ब्रिटिश शासनकाल में कृषि का व्यवसायीकरण Notes

Hello दोस्तों, एक बार फिर से स्वागत है आपका Upsc Ias Guru .Com वेबसाइट पर पिछली पोस्ट में हमने आपको ब्रिटिश शासनकाल में कृषकों की स्थिति के बारे में बताया था, आज की पोस्ट में हम आपको ब्रिटिश शासनकाल में कृषि का व्यवसायीकरण के बारे में बताएंगे, तो चलिए शुरू करते हैं आज की पोस्ट

ब्रिटिश शासनकाल में कृषि का व्यवसायीकरण

कृषि के व्यवसायीकरण का अर्थ नकदी फसलों को उगाना था। नकदी फसलें उन फसलों को कहा जाता है जिनको बाजार में बेचकर किसानों को अधिक पैसा मिल सकता था। उदाहरण के लिए, कपास, चाय, फल, आलू, सरसों, सब्जी आदि नकदी फसलें कहलाती हैं। Commercialization Of Agriculture In Hindi


उन्नीसवीं शताब्दी में भारत की 80 प्रतिशत जनता कृषि पर निर्भर थी। ब्रिटिश सरकार ने भारतीय अर्थव्यवस्था के ग्रामीणीकरण को ही बढ़ावा दिया। सरकार ने भारत के परम्परागत कुटीर उद्योगो को नष्ट करने की नीति अपनायी। इसके परिणामस्वरूप कषि पर निर्भरता में वृद्धि हुई। दूसरी ओर आय का मुख्य स्त्रोत भू-राजस्व था। यदि कृषि पैदावार में वृद्धि होती थी, तो सरकार की आय में भी वृद्धि हो जाती थी। भू-राजस्व सरकार को बढ़ती हुई दर पर ही प्राप्त हुआ।


भू-राजस्व की वृद्धि का प्रमुख कारण कृषि का व्यवसायीकरण करना था। कृषि का व्सवसायीकरण कृषि विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया का परिणाम नहीं था, बल्कि सरकार ने अपने लाभ के लिए उसे थोपा था। अब प्रश्न यह है कि कृषि व्यवसायीकरण के क्या कारण थे? Commercialization Of Agriculture In Hindi


कृषि के व्यवसायीकरण का प्रमुख कारण भारत में ब्रिटिश सरकार की सम्राज्यवाद नीति थी जो ब्रिटेन में प्रचलित राजनीतिक दर्शन तथा विचारधाराओं से प्रभावित थी। इसका मुख्य आधार साम्राज्यवाद की आवश्यकता को पूरा करना था। सरकार ने भू-राजस्व की जो प्रणालियाँ लागू की उनका उद्देश्य अपनी आय की वृद्धि करना तथा अपने समर्थक जमींदारों को प्रसन्न करना था। इस काल में ब्रिटिश नीति ब्रिटेन की आवश्यकताओं के लिए कृषि उत्पादन के प्रयोग की थी। कृषि उत्पादन को स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाने के लिए सरकार ने रेलों का जाल बिछा दिया। ब्रिटेन के वस्त्र तथा उद्योग शहरी आबादी आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए कच्चे कपास को भारत के विभिन्न क्षेत्रों से रेलों द्वारा बन्दरगाहों तक पहुँचाया जाता था। वहाँ से उनको ब्रिटेन भेजा जाता था। इस प्रकार उन्नीसवीं शताब्दी में भारत का ब्रिटेन के एक कृषि उपनिवेश के रूप में उदय हुआ।


कृषि के व्यवसायीकरण की इस प्रक्रिया में सरकार ने उन्हीं फसलों के विकास में योगदान दिया, जिनकी विदेशी बाजार आवश्यकता थी। उदाहरण के लिए पंजाब में अमेरिकी कपास की खेती को बढ़ावा दिया। इसका उद्देश्य लंकाशायर के उद्योगों को कच्चा माल उपलब्ध कराना था। क्योंकि अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम के बाद अमेरिकी उपनिवेशों से कच्चा माल आना बन्द हो गया था। सरकार ने इस प्रकार की फसलों को प्रोत्साहन देने के लिए प्रदर्शन फार्मो की स्थापना की। बंगाल में सरकार ने पोस्त, नील तथा जूट के उत्पादन को बढ़ाने पर बल दिया। इन फसलों को किसान किस सीमा तथा किस किस्म को पैदा करेगा, इसका निर्णय स्वयं सरकार करती थी। निर्यात के लिए सरकार को कितने माल की आवश्यकता है, तथा उसे राजस्व कितना मिलेगा? उसी हिसाब से वह उत्पादन को बढावा देती थी। इससे स्पष्ट है कि फसलों पर सरकार का एकाधिकार कायम था। आगे चलकर चाय को भी इस श्रेणी में सम्मिलित कर लिया गया।

कृषि के व्यवसायीकरण का प्रभाव –

1. किसान तथा श्रमिकों का शोषण – नील तथा चाय की खेती पर अंग्रेजों का वर्चस्व था। वे कृषकों तथा मजदूरों पर अनेक प्रकार से अत्याचार करते थे। अंग्रेज व्यापारी नील के रंग का उत्पादन करते थे, जिससे उनको भारी लाभ होता था। नील की खेती के लिए उनके अपने बागान थे, जिनमें वे किराये के मजदूरों से खेती करवाते थे। किन्तु नील के अधिकांश उत्पादन का बोझ किसानों पर पड़ता था। बागानों में मालिक किसानों से नील के उत्पादन के लिए संविदा कर लिया करते थे जिनके अनुसार किसानों को अपने खेतों में नील का उत्पादन करना पड़ता था और उपज बागान मालिकों को कम मूल्य पर बेचनी पड़ती थी। किसानों को नील का जो मूल्य बागान मालिकों से मिलता था वह लागत से भी कम होता था। यदि नील के स्थान पर किसान चावल की खेती करता तो उसे अधिक लाभ होता, किन्तु ऐसा वह नहीं कर सकता था। इसके अतिरिक्त किसानों को अन्य प्रकार के शोषण का भी सामना करना पड़ता था। उन्हें खेती के लिए बागान मालिकों से ऋण लेना पड़ता था। किसान अनपढ़ थे और ऋण का हिसाब बागान मालिकों के पास रहता था, जिसमें वे बहुत घोटाला करते थे। फलस्वरूप किसान ऋण कभी नहीं चुका पाते थे और उसके बोझ से सदैव लदे रहते थे। चाय बागानों की भी यही दशा थी।


2.जमींदार तथा ऋणदाता व्यापारियों को लाभ – कृषि के व्यवसायीकरण के परिणामस्वरूप जमींदार तथा ऋणदाता व्यापारी सशक्त हो गये, उनके द्वारा कृषकों का शोषण पहले से बढ़ गया। इस प्रणाली का मुख्य आधार अग्रिम ऋण प्रदान करना था। इस ऋण की अदायगी के लिए छोटे किसानों को फसल आते ही उसे बेचना पड़ता था, फसल पर उसे कम कीमत मिलती थी, उससे वह ऋण मुक्त भी नहीं हो पाता था, उसके पास आजीविका का खेती के अतिरिक्त कोई साधन नहीं होता था। अतः कर्ज के कारण उसकी स्थिति अर्द्धदास की हो जाती थी और अपनी फसल को उचित समय पर बेचकर अधिक लाभ कमाते थे। व्यवसायीकरण से सामान्य किसानों को कोई लाभ नहीं हआ। बड़े किसान तथा जमींदार ही इससे लाभान्वित हुए।

3. आर्थिक असन्तुलन पैदा हुआ – संयुक्त प्रांत में व्यवसायिक खेती ने कुछ असन्तुलनों को जन्म दिया। किसानों पर लगान की दर बहुत बढा दी और उसको कठोरता से वसूल किया गया। इससे ऋणग्रस्तता बढ़ी। दूसरे, इस काल में कृषि का जो भी विस्तार हुआ वह नकदी फसलों में ही हुआ; जैसे- गन्ना, गेहूँ आदि। इनमें से अधिकांश फसलों को तत्काल होने वाले खर्च को पूरा करने के लिए उगाया जाता था, जिसका उद्देश्य हमेशा भू-राजस्व, लगान तथा पुराने कर्जो को चुकाना होता था। महाराष्ट्र में नयी भू-राजस्व प्रणाली लागू करने से इसी प्रकार की अस्त-व्यस्तता पैदा हुई। इसका कारण आर्थिक विषमता बढी और दलित वर्गों की हालत बदतर हो गयी। इसमें जमींदारों, व्यापारियों तथा अंग्रेजों के विरुद्ध किसानों में भंयकर रोष उत्पन्न हुआ। परिणामस्वरूप 1875 ई. में अनेक दंगे हुए। Commercialization Of Agriculture In Hindi

4. कृषि उपज व्यापार का लाभ किसानों को नहीं – पंजाब में हालत ऊपरी तौर पर अच्छी प्रतीत होती थी, किन्तु इसका लाभ भी जमींदारों तथा अंग्रेजों को ही हुआ। पंजाब में सिंचाई के विस्तार से 40 लाख एकड़ जमीन पर खेती होने लगी, जिस पर पहले कभी नहीं होती थी। इसके परिणामस्वरूप कृषि उपज का व्यापार बहुत बढ़ गया। किन्तु अमेरिकी कपास तथा अच्छी किस्म का गेहूँ कराँची के रास्ते विदेशों को चला जाता था, जिसका लाभ भारत के किसानों को नहीं मिल पाता था।

5. प्रति व्यक्ति उत्पादन तथा खाद्यान्न में कमी तथा अकाल – उपर्युक्त कारणों से ही प्रति व्यक्ति उत्पादन तथा खाद्यान्न की प्राप्ति में कमी आयी। इसके परिणामस्वरूप अनेक बार अकाल पड़े, जिनमें हजारों लोग भूख से तड़प-तड़प कर मर गये। 1800 ई. से 1825 ई. तक अकालों में मरने वालों की संख्या 10,00,000 थी जो 1875 से 1900 ई. के बीच बढ़कर 1,50,00,000 हो गयी। इन अकालों का कारण केवल फसल खराब होना ही नहीं था, बल्कि गरीब किसानों के पास खेती के अलावा दूसरा कोई रोजगार नहीं होना था। खेती से वे इतना जमा नहीं कर पाते थे कि अकाल के समय वह काम आ सके। दूसरे, अकाल के समय भी सरकार विदेशों को अनाज का निर्यात किया करती थी। इन अकालों ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया। इस स्थिति में भी सरकार ने ऊँची दरों पर राजस्व की माँग की। यह किसानों पर अत्याचार तथा शोषण की पराकाष्ठा थी। ऐसे समय में ऋणग्रस्तता तथा दबाव के कारण महाजनों को जमीन बेचे जाने की घटनाओं में वृद्धि हुई और भारी तादाद में लोग खेतिहर मजदूर बनते चले गये। जो किसान मजदूर बन गये, उनको रोजगार की तलाश में अपने मूल निवास स्थानों को छोड़कर दूसरे स्थानों पर जाने के लिए बाध्य होना पड़ा। Commercialization Of Agriculture In Hindi

उपर्यक्त विवेचन से स्पष्ट है कि व्यावसायिक खेती से गरीब किसानों को कोई लाभ नहीं हुआ। इससे बड़े किसानों, जमींदारों तथा अंग्रेजों को ही लाभ मिला। उन्होंने इसके व्यापार से भारी लाभ कमाया। अंग्रेजों ने भूमि सुधार, सिंचाई आदि की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। उन्होंने उसी फसल के उत्पादन को बढ़ावा दिया, जिसकी विदेशी बाजारों में आवश्यकता थी। सरकार की इस नीति ने किसानों को बर्बाद कर दिया।

यह तो थी ब्रिटिश शासनकाल में कृषि का व्यवसायीकरण की जानकारी के नोट्स अगली पोस्ट में हम आपको ब्रिटिश शासनकाल में ग्रामीण ऋणग्रस्तता के बारे में जानकारी देंगे तो बने रहिए Upsc Ias Guru .Com के साथ 🙂

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