भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विभिन्न चरण Notes

Hello दोस्तों, एक बार फिर से स्वागत है आपका Upsc Ias Guru .Com वेबसाइट पर पिछली पोस्ट में हमने आपको भारत में फ्रांसीसियों की असफलता के कारण के बारे में बताया था, आज की पोस्ट में हम आपको ब्रिटिश उपनिवेशवाद के चरण के बारे में बताएंगे, तो चलिए शुरू करते हैं आज की पोस्ट

ब्रिटिश उपनिवेशवाद के चरण

औपनिवेशिक शोषण मुख्यतः तीन चरणों में विकसित हुआ ‘वाणिज्यवाद’ का प्रथम चरण (1757-1813) एक तरह की प्रत्यक्ष लूटपाट थी, जिसमें कि अतिरिक्त भारतीय राजस्व का प्रयोग इंग्लैण्ड निर्यात किये जाने के लिए, भारतीय तैयार उत्पादों को खरीदने के लिए किया जाता था।

द्वितीय चरण (1817-1858) मुक्त व्यापार था जिसमें भारत कच्चे माल के स्त्रोत के रूप में परिवर्तित हो गया तथा ब्रिटेन के उत्पादों का एक बाजार बन गया।

तीसरा चरण (1858 के आगे) ‘आर्थिक साम्राज्यवाद’ का था जिसमें ब्रिटिश पूँजी ने भारत के बैंको, विदेशी व्यापारिक संस्थाओं तथा प्रबंध संस्थानों को नियंत्रित किया। इस चरण में मुख्यतः उपनिवेशवादी अर्थव्यवस्था की औद्योगिक तथा कृषि क्षेत्रों की अनेक आर्थिक नीतियो द्वारा शोषण किया गया।


ब्रिटिश उपनिवेशवाद का प्रथम चरण


प्रथम चरण सामान्यतया 1757 से प्रांरभ हुआ जब ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने उपमहाद्वीप के पूर्वी तथा दक्षिणी – हिस्सों में राजस्व एकत्र करने के अधिकार प्राप्त कर लिए। यह सिलसिला 1813 तक चला, जब भारतीय व्यापार पर कम्पनी का एकाधिकार समाप्त हो गया। Different stages of British colonialism in india


ब्रिटिश भारत में इंग्लैण्ड की महारानी एलिजाबेथ प्रथम द्वारा समर्थित विशिष्ट शाही अधिकार पत्र के साथ एक विशुद्ध व्यापारिक कम्पनी की हैसियत से सत्रहवीं शताब्दी में भारत में व्यापार करने आए थे। उन्होनें अपना पहला कारखाना बंगाल में हुगली नदी के तट पर स्थापित किया। कम्पनी मुगल बादशाह से यह अनुमति या दस्तक पाने में सफल रही कि उसे अपने व्यापार पर करों में छूट प्राप्त होगी। इससे कम्पनी में कर्मचारियों में बड़े स्तर पर भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला क्योंकि उन्होंने व्यापक स्तर पर इस फरमान का गलत उपयोग अपने व्यक्तिगत व्यापार के लिए किया। इसका अर्थ यह भी था कि इससे बंगाल के सूबेदारों (जो बाद में नवाब कहलाए) को सीमा शुल्क के रूप में राजस्व में भारी नुकसान उठाना पड़ा। यह एक ज्वलन्त, विवादास्पद मुद्दा था जो 1751 में हुए पलासी के युद्ध के प्रमुख कारणों मे से एक बन गया।


इस काल में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का मुख्य कार्य भारत से मसालें, कपास तथा रेशम खरीदकर उन्हें ब्रिटेन के ऐसे बड़े बाजार में भारी फायदे में बेचना होता था जिनकी वहाँ भारी माँग थी। इसका अर्थ यह हुआ कि ब्रिटेन से भारी मात्रा में सोनाचांदी इन वस्तुओं के भुगतान के लिए भारत आ जाता था भरसक प्रयत्नों के बाद भी ब्रिटेन की वस्तुओं की खपत भारत में नही हो पाती थी जिससे इस बर्हिप्रवाह की पूर्ति हो सके। वस्तुओं की खरीद फरोख्त के अतिरिक्त कंपनी को एक बड़ी राशि यूरोप के अन्य शक्तियों के साथ होने वाले युद्धों पर भी खर्च करनी पड़ती थी जो अधिकतर व्यापार के लिए एक जैसी ही वस्तुओं की खोज के लिए होते थे। इनमें शामिल थे पुर्तगाली, डच तथा फ्रांसीसी। बक्सर की लड़ाई और उसके बाद पलासी की लड़ाई हुई तत्पश्चात् बगाल में दीवानी (अर्थात राजस्व एकत्रित करने का अधिकार) प्राप्त होने से कम्पनी के लिए भारत में होने वाले खर्चे के लिए पर्याप्त धन प्राप्त होने लगा। Different stages of British colonialism in india

ब्रिटिश उपनिवेशवाद का द्वितीय चरण (मुक्त व्यापार)

मुक्त व्यापार क्षेत्रों पर ब्रिटिश राजसत्ता ने प्रत्यक्ष नियंत्रण तथा द्वितीय चरण 1813 में चार्टर एक्ट के अमल के साथ प्रारंभ होता दिखलाई पड़ता है जब कम्पनी ने भारत का एकाधिकार खोया तथा 1858 में वह समाप्त हो गया, जब भारत में ब्रिटिश क्षेत्रों पर ब्रिटिश राजसत्ता ने प्रशासन स्थापित कर लिया।


ज्यों-ज्यों कम्पनी का मुनाफा बढ़ता गया, ब्रिटिश सरकार से मिलने वाला समर्थन कम होता गया। पहले मन सदस्यों को ‘ईस्ट इण्डियन’ होने का लाभ मिलता था जो सरकार में अपनी स्थिति को सुदृढ़ बनाए रखने के लिए कंपनी के संसाधनों का प्रयोग करते थे। किन्तु जैसे ही ब्रिटेन में औद्योगिकीकरण की विभिन्न स्तरों पर प्रगति हुई संसद के संविधान में धीरे धीरें परिवर्तन होने लगा। एडम स्मिथ द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘एन एन्क्वायरी इन टू द नेचर एंड कॉलेज ऑफ द वेल्थ ऑफ नेशन्स’ तथा ‘कॉसेज ऑफ द पैल्थ ऑफ नेशन’ आर्थिक विचारों की एक शैली पर प्रकाश डालती है जो कम्पनियों द्वारा उठाई जा रही मुक्त व्यापार की नीति के फायदे को बतलाती है। कम्पनी की आय पर अधिकार जमाने के लिए संसद ने कम्पनी के अधिकारियों को व्यक्तिगत रूप से निशाना बनाना प्रारंभ कर दिया तथा उन पर दुराचार के आरोप लगाए गए। संसद में मुक्त व्यापार की माँग करने वाले, 19वीं शताब्दी में भारत में सीधे आने की बात करने वालों में तब्दील हो गए जिससे 1813 में चार्टर एक्ट पारित किया गया। इस प्रकार भारत में कम्पनी के एकाधिकार की समाप्ति हई तथा कम्पनी के अधीन भारत के क्षेत्रों का पूर्ण नियंत्रण ब्रिटेन की महारानी के हाथों में चला गया। Different stages of British colonialism in india


‘मुक्त व्यापार’ ने एक दोहरी नीति के द्वारा भारतीय उपनिवेश की प्रकृति को बदल कर रख दिया। पहले तो इसने भारतीय बाजारों को सस्ते, अधिक मात्रा में उत्पादित तथा मशीन आधारित ब्रिटिश सामानों के लिए खोल दिये, जिनके ऊपर नाम मात्र के या कोई भी व्यापार कर नहीं थे। महँगे तथा हाथ से निर्मित भारतीय वस्त्रों, जो कि ब्रिटेन में बहुत लोकप्रिय थे, उन पर प्रतिबन्धित सीमा शुल्क दर की वजह से रोक लग गई। तथा दूसरे ब्रिटिशों- भारतीय क्षेत्र खाद्य पदार्थो तथा कच्चे माल के स्रोत के रूप में ब्रिटेन के लिए विकसित हुआ, जिसमें निर्माण क्षेत्र में तीव्र प्रगति ने जान फूंक डाली, जो पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के उदय के लिए अत्यावश्यक थी इन परिवर्तनों ने भारत के अनुकूल व्यापारिक हितों को एक दम पलट कर रख दिया। इस चरण ने भारत में कृषि के व्यावसायीकरण की जटिल प्रक्रिया तथा औद्योगीकरण की प्रक्रिया द्वारा विशुद्ध औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था की नींव डाली, जो नीचे दर्शाए गए हैं।

ब्रिटिश उपनिवेशवाद का तीसरा चरण


ब्रिटिश भारत में तीसरे चरण की शुरुआत 1860 ई. से प्रारम्भ हाती है, जब भारत निरंतर विस्तारित ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बन गया तथा ब्रिटिश राज सिंहासन के नियंत्रण तथा संप्रभुता के अधीन हो गया। यह काल एक प्रकार का आर्थिक -साम्राज्यवाद का था जब ब्रिटिश पूँजी उपनिवेश में निवेश हुई थी। यह पूँजी ब्रिटिश बैंकों, आयात-निर्यात संस्थाओं तथा प्रबन्धन सेवाओं के बड़े तन्त्र द्वारा जुटाई गई थी।


हालांकि उपनिवेशवाद की प्रक्रिया को चरणों में विभाजित किया गया है तब भी यह ध्यान में रखना चाहिए कि काल निर्धारण की प्रक्रिया मनमाने ढंग से की गई है। तीसरा चरण मात्र उन प्रवृत्तियों का सम्मिलित रूप था जो पहले के दो चरणों में स्पष्टतः दिखाई दे रही थी। इन चरण का पढ़ना अधिक लाभकारी हो सकता है क्योंकि इस चरण में शोषण के पुराने तथा क्रूर तरीके के साथ नए एवं कठोर तरीके भी अपनाए थे। हालांकि तीसरे चरण की महत्वपूर्ण गतिविधि थी-विकसित तथा औद्योगिक देशा तथा एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका के उपनिवेशों के बीच प्रबल प्रतिद्वन्द्विता 19वीं शताब्दी में फ्रांस, जर्मनी, बेल्जियम तथा अमेरिका एवं यहाँ तक कि जापान ने भी औद्योगिकीकरण का स्वाद चखा। विश्व बाजार में प्रतिद्वन्द्विता के कारण ब्रिटेन की पकड़ धीरे-धीरे कम होने लगी। नए बाजारों की तलाश तथा कच्चे माल की खोज में इन देशों ने उपनिवेशों की तलाश प्रारम्भ कर दी तथा वर्तमान औपनिवेशिक बस्तियों पर अपनी पकड मजबूत कर दी। आर्थिक विकास ने पूँजी संग्रह की व्यवस्था का भी श्री गणेश किया जो कि कम संख्या में बैंकों तथा व्यवसायों में केन्द्रित थी। इस पँजी को औद्योगिक उत्पादन की गति को और तीव्र बनाने के लिए एवं कच्चे माल के तीव्र प्रवाह को बनाए रखने के लिए उपनिवेश में निवेशित किया गया।


अन्य विकासशील पूँजीवादी देशों में ऊँचे शुल्क के प्रतिबंध ने ब्रिटेन में निर्मित उत्पादों के बाजार के संक्षिप्तीकरण की प्रक्रिया को जन्म दिया तथा ब्रिटेन में कषि उत्पादों के भारी आयात की आवश्यकता ने इसकी स्थिति को अन्य देशों के साथ व्यापार में दुर्बल बना दिया। ब्रिटेन के घाटे की समस्या को सलझाने में भारत की भूमिका महत्वपूर्ण साबित हुई, भारत के ऊपर ब्रिटेन के नियन्त्रण ने यह सुनिश्चित किया कि उसके कपड़ों के लिए एक बंदी बाजार मौजद है हालांकि भारत के कच्चे माल के अतिरिक्त निर्यात (ब्रिटेन के अतिरिक्त अन्य देशों के साथ) ने उसके घाटे को कहीं और से पाटने में मदद की।


जहाँ एक ओर देशी हथकरघा उद्योग दम तोड़ रहा था वहीं उपनिवेश में नए उद्योग प्रारम्भ करने के भी कुछ प्रयास हुए हालांकि उपनिवेशी सरकार ने हमेशा ‘मुक्त व्यापार’ की बात की किन्तु राज्य की भेदभाव पूर्ण नीति के परिप्रेक्ष्य में स्वदेशी व्यावसायियों को कई बाधाओं का सामना करना पडता था। ब्रिटिश पूंजी आरम्भ में रेलवे, जूट उद्योग, चाय बागान तथा खनन में निवेश की गई थी भारतीय पूँजी बाजार यूरोपीय बैंकिग संस्थाओं द्वारा संचालित होता था। जहाँ एक ओर इन बैंको के तंत्र से ब्रिटिशों को पूँजी आसानी से प्राप्त होती थी वहीं भारतीय व्यापारी अभी भी परिवार या जातिगत संगठनों पर ही आश्रित थे। ब्रिटिश बैंकिग कम्पनी तथा ब्रिटिश ट्रेंडिंग लाभ बहुत ही सुनियोजित रूप से चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स तथा प्रबंधक संस्थाओं द्वारा संचालित होता था। प्रथम विश्व युद्ध से पूर्व ब्रिटिश प्रबन्धन संस्थाओं द्वारा औद्योगिक पूँजी के 75 प्रतिशत हिस्से को नियन्त्रित किया जाता था तथा इस सीमित औद्योगिकीकरण से प्राप्त अधिकतम लाभ ब्रिटेन वापस भेज दिया जाता था।


किन्तु भारी कठिनाइयों के बावजूद भारतीय व्यापारियों ने आगे बढ़ने के अपने अवसर तलाशे जब भी ब्रिटेन आर्थिक संकट के दौर से गुजरा, प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, कलकत्ता के मारवाड़ी व्यवसायी जैसे जी.डी. बिड़ला तथा स्वरूप चन्द हकीम चन्द ने जूट उद्योग में निवेश किया शीघ्र ही उन्होंने अपना प्रभाव क्षेत्र अन्य क्षेत्रों जैसे- कोयला की खदोनों, चीनी मिलों तथा कागज उद्योग तक विस्तृत किया तथा उन्होंने कुछ यूरोपीय कम्पनियां भी खरीदीं। भारतीय पूँजी की जबरदस्त सफलता पश्चिम में कपड़ा उद्योग में देखी जा सकती है, जिसने अपनी सफलता को संगठित करने के लिए विश्व युद्ध (1914-18) के दौरान बढी माँगों का लाभ उठाया तथा वह लगभग बराबरी की स्थिति में आ गया। कुछ निश्चित व्यवसायी समाजी, जैसे – पारसी. बोहरा तथा भाटिया इस क्षेत्र में अत्यधिक महत्वपूर्ण हो गए थे। इस्पात कम्पनी को सरकारी संरक्षण मिला जिससे भारत की इस इस्पात कम्पनी को नेतृत्व करने का मौका प्राप्त हुआ था।


प्रथम विश्व युद्ध के उपरान्त विदेशी व्यापार के सूत्र पुनः जुड़ने प्रारम्भ हुए किन्तु पुनः निराशावादी दौर 1979-339 में घरेलू बाजार तुलनात्मक रूप से देशी उद्योगों द्वारा दोहन के लिए मुक्त हो गया क्योंकि विदेशी व्यापार घटा था। उपनिवेशवादी सरकार ने चीनी तथा कपास उद्योग को कुछ सुरक्षा प्रदान की थी, कृषि क्षेत्र में गिरते मूल्यों को देखते हए यह कदम उठाया गया था। कम कीमतों ने पूँजी का रुख औद्योगिक क्षेत्र की ओर मोड़ दिया था। भारतीय भी बीमा तथा बैंकिग क्षेत्र में कूद पड़े थे। पुनः द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान (1939-45) जैसे ही विदेशी आर्थिक प्रभाव कम होना प्रारम्भ हुआ, भारतीय उद्योगपतियों ने भारी लाभ कमाया। अपनी सीमित सफलताओं से उत्साहित होकर भारतीय पूंजीवादी वर्ग ने अपने संबंध भारतीय राष्ट्रवादियों से जोडे। शीघ्र ही उन्होनें राज्य के अधीन भारी उद्योगों की स्थापना की माँग प्रारम्भ कर दी तथा विदेशी पूँजी के प्रवेश को लेकर उन्होंने स्वयं को संगठित करना प्रारम्भ कर दिया था।

किंतु व्यापक स्तर पर इन सफलताओं को सही परिप्रेक्ष्य में देखें तो ये विकास घरेलू बाजार तक ही सीमित थे तथा आगे स्वदेशी पूँजी को उपनिवेशवादी अर्थव्यवस्था की ढाचाँगत दर्बलताओं के खिलाफ एक लम्बी लड़ाई लड़नी थी। भारतीयों की गरीबी को देखते हुए प्रगति की संभावनाएँ निराशा ही उत्पन्न करती रहीं।


आरम्भिक भारतीय राष्ट्रवादी, जैसे-दादा भाई नौरोजी, एम.जी. रानाडे तथा आर.सी.दत्त ने ब्रिटेन से भारतीय पूँजीवादी औद्योगिकरण की अपेक्षा रखी थी। किन्तु उपनिवेशवादी आर्थिक नीतियों से वे असंतुष्ट नजर आए। परिणामत: उन्होंने 19वीं शताब्दी के अन्त में उपनिवेशवाद की भयंकर आर्थिक आलोचना की। दादा भाई नौरोजी ने ‘समृद्धि का पलायन’ अवधारणा को आगे बढ़ाया। भारत ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी को विदेशी कर्ज चकाने सैन्य, रेलवे तथा अन्य ढाँचागत सेवाओं में विदेशी निवश पर निश्चित ब्याज, इंग्लैंड से लेखन सामग्री का आयात तथा ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत पर शासन करने के लिए सैन्य तथा नागरिक अधिकारियों की नियक्ति राज सचिव के वेतन अधिकारियों के पेंशन वगैरह के लिए भारतीय धन का प्रयोग किया। हालांकि यह पलायन भारत के कुल निर्यात का छोटा सा ही अंश था, यदि इसका निवेश देश में हो गया होता तो पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के निर्माण में यह मदद कर सकता था। Different stages of British colonialism in india


उपनिवेशवादी आर्थिक नीतियों को लेकर एक मुख्य प्रश्न उठता था कि क्या भारत में कुछ विकास हुआ? इस प्रश्न का उत्तर सरल नहीं है। हम 19वीं शताब्दी के मुगल साम्राज्य से देखना प्रारंभ करते हैं जब तक कि ब्रिटिशों ने खुद को मुख्य शक्ति के रूप में स्थापित नहीं किया था। यह मत कि 18वीं शताब्दी का मुगल काल पतन की ओर जा रहा था तथा गंभीर आर्थिक समस्याओं के तले आ गया था, इस पर इतिहासकार एक मत नहीं है। हमें मुगल साम्राज्य के पतन को लेकर एक बड़ा नजरिया अपनाने की आवश्यकता है, क्योंकि बाद में कुछ इतिहासकारों ने इस सिद्धांत को पलट दिया तथा उन्होंने नए विद्रोह समूहों के उदय को मुगल साम्राज्य के पतन का कारण बताया। उन्होंने तर्क दिया कि संपूर्ण मुगल काल संपन्नता तथा आर्थिक विकास का युग था, न कि संकट का। राजनीतिक ढाँचे में स्थानीय प्रमुख के हाथों में व्यापक शक्ति तथा स्वायत्तता थी ताकि अतिरिक्त सम्पत्ति का संग्रह कर सकें। मुरादाबाद, बरेली, अवध, बनारस तथा बंगाल इन्हीं अतिरिक्त क्षेत्रों में मुख्य थे।


ब्रिटिश शासन का भारतीय अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ा था। ब्रिटिश शासकों ने भारत की प्राचीन अर्थव्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया और अपने स्वार्थो की पूर्ति हेतु इस देश की अर्थव्यवस्था को नये ढाँचे में ढालने का प्रयास किया। इंग्लैण्ड के बढ़ते हुए पूँजीवाद का भी भारतीय अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ा। इसके परिणामस्वरूप भारतीय अर्थव्यवस्था में जो परिवर्तन हुए वे स्वाभाविक नहीं थे, बल्कि उनको थोपा गया था। पं. जवाहर लाल नेहरू के शब्दों में, “भारत विश्व बाजार का एक अंग नहीं बन पाया, पर वह अंग्रेजी व्यवस्था का एक औपनिवेशक एवं सांस्कृतिक अंग बन गया।”


ब्रिटिश शासन का भारतीय कृषि व्यवस्था पर भी गहरा प्रभाव पड़ा। अंग्रेजी शासकों ने भूमि व्यवस्था करने का प्रयास किया, जिसमें स्थायी बन्दोबस्त, रैयतवाड़ी तथा महालवाड़ी प्रथा, मालगुजारी व्यवस्था लागू की भारतीय कृषि का व्यवसायीकरण किया गया, ग्रामीणों पर ऋण भार बढ़ा। अंग्रेजों की भू-राजस्व नीति के कृषकों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला। उनकी दशा दयनीय हो गयी। इनमें बेराजगारी, गरीबी, भुखमरी, ऋणग्रस्तता आदि बढ़ी।

यह तो थी भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विभिन्न चरण की जानकारी के नोट्स अगली पोस्ट में हम आपको स्थायी बन्दोबस्त के बारे में जानकारी देंगे तो बने रहिए Upsc Ias Guru .Com के साथ 🙂

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