स्थाई बंदोबस्त क्या था? स्थाई बंदोबस्त की विशेषताएं, गुण और दोष Notes

Hello दोस्तों, एक बार फिर से स्वागत है आपका Upsc Ias Guru .Com वेबसाइट पर पिछली पोस्ट में हमने आपको ब्रिटिश उपनिवेशवाद के चरण के बारे में बताया था, आज की पोस्ट में हम आपको स्थायी बन्दोबस्त के बारे में बताएंगे, तो चलिए शुरू करते हैं आज की पोस्ट

स्थायी बन्दोबस्त permanent settlement in hindi

(Permanent Settlement) स्थायी बन्दोबस्त से पूर्व की स्थिति –


इलाहाबाद की सन्धि (1765 ई.) के अनुसार कम्पनी ने मगल सम्राट शाह आलम से बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी प्राप्त कर ली थी, किन्तु अनेक कारणों से उसने लगान वसूल करने का काम स्वयं अपने हाथों में नहीं लिया। वह काम उसने रजाखाँ तथा सिताबराय को सौंप दिया। यह व्यवस्था वारेन हेस्टिंग्स के आने तक चलती रहीं। इसने आकर उसको समाप्त किया और लगान वसूली का काम कम्पनी ने सीधा अपने हाथों में लिया।


जब कम्पनी ने दीवानी अपने हाथों में ली तो उसे लगान वसूल करने की व्यवस्था करनी थी। इस दिशा में हेस्टिंग्स ने पहला काम यह किया कि राजस्व प्रशासन के नियन्त्रण के लिए उसने गवर्नर तथा उसकी परिषद् को राजस्व परिषद् (बोर्ड ऑफ रेवेन्यू) में परिवर्तित कर दिया। permanent settlement in hindi


अब प्रश्न यह था कि लगान वसूल कैसे किया जाये। हेस्टिंग्स ने यह काम ठेके पर जमींदारों को सौंप दिया, ठेके नीलामी के द्वारा दिये गये, जिन्होंने सबसे ऊँची बोली लगाई उन्हें ठेका दे दिया गया। ठेके पाँच वर्ष के लिए दिये गये।


जमींदार किसानों से लगान वसूल करते थे। अब समस्या यह थी कि जमींदार लगान कम्पनी के खजाने में कैसे पहुँचाएँ। यह तो सम्भव नहीं था कि हर जमींदार कलकत्ता जाकर कम्पनी के कोष में लगान जमा करता। अतः हेस्टिंग्स ने हर जिले में एक अंग्रेज कलेक्टर और एक भारतीय दीवान नियुक्त किया। ये अधिकारी जमींदारों से लगान एकत्र करते थे। यह व्यवस्था विनाशकारी सिद्ध हुई। जमींदारों का भूमि से सीधा सम्बंध नहीं था। वे इस प्रकार के सट्टेबाज थे और ठेका प्राप्त करने के लिए ऊँची बोली लगाते थे, किन्तु वे निर्धारित रकम रैयत से वसूल नहीं कर पाते थे। अतः वे रैयत की लूट-खसोट और उत्पीड़न करते थे। पाँच वर्ष के अन्त में जब हिसाब किया गया तो पता चला कि जमींदारों पर भारी रकमें अवशेष (बकाया) थीं, अतः उन्हें जेल में डाल दिया गया। इससे रैयत तथा जमींदारों दोनों को भारी कष्ट हुए। कम्पनी को भी हानि हुई, क्योंकि लगान की निर्धारित रकम वसूल न हो सकी। permanent settlement in hindi


1773 ई. में इस व्यवस्था में कुछ सुधार किये गये। राजस्व परिषद् का नये सिरे से संगठन किया गया। इसमें परिषद् के केवल दो सदस्य और कम्पनी के तीन वरिष्ठ नौकर रखे गये। इसका नाम राजस्व समिति रखा गया। अंग्रेजी कलेक्टरों के पद समाप्त कर दिये गये और हर जिले में एक भारतीय दीवान नियुक्त किया गया। इन दीवानों के काम के निरीक्षण के लिए छ: प्रान्तीय परिषदों की स्थापना की गयी और समय-समय पर निरीक्षण के लिए आयुक्त नियुक्त किये गये; किन्तु इससे भी व्यवस्था में सुधार नहीं हुआ। जब पंच-वार्षिक बन्दोबस्त का अन्त हुआ तो हेस्टिंग्स ने पुनः वार्षिक बन्दोबस्त आरम्भ कर दिया। प्रति वर्ष सबसे ऊँची बोली लगाने वालों को एक वर्ष के लिए लगान वसूल करने का काम सौंप दिया जाता था। प्रान्तीय परिषदों को निर्देश दिये गये की वार्षिक बन्दोबस्त करते समय वे अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा जमीदारों को वरीयता दें। फिर भी इस व्यवस्था में सुधार नहीं हुआ और रैयत का उत्पीड़न जारी रहा।


1781 ई. में राजस्व के प्रशासन के लिए एक योजना लागू की गयी। उसके अनुसार राजस्व का सारा काम कलकत्ता में केन्द्रित कर दिया गया। एक नयी राजस्व समिति कायम की गयी जिसमें चार सदस्य थे और उनकी सहायता के लिए एक दीवान। था। प्रान्तीय समितियाँ समाप्त कर दी गयी। जिलों में यूरोपीय कलेक्टर पनः नियक्त किये गये, किन्तु उनकी शक्तियाँ बहुत सामित थीं।

स्थायी बन्दोबस्त का क्रियान्वयन –


वारेन हेस्टिंग्स द्वारा स्थापित उक्त व्यवस्था में केन्द्रीयकरण अधिक था, इसलिये वह शीघ्र ही लड़खड़ाने लगी। 1786 ई में कॉर्नवालिस (1784-93 ई.) ने इसको युक्तिसंगत बनाने का प्रयत्न किया। जिलों का पुनर्गठन किया गया और उन्हें नियमित माल इकाइयाँ बना दिया गया। हर जिले में कलेक्टर को राजस्व निर्धारित तथा वसूल करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी। पहले पूरे प्रांतों को 35 जिलों में विभक्त किया, किन्तु 1787 ई. में उनकी संख्या घटाकर 23 कर दी गयी। राजस्व समिति का पुनर्गठन किया गया। उसका नाम राजस्व परिषद (बोर्ड ऑफ रेवेन्यू) रखा गया। गवर्नर-जनरल की परिषद् का एक सदस्य उसका अध्यक्ष था। राजस्व परिषद के कार्य स्पष्ट रूप से निर्धारित कर दिये गये। उसका काम कलेक्टरों पर नियंत्रण रखना, उन्हें सलाह देना तथा उनके द्वारा किये गये निर्णयों को स्वीकृत करना था। मुख्य शरिस्तादार नाम का एक अधिकारी नियुक्त किया गया जिसका काम भूमि तथा लगान सम्बन्धी अभिलेखों की देख-रेख करना था।


वार्षिक बन्दोबस्त की व्यवस्था 1790 ई. तक चलती रही। कम्पनी के निदेशकों ने कॉर्नवालिस को दस वर्ष के लिए बन्दोबस्त करने की आज्ञा दी और कहा यदि वह सन्तोषजनक हो तो उसे स्थायी कर दिया जाये। उस समय कम्पनी के अधिकारियों में लगान वसूल करने वाले जमींदारों के सम्बंध में दो सिद्धांत प्रचलित थे। जाँन शोर का मत था कि जमींदार भूमि के स्वामी हैं और वे सरकार को परम्परात्मक कर देते हैं। इसके विपरीत जार्ज ग्राण्ड का कहना था कि भूमि की असली स्वामी सरकार है, न कि जमींदार। इसलिये सरकार इच्छानुसार भूमि का बन्दोबस्त जमींदार अथवा किसानों, किसी के भी साथ कर सकती है। यह विवाद बहुत दिनों तक चलता रहा। कॉर्नवालिस ने अन्त में जॉन शोर का मत स्वीकार किया। 10 फरवरी, 1790 ई. को 10 वर्षीय बन्दोबस्त की घोषणा कर दी और कहा कि यदि निदेशकों ने अनुमति दी तो उसे स्थायी कर दिया जायेगा। निदेशकों ने गवर्नर जनरल की योजना को मान लिया और 22 मार्च, 1793 ई. को इसे स्थायी कर दिया।


इस व्यवस्था के अनुसार एक निश्चित मालगुजारी पर भूमि सदैव के लिए जमींदारों को दे दी गयी। राज्य के सब अधिकार जो नजराने अथवा फीसों की बिक्री के सम्बंध में थे, वे सब त्याग दिये गये। जमीदारों से न्याय के अधिकार ले लिये गये। जब तक वे सरकार को नियमित रूप से लगान देत रहेंगे तब तक किसानों और जमींदारों के विषय में कम्पनी कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी। यदि जमींदार लगान नहीं देते थे तो उनकी भूमि के कुछ भाग को लगान की वसूली के लिए कुर्क कर लिया जाता था।

स्थायी बन्दोबस्त का महत्व-

1. कम्पनी को लाभ – स्थायी प्रबन्ध से कम्पनी की सरकार को लाभ भी हुआ। वह बार-बार बन्दोबस्त करने के झंझट से मुक्त हो गयी। बार-बार प्रबन्ध करने में धन भी बहुत व्यय करना पड़ता था। इस प्रबन्ध से खर्च में कमी हो गयी। अब कम्पनी को यह निश्चित रूप से ज्ञात हो गया कि भूमि के लगान से कम्पनी को कितनी आमदानी होगी। अतः कम्पनी को आर्थिक योजनाएँ बनाने में सुविधा हो गयी। इस व्यवस्था से कम्पनी की लोकप्रियता में वृद्धि हुई। बंगाल में जमींदार वर्ग कम्पनी का स्वामिभक्त बन गया।

2. जमींदारों को लाभ – स्थायी प्रबन्ध में जमींदारों को लाभ हुआ। वे भूमि के स्थायी मालिक बन गये। उनका डर दर हो गया कि नियमित रूप से लगान देते रहते पर भी वे अपनी भूमि से वंचित कर दिये जायेंगे। जमींदार लोग भूमि व्यवस्था में रुचि लेने लगे असकी उन्नति के लिए प्रयत्न करने लगे। उनको बहुत कम लगान देना पड़ता था, अतः उनकी आय में वृद्धि हो गयी। भूमि का जो मूल्य बढ़ा उससे भी जमींदारों को लाभ हुआ। उससे जमींदार सम्पन्न हो गये और वे बड़े-बड़े नगरों में रहने लगे।

3. बंगाल की आर्थिक दशा में सुधार – स्थायी प्रबन्ध से बंगाल प्रान्त आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हो गया और इसकी गणना भारत के सबसे अधिक धनी प्रान्तों में होने लगी। इस सम्पन्नता का बंगाल के व्यापार तथा उद्योग-धन्धों पर बहुत प्रभाव पड़ा। उसके व्यापार तथा धन्धों में बड़ी वृद्धि हो गयी जिससे उसकी धन सम्पन्नता बढ़ती गयी। इस धन सम्पन्नता का परिणाम यह निकला कि बंगाल के सम्पन्न लोग साहित्य तथा कला की उन्नति में बड़ी रुचि लेने लगे। इससे बंगाल में शिक्षा का खूब प्रचार हुआ।

लॉर्ड विलियम बैंटिक ने स्थायी बन्दोबस्त के महत्व पर प्रकाश डालते हए कहा, “यदि जबरदस्त जन विद्रोहों या क्रांति का मुकाबला करने के लिए सुरक्षा की जरूरत है तो मैं यह कहना चाहूँगा कि कई मामलों में और कई महत्वपूर्ण बातों में असफल होने के बावजूद स्थायी बन्दोबस्त का कम से कम एक बहुत बड़ा लाभ यह है कि धनी भू-स्वामियों का एक ऐसा विशाल संगठन खड़ा किया गया है जो तहेदिल से यह चाहता है कि अंग्रेजी राज्य बना रहे और इसका जनता पर दबाव कायम रहे।”
इस व्यवस्था ने सरकार को बार-बार मालगुजारी का प्रबन्ध करने और खर्च और झंझट दोनों से मुक्ति दिला दी। दूसरे, जमींदारों का जो धनी वर्ग पैदा हुआ उसने अपनी संचित सम्पत्ति को व्यापार में लगाकर औद्योगीकरण को बढ़ावा दिया।

स्थायी बन्दोबस्त के दुष्परिणाम तथा हानियाँ –

1. किसानों को हानि – उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि स्थायी व्यवस्था से सरकार को ही लाभ हुआ; किन्तु किसानों को इससे कोई लाभ नहीं हुआ। किसान लोग अपने श्रम और साधनों से भूमि को उर्वरा बनाते और अधिक अन्न उत्पन्न करते थे, किन्तु इसका उन्हें कोई लाभ नहीं होता था, क्योंकि अधिक उत्पत्ति होने पर जमींदार उनसे मनमाना लगान वसूल करते थे। कभी-कभी तो किसानों पर इतना अधिक लगान थोप दिया जाता था कि अपनी सारी कृषि उपज को बेचकर भी नहीं चुका पाते थे। अतः जमींदार लोग उनकी भूमि छीन लेते थे। जमींदारों के अन्याय, अत्याचार अथवा कठोरता से बचने का उनके पास कोई उपाय नहीं था। अदालतें अवश्य थीं, किन्तु उनकी कार्य-प्रणाली इतनी व्ययसाध्य तथा विलम्बकारी थी कि जनसाधारण आसानी से उनका उपयोग नही कर सकते थे। उस समय के कृषकों की दुर्दशा का वर्णन करते हुए डॉ. मर्शमेन ने लिखा है, “किसी व्यक्ति ने आज तक इस तथ्य का खण्डन नहीं किया कि बंगाल के कृषक वर्ग की अवस्था इतनी अधिक शोचनीय और अपमानजनक है जिसकी कल्पना कर पाना भी सम्भव नहीं। ये कृषक ऐसी तंग अंधेरी कोठरियों में रहते थे जिसमें पशुओं का भी रह सकना असम्भव था। फटे चिथड़ों में लिपटे हुए इन कृषकों के लिए अपने तथा अपने परिवार का भोजन भी जुटा पाना कठिन था। बंगाल की इस रैयत के लिए जीवन की अत्यंत साधारण सुविधाएँ भी दर्लभ थीं। (यदि इस तथ्य पर बल दिया जाये तो कोई अतिश्योक्ति न होगी कि) जो कृषक वर्ग सरकार के लिए प्रतिवर्ष 30 लाख पौण्ड से 40 लाख पौण्ड तक की आय उपलब्ध करने वाली फसल उगाता था उसकी वास्तविक जर्जर स्थिति का सही ज्ञान निःसन्देह हमें चैंका देगा।”


उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि स्थायी बन्दोबस्त के परिणामस्वरूप किसानों की दशा दयनीय हो गयी। इस दुर्दशा के कारण किसानों को अपने जीवन-यापन के लिए ऋण लेने के लिए बाध्य होना पड़ा। किसानों पर लगान का बोझ इतना बढ़ गया कि उसे चुकाने के लिए ऋण लेना पड़ता था। ग्रामीण क्षेत्र में ऋण लेने की प्रथा ने उग्र रूप धारण कर लिया। इस प्रकार स्थायी बन्दोबस्त के परिणामस्वरूप किसानों का दोहरा शोषण होने लगा एक तो अधिक लगान लेकर और दूसरे ऋण के दुगुने ब्याज के रूप में। इस शोषण का यह परिणाम हुआ कि कृषि से जो भी धनराशि प्राप्त होती थी वह भूमि सुधार तथा उत्पादन की वृद्धि में सहायक नहीं हो सकी, क्योंकि किसान भरपूर मेहनत करने के बाद भी अपने जीवन-यापन लायक पैदा नहीं कर पाता था। अतः वित्तीय साधनों के अभाव में वह कुछ भी नहीं कर पाता था। कृषि उत्पादन का अधिकांश भाग जमींदार के पास चला जाता था, उनको भूमि सुधार तथा उत्पादन वृद्धि से कोई लगाव नहीं था। इसी कारण कृषि उत्पादन भी गिर गया।

2. सरकार को हानि – वित्तीय दृष्टिकोण से शासन को तात्कालिक लाभ तो हुआ, किन्तु दीर्घकाल में उसे घाटा रहा स्थायी भूमि-कर को निश्चित करते समय भूमि तथा उत्पादन के भावी मूल्य बढ़ने की ओर ध्यान नहीं दिया गया और जब कृषि योग्य भूमि तथा उत्पादन के मूल्य कई गुणा बढ़ गये तो इस स्थिति में सरकार को कोई अतिरिक्त धन नहीं मिला।

3. सामाजिक दृष्टिकोण से निन्दनीय – सामाजिक दृष्टिकोण से भी यह व्यवस्था निन्दनीय हैं। जमींदारों का भूमि पर पूर्ण अधिकार मानकर कम्पनी ने भूमिपति अथवा किसानों दोनों के हितों की अवहेलना की। भूमिपति जो कल तक स्वामी था आज एक किरायेदार हो गया तथा किरायेदार अब जमींदार की दया पर निर्भर था और उसे अधिक से अधिक किराया देना पड़ता था। ऐस अन्याय भारत के इतिहास में इससे पूर्व कभी नहीं हुआ था। permanent settlement in hindi

4. जमींदारों को हानि – प्रारम्भ में अनेक जमींदारों को भी इस बन्दोबस्त से अत्यधिक हानि उठानी पड़ी। बंगाल के जमींदार राजाओं की भाँति रहते थे। समय पर लगान वसूल करके सरकारी खजाने में जमा करना उनके लिए सरल कार्य न था। इसलिए अनेक जमींदार परिवार नष्ट हो गये और उन्हें अपनी भूमि बेचनी पड़ी। कॉर्नवालिस की यह अवधारणा सत्य सिद्ध नहीं हुई कि भूमि का स्वामी हो जाने पर जमींदार लोग उसकी उन्नति की ओर ध्यान देंगे और देश अधिक समृद्धशाली होगा। अनेक जमींदार भूमि बिचौलियों के अधिकार में छोड़कर कलकत्ता आदि बड़े नगरों में बस गये और भूमि से उनका सम्पर्क नहीं रहा।

यह तो थी स्थायी बन्दोबस्त की जानकारी के नोट्स अगली पोस्ट में हम आपको रैयतवाड़ी के बारे में जानकारी देंगे तो बने रहिए Upsc Ias Guru .Com के साथ 🙂

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