठहराया है। फ्रांसीसी सरकार स्वेच्छाचारी थी तथा सम्राट के व्यक्तित्व पर ही निर्भर करती थी। महान सम्राट लुई चौदहवें (1648-1715 ई.) के काल से ही इस प्रशासन की कमजोरियाँ स्पष्ट हो रही थीं। उस काल के अपने युद्धों के कारण वित्तीय परिस्थिति बिगड़ गयी थी। उसकी मृत्यु के पश्चात् यह अवस्था और बिगड़ गयी। उसके उत्तराधिकारी लुई पन्द्रहवें ने अपनी रखैलों, कृपापात्रों तथा ऐश्वर्य-साधनों पर और अधिक धन लुटाया। दूसरी ओर इंगलैण्ड में एक जागरूक अल्पतन्त्र राज्य कर रहा था। द्विग दल के अधीन उन्होंने संवैधानिक व्यवस्था की ओर कदम बढ़ाये और देश ‘‘एक प्रकार से अभिशित गणतन्त्र’ बन गया था। यह व्यवस्था उत्तम थी तथा उसने देश को दिन-प्रतिदिन शक्तिशाली बना दिया। अल्फ्रेड लायल ने फ्रांसीसी व्यवस्था के खोखलेपन को ही दोषी ठहराया है। उसके अनुसार, डूप्ले की वापसी, लाबार्डो की भूलें, काउण्ड डी लाली की अदम्यता, इत्यादि से कहीं अधिक लुई पन्द्रहवें की भ्रान्तिपूर्ण नीति तथा उसके सक्षम मन्त्री फ्रांस की असफलता के लिए उत्तरदायी थे। bharat me franciciyo ka asaflta ka karan

दोनों कम्पनियों के गठन में भिन्नता तथा फ्रांसीसी कम्पनी की कमजोर आर्थिक स्थिति – फ्रांसीसी कम्पनी सरकार का एक विभाग था। कम्पनी 55 लाख लिब्रा (फ्रेंक) की पूँजी से बनायी गयी थी जिसमें 35 लाख लिब्रा सम्राट ने लगाये थे। इस कम्पनी के डारेक्टर सरकार द्वारा मनोनीत किये जाते थे तथा लाभांश सरकार द्वारा प्रत्याभत था, अतएव उन्हें कम्पनी की समद्धि में कोई विशेष अभिरूचि नहीं थी। उदासीनता इतनी थी कि 1725 और 1765 के बीच कम्पनी के भागीदारों की एक भी बैठक नहीं हुई तथा कम्पनी का प्रबन्ध सरकार ही चलाती रही। फलस्वरूप कम्पनी की वित्तीय स्थिति बिगड़ती चली गयी। एक समय में उसकी यह दुर्दशा हो गयी कि उसे अपने अधिकार सेण्ट मालों के व्यापरियों को वार्षिक धन के बदले देने पड़े। 1721 से 1740 ई. तक कम्पनी उधार लिये गये धन से ही व्यापार करती रही। कम्पनी को समय-समय पर ही सहायता मिलती थी, वह तम्बाकू के एकाधिकार तथा लॉटरियों के सहारे ही चलती रही। ऐसी कम्पनी डूप्ले की महँगी महत्वाकांक्षाओं तथा युद्धों की पूर्ति नहीं कर सकती थी। bharat me franciciyo ka asaflta ka karan

दूसरी ओर अंग्रेजी कम्पनी एक निजी व्यापारिक कम्पनी थी। उसके प्रबन्ध के कोई विशेष हस्तक्षेप नहीं किया जाता था। प्रशासन इस कम्पनी के कल्याण में विशेष रूचि दर्शाता था। वित्तीय व्यवस्था अधिक सुदृढ़ थी। व्यापार अधिक था तथा व्यापारिक प्रणाली भी बहुत अच्छी थी। कम्पनी के डायरेक्टर सदैव व्यापार के महत्व पर बल देते थे- पहले व्यापार, फिर राजनीति। यह कम्पनी अपने युद्धों के लिए प्रायः पर्याप्त धन स्वयं अर्जित कर लेती थी। आकॅड़ों से स्पष्ट होता है कि 1736-65 ई. के बीच अंग्रेजी कम्पनी इतनी धनाढ्य थी कि डर था कि कहीं संसद लोभ में न आ जाये और हुआ भी यही। 1767 ई. में संसद ने कम्पनी को आदेश दिया कि वह 4 लाख पौण्ड वार्षिक अंग्रेजी कोष में दिया करे। एक बार यह सुझाव भी दिया गया कि कम्पनी की सहायता से राष्ट्रीय ऋण का भुगतान किया जाये।

नौ-सेना की भूमिका – कर्नाटक के युद्धों ने यह स्पष्ट कर दिया कि कम्पनी के भाग्य का उदय अथव अस्त नौ-सेना की शक्ति पर निर्भर था। 1746 ई. में फ्रांसीसी को पहले समुद्र में, फिर थल पर विशिष्टता प्राप्त हुई। इसी प्रकार 1748-51 ई. तक जो भी सफलता प्ले को मिली, वह उस समय मिली थी जब अंग्रेजी नौ-सेना निष्क्रिय थी। सप्तवर्षीय युद्ध के समय में यह पुनः सक्रिय हो गयी। bharat me franciciyo ka asaflta ka karan

वॉल्टेयर के अनुसार, “आस्ट्रिया के उत्तराधिकारी के लिए युद्ध में फ्रांस की जल-शक्ति का इतना ह्यास हुआ कि सप्तवर्षीय युद्ध के समय उसके पास एक भी जलपोत नहीं था। बड़े पिट ने इस स्थिति का पूरा लाभ उठाया। उस समय न केवल भारतीय व्यापार मार्ग खुले रहे, अपितु बम्बई से कलकत्ता तक जलमार्गों द्वारा सेना का लाना और ले जाना अवैध रूप से चलता रहा। फ्रेंच सेना का पृथक्करण पूर्ण रहा। शेष कारण बराबर भी होते तो भी जल-सेना की वरिष्ठता फ्रांसीसियों को परास्त करने के लिए पर्याप्त थी।’

बंगाल में अंग्रेजी सफलताओं का प्रभाव – अंग्रेजों की बंगाल में विजय एक महत्वपूर्ण कारण थी। न केवल इससे इनकी प्रतिष्ठा बढ़ी अपितु इससे बंगाल का अपार धन तथा जनशक्ति उन्हें मिल गयी। जिस समय काउण्ट लैली को अपनी सेना के वेतन देने की चिन्ता थी, बंगाल से कर्नाटक को धन तथा जन दोनों भेजे जा रहे थे। दक्खिन इतना धनी नहीं था कि ड्प्ले तथा लैली की महत्वाकांक्षाओं को साकार कर सकता। यद्यपि उत्तरी सरकार बुसी के पास था, परन्तु वह कवेल 1.5 लाख रुपया ही भेज सका।

वास्तव में अंग्रेजों की वित्तीय वरिष्ठता का बहुत महत्व था। जैसा कि स्मिथ ने कहा कि, “न तो अकेले और न ही मिलकर डूप्ले अथवा बुसी जल में वरिष्ठ तथा धन में गंगा की घाटी के वित्तीय स्रोतों के स्वामी अंग्रेजों को परास्त कर सकते थे। पॉण्डिचेरी से आरम्भ करके सिकन्दर महान तथा नेपोलियन भी बंगाल तथा समुद्री वरिष्ठता प्राप्त शक्ति को परास्त नहीं कर सकते थे।” मेरियट ने ठीक ही कहा है कि डूप्ले ने मद्रास में भारत की चाबी खोजने का निष्फल प्रयास किया। क्लाइव ने यह चाबी बंगाल में खोजी तथा प्राप्त कर ली।

दोनों कम्पनियों का राजनीतिक नेतृत्व – अंग्रेजी कम्पनी का राजनीतिक तथा सैनिक नेतृत्व फ्रांसीसी कम्पनी की अपेक्षा अधिक उत्तम था। डूप्ले तथा बुसी व्यक्तिगत रूप से क्लाइव, लॉरेन्स और साण्डर्स से कम नहीं थे, परन्तु क्लाइव की तरह वे सैनिकों में जोश नहीं उत्पन्न कर सके। दूसरे, उनके अधीन कार्यकर्ताओं में भी वैसी दक्षता नहीं थी। काउण्ट लैली बहुत उग्र स्वभाव का व्यक्ति था। वह पॉण्डिचेरी में कम्पनी के सभी कार्यकर्ताओं को धूर्त तथा बेईमान समझता था। उसे यह विश्वास था कि वह डरा-धमकाकर सबको ठीक कर लेगा। उसने अपने साथियों को नाराज कर लिया तथा जब लैली परास्त हो गया, तो वे लोग स्पष्ट रूप से बहुत प्रसन्न हुए। दूसरी ओर अंग्रेजों के पास अच्छे सैनिक नेता थे तथा उनके अधीनस्थ लोग भी ड्रप्ले तथा बुसी के अधीनस्थों से उत्तम थे। मैलीसन के अनुसार, लॉरेन्स, सौण्डर्स, कैलॉड, फोर्ड | इत्यादि अनेक अंग्रेजी पदाधिकारी डूप्ले के लॉज, एण्ट्यूइलस, ब्रेनियर इत्यादि फ्रांसीसी अफसरों से अधिक साहसी तथा उत्तम थे।

डुप्ले का उत्तरदायित्व – डूप्ले एक उत्तम नेता होते हुए भी फ्रांसीसियों की हार के लिए उत्तरदायी है। वह राजनीतिक षड़यंत्रों में इतना उलझ गया था कि उसने वित्तीय पक्षों की अवहेलना की, अत: उनका व्यापार जो पहले भी बहुत अधिक नहीं था, अब और भी कम होना शुरू हो गया। यह एक बहुत ही आश्चर्यपूर्ण बात है कि डूप्ले जैसे प्रतिभाशाली व्यक्ति ने यह समझा कि दक्षिण में अनुसरण की गयी नीति राजनीतिक रूप से उचित है। सन् 1715 ई. में मुजफ्फरजंग द्वारा डूप्ले का कृष्णा नदी के पार के मुगल क्षेत्रों का गवर्नर नियुक्त किये जाने को अंग्रेज सुगमता से स्वीकार नहीं कर सकते थे। दूसरे, वह यह भी नहीं समझ पाया कि भारत में दोनों कम्पनियों का झगड़ा वास्तव में यूरोप तथा अमेरिका में दोनों राष्ट्रों के झगड़े का ही एक अंग है। इसके अतिरिक्त उसे अत्यधिक आत्मविश्वास था और उसने पेरिस में अपने अफसरों को कुछ अति महत्वपूर्ण सैनिक तथा सामुद्रिक सामरिक दुर्बलताओं एवं कठिनाइयों के विषय में नहीं बताया और यदि उसे समरिक सहायता नहीं मिली तो यह केवल उसका दोष था।

यह तो थी 18 वीं शताब्दी में भारत की राजनीतिक स्थिति और उपनिवेशवाद आक्रमण- 14 (भारत में फ्रांसीसियों की असफलता के कारण) की जानकारी के नोट्स अगली पोस्ट में हम आपको ब्रिटिश उपनिवेशवाद के चरण के बारे में जानकारी देंगे तो बने रहिए Upsc Ias Guru .Com के साथ 🙂

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