ब्रिटिश शासनकाल में कृषकों की स्थिति Notes

Hello दोस्तों, एक बार फिर से स्वागत है आपका Upsc Ias Guru .Com वेबसाइट पर पिछली पोस्ट में हमने आपको महालवाड़ी बन्दोबस्त के बारे में बताया था, आज की पोस्ट में हम आपको ब्रिटिश शासनकाल में कृषकों की स्थिति के बारे में बताएंगे, तो चलिए शुरू करते हैं आज की पोस्ट

ब्रिटिश शासनकाल में कृषकों की स्थिति

ब्रिटिश भू-राजस्व नीति के परिणामस्वरूप कृषकों की दशा दयनीय हो गयी। जैसा कि पहले लिखा जा चुका है कि स्थायी बन्दोबस्त, रैयतवाड़ी प्रथा से किसानों को कोई लाभ नहीं हुआ। इससे उनकी स्थिति गिरती चल गयी। काष्तकारों का जमीन पर रहने का अधिकार छिन गया। लगान ठीक समय पर अदा न करने पर कृषकों को बन्दी बनाया जा सकता था या निजी सम्पत्ति को बेचकर लगान की पूरी रकम वसूल कर सकता था। कृषकों के अधिकारों की रक्षा के लिए सरकार की ओर से कोई कानूनी व्यवस्था नहीं की गयी। farmer situation during the british rule in india hindi


लॉर्ड ब्रौम ने लिखा है, “जमींदारी प्रथा में लगान वसूल करने का कार्यभार विभिन्न श्रेणियों के दलालों को सौंप दिया जाता था, जिससे रैयत का शौषण और भी बढ़ गया। ये दलाल जमींदार और कृषक के बीच मध्यस्थ का काम करते थे और जमींदार के लगान में अपना लाभांष भी जोड़ लेते थे। दलाल लोग अधिक से अधिक शोषण में जुटे रहते थे। ये लोग कृषकों के ऊपर इतना अधिक दबाव डालते थे कि परिश्रम और शोषण के कारण कृषकों की दशा दयनीय हो जाती थी। इस दयनीय स्थिति से घबराकर कषक लोग भाग खड़े होते थे। इनमें इतना भी साहस नहीं रहता था कि वह डाकू भी बन जायें। अन्ततः ये जंगलों में भूख से व्याकुल होकर प्राण देने पर बाध्य हो जाते थे।”


कृषकों की यह अत्यधिक दरिद्र जमात घोषित रूप में अंग्रेजी शासन की स्वतंत्र नागरिक होते हुए भी, वस्तुतः क्यूबा के गुलामों अथवा रूस के कृषि दासों से भी कहीं अधिक अपमानजनक और सोचनीय स्थिति में थी।


ब्रिटिश शासन की स्थापना के लगभग 100 वर्ष बाद बंगाल के कृषकों की अवस्था के सम्बन्ध में डाँ. पार्शमेन ने लिखा है, “किसी व्यक्ति ने आज तक इस तथ्य का खण्डन नहीं किया कि बंगाल के कृषक वर्ग की व्यवस्था इतनी अधिक शोचनीय और अपमानजनक है जिसकी कल्पना कर पाना भी सम्भव नहीं। ये कृषक ऐसी तंग अंधेरी कोठरियों में रहते थे जिसमें पशुओं का भी रह सकना असम्भव था। फटे चिथड़ों में लिपटे हुए इन कृषकों के लिए अपने तथा अपने परिवार का भोजन भी जुटा पाना कठिन था। बंगाल की इस रैयत के लिए जीवन की अत्यन्त साधारण सुविधाएँ भी दुर्लभ थीं। (यदि इस तथ्य पर बल दिया जाये तो कोई अतिशयोक्ति न होगी कि) जो कृषक वर्ग सरकार के लिए प्रतिवर्ष 30 लाख पौण्ड से 40 लाख पौण्ड तक की आय उपलब्ध करने वाली फसल उगाता था उसकी वास्तविक जर्जर स्थिति का सही ज्ञान निःसन्देह हमें चैंका देगा।”


कृषकों की इस दर्दशा के कारण गाँव में ऋण लेने की प्रथा ने भी अग्र रूप धारण कर लिया। यद्यपि ऋण लेने की प्रथा भारत में पहले भी थी, किन्तु पहले वह शहरों तक ही सीमित थी। इस नयी शासन पद्धति में लगान या भू-राजस्व का बोझ इतना अधिक बढ़ गया कि किसानों को उसे चकाने के लिए नियमित रूप से ऋण लेना पड़ता था। बहुत बार लगान चुकाने के बाद जो कुछ कृषक के पास बचा रहता था, वह उसके अपने जीवन निर्वाह के लिए भी पर्याप्त नहीं होता था। इसलिए जीवन निर्वाह भी पर्याप्त नहीं होता था। इसलिए जीवन निर्वाह के लिए ऋण का सहारा लेना अनिवार्य हो जाता था। इस प्रकार ब्रिटिश शासन से उत्पन्न हुई यह जमींदारी व्यवस्था कृषकों के शोषण का दोहरा साधन बन गयी-एक ओर लगान के रूप में और दूसरी ओर ऋण के ऊपर दिये जाने वाले ब्याज के रूप में। farmer situation during the british rule in india hindi


राजस्व की ऊँची दर के कारण कृषकों की दशा अत्यंत शोचनीय तथा दयनीय हो गयी। उसकी इस बढ़ती हुई दुर्दशा की ओर शासन वर्ग ने कोई ध्यान नहीं दिया, क्योंकि ब्रिटिश सरकार का एकमात्र लक्ष्य अधिक से अधिक भू राजस्व इकट्ठा करना था। कृषकों की दशा में सुधार नहीं। सरकार अपने लिये निश्चित आय तो चाहती थी, साथ ही साथ देश के साधन सम्पन्न वर्ग, जैसे जमीदार या अमीर कृषक वर्ग को प्रसन्न भी रखना चाहती थी। इसलिए निर्धन कृषक सरकार का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने में असमर्थ रहे। इस प्रकार गाँवों में छोटे-छोटे किसानों तथा खेतीहार काश्तकारों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती चली गयी और भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी। farmer situation during the british rule in india hindi

यह तो थी ब्रिटिश शासनकाल में कृषकों की स्थिति की जानकारी के नोट्स अगली पोस्ट में हम आपको ब्रिटिश शासनकाल में कृषि का व्यवसायीकरण (commercialization of Agriculture) के बारे में जानकारी देंगे तो बने रहिए Upsc Ias Guru .Com के साथ 🙂

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