हुमायूँ का इतिहास || मुगल साम्राज्य Notes

Hello दोस्तों, स्वागत है आपका फिर से हमारी इतिहास नोट्स की सीरीज में इससे पहले हमने आपको पानीपत का प्रथम युद्ध – कारण , महत्त्व और परिणाम के बारे में विस्तार से बताया था, इस पोस्ट से हम आपको हुमायूँ के बारे में बतायेगे जिससे आपको  मध्यकालीन भारत के इतिहास की जानकारी मिल सके और आपकी तैयारी को और भी बल मिल सके तो चलिए शुरू करते है आज की पोस्ट 🙂

हुमायूँ history of humayun in hindi

हुमायूँ की प्रारम्भिक कठिनाईयाँ –

गद्दी पर बैठने के पश्चात हुमायूँ के समक्ष अनेक कठिनाईयां थी। इसमें कुछ कठिनाईयां उसे अपने पिता से विरासत के रूप में मिली थी तथा कुछ उसके सम्बन्धी मिर्जाओं और भाईयों ने प्रदान की। किन्तु उसकी सबसे बड़ी कठिनाई उसके अफगान शत्रु थे जो अभी भी मुगलों को भारत से निकालने के लिए प्रयत्नशील थें, हुमायूँ के प्रारम्भिक कठिनाईयां इस प्रकार थी

असंगठित साम्राज्य – बाबर हुमायूँ के लिए एक विस्तृत साम्राज्य छोड़ा था किन्तु वह अपने विजित राज्यों को संगठित कर उसे एक निश्चित प्रशासनिक रूप नहीं दे सका। इसके अतिरिक्त जनता मुगलों को विदेशी समझती थी तथा उनके अफगाना के प्रति स्वामिभक्ति शेष थी। अतः हुमायूँ के समक्ष सर्वप्रथम समस्या प्रशासन को संगठित एवं सव्यस्थित करने की थी।

रिक्त कोष – जब हुमायूँ गद्दी पर बैठा तो उस समय मुगल साम्राज्य की आर्थिक स्थिति सोचनीय थी। राजकोष पूरा रिक्त पर था। क्योंकि बाबर ने धन का बहुत अपव्यय किया था। पानीपत के प्रथम यद्ध में विजयी होने के बाद उसने अपने अमीरों, सम्बन्धियों, दास-दासियों व जनता को प्रसन्न करने के लिए काफी मात्रा में धन वितरित किया। इसी कारण उसे कलंदर की उपाधि भी दी गई। इसका परिणाम हुमायूँ को भुगतना पड़ा। उसके पास धन का सर्वथा अभाव था। प्रो. रशब्रुक विलियम्स के अनुसार हुमायूँ की कठिनाईयों में उसकी आर्थिक अवस्था का बहुत बड़ा हाथ था।”

सम्बन्धी अथवा मिर्जा वर्ग – हुमायूँ के सम्बन्धियों में मोहम्मद जमा मिर्जा मोहम्मद सुल्तान मिर्जा तथा मीर मोहम्मद मेंहदी ख्वाजा प्रमुख थे। इनमें मोहम्मद जमां मिर्जा तथा मोहम्मद सुल्तान मिर्जा चचेरे भाई थे तथा दोनों बाबर के दामाद थे। इनका प्रभाव अमीर वर्ग पर था। समय -समय पर इन दोनों ने हुमायूँ के विरुद्ध विद्रोह किए तथा उसके शत्रुओं का साथ दिए।

हुमायूँ के भाई – हुमायूँ को अपने भाईयों से भी कोई सहयोग प्राप्त नहीं हो सका। उन्होंने उसके समक्ष एक विकट समस्या खड़ी कर दी। इसके लिए भी बाबर उत्तरदायी था। अपनी मृत्यु से पूर्व उसने हुमायूँ तथा कामरान का भाग छः तथा पाँच के अनुपात में निश्चित कर भविष्य में हुमायूँ के लिए समस्या उत्पन्न कर दिया था। इसके अतिरिक्त बाबर ने अपने वसीयत में हमायूं को में अपने भाईयों से उदारतापूर्ण व्यवहार करने का निर्देश दिया था, इसलिए हुमायूँ ने सदैव अपने भाईयों के प्रति दयापूर्ण रवैया – अपनाया, किन्तु उसके भाई सदैव उसके प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार किए।

अफगान – हुमायूँ के सबसे प्रबल शत्रु अफगान थे। बाबर द्वारा पराजित होने के बाद भी उनका साहस कम नहीं हआ था। उस समय अफगान गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र बिहार था जहाँ पर महमूद खाँ लोदी ने बिहार के अफगानों को संगठित कर के प्रयास में लगा था। वह स्वयं अपने आपको दिल्ली के सिंहासन का वास्तविक उत्तराधिकारी समझता था। उसकी बयाजीद जैसे योद्धाओं और अनेक अफगान जागीरदारों का समर्थन प्राप्त था जो भारत में अफगान राज्य इच्छुक थे। इसके अतिरिक्त शेरखाँ भी हुमायूँ का प्रबलतम शत्रु था। history of humayun in hindi

हुमायूँ के प्रारम्भिक कार्य – history of humayun in hindi

कालिंजर पर आक्रमण (1531 ई.) –

अपने राज्यारोहण के कुछ ही माह पश्चात उसने कालिंजर पर आक्रमण कर दिया और वहाँ के किले का घेरा डाल दिया और कई महीनों तक घेरा डाल दिय। अन्त में हुमायूँ ने कालिंजर के शासक के साथ समझौता कर लिया। उसने हुमायूँ को जन-धन की हानि का मुआवजा देना स्वीकार कर लिय। हुमायूँ इतने से ही सन्तष्ट हो गया और उसने वहाँ से कूच कर दिया। वहाँ के राजा को बिना पराजित किये हुए लौटना हुमायूँ की एक बड़ी भूल थी।

अफगानों के विरुद्ध प्रथम अभियान तथा चनार का घेरा (1532 ई.) –

सिकन्दर लोदी के पुत्र अफगानों की सहायता से हुमायूँ के विरुद्ध विद्रोह का झण्डा बुलन्द कर दिया था और वह जौनपुर की ओर बढ़ा चला आ रहा था, इसलिए कालिंजर से शीघ्र ही पूर्व की ओर बढ़ा और दौहरिया नामक स्थान पर हुमायूँ महमूद को पराजित किया। इसके पश्चात उसने चुनार के दुर्ग का घेरा डाल दिया। यह घेरा चार मास तक पड़ा रहा। अन्त में शेरखाँ ने कूटनीति से काम लेकर हुमायूँ के पास आत्मसमर्पण का प्रस्ताव भेजा और मुगल सम्राट के प्रति वफादार रहने का वचन दिय। हुमायूँ ने अपने शत्रु का विश्वास करते हए आत्मसमर्पण स्वीकार कर लिया और घेरा उठा लिया तथा आगरा लौट आय। यह हुमायूँ की बहुत बड़ी भूल थी, क्योंकि इससे शेरशाह को अपनी सैनिक तैयारी का समय मिल गया। history of humayun in hindi

समय तथा धन की बर्बादी (1533-34 ई.) –

चुनार से लौटने के पश्चात उसने आगरा तथा दिल्ली में रंगरेलियां मानना प्रारम्भ कर दिया। यद्यपि उसका राजकोष पहले से ही खाली था, लेकिन उसने इसकी परवाह न करते हुए उत्सवों तथा रंगरलियों में तमाम धन व्यय कर दिया। उसने डेढ़ वर्ष का अमूल्य समय ऐशोआराम मे बर्बाद कर दिया जिसके परिणामस्वरूप गुजरात में बहादुरशाह ने पर्याप्त शक्ति संचय कर ली। यद्यपि बहादुरशाह के खतरे की सूचना हुमायूँ को अनेक बार दी जा चुकी थी लेकिन उसने इस ओर ध्यान न देकर आमोद-प्रमोद में ही समय नष्ट किया। history of humayun in hindi

बहादुरशाह के विरुद्ध अभियान (1535-36 ई.) –

आगरा में कुछ समय ठहरने के पश्चात हुमायूँ ने बहादुरशाह पर आक्रमण करने का निश्चय किया, क्योंकि बहादुरशाह ने हुमायूँ के प्रबल शत्रु आलमखाँ लोदी तथा मुहम्मद जमान मिर्ज़ा को अपने यहाँ शरण दी थी। हुमायूँ ने पत्र लिखकर अपने शत्रुओं को समर्पित करने का आग्रह किया लेकिन बहादुरशाद हुमायूँ की माँग को ठुकरा दिया। दूसरे, बहादुरशाह दिन-प्रतिदिन शक्तिशाली होता जा रहा था, उसने मालवा तथा रायगढ़ पर अधिकार कर लिया था और चित्तौड़ पर आक्रमण किया।

हुमायूँ तथा शेरखाँ के बीच निर्णायक संघर्ष –

गुजरात में असफलत होने के पश्चात हुमायूँ 1536 ई. में आगरा आया। उस समय पूर्व में शेरखाँ की ओर से बराबर चिन्ताजनक खबरें आ रही थीं। उसने अपनी शक्ति को दृढ़ बना लिया था। हुमायूँ के राजनीतिक सलाहकार यसफखैल ने शेरशाह पर तुरन्त आक्रमण करने की सलाह दी। हुमायूँ ने अपने एक कर्मचारी हिन्दुबेग को शेरखाँ के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने के लिए भेजा लेकिन शेरखाँ ने हिन्दुबेग को रिश्वत देकर अपनी ओर मिला लिया और हुमायूँ के पास यह सूचना भिजवा दी कि शेरखाँ मुगल सम्राट का भक्त है। अब्बासखाँ ने ‘तारीख-ए-शेरशाही’ में लिखा है, “शेरखाँ ने हिन्दुबेग के लिए लिखा कि मैंने जो वचन सम्राट को दिया था, उससे मैं विचलित नहीं हुआ हूँ। मैंने सम्राट की भूमि पर आक्रमण नहीं किया है। कृपया सम्राट को लिख दीजिए और मेरी ओर से राजभक्ति का आश्वासन देते हुए कहिए कि इस दिशा में प्रस्थान न करें, क्योंकि मैं उनका सेवक तथा शुभेच्छु हूँ”

हिन्दुबेग की सूचना से सम्राट सन्तुष्ट हो गया और उस वर्ष उसने अपनी पूर्व की यात्रा स्थगित कर दी। इस प्रकार हुमायूँ एक बार फिर धोखा खाया और शत्रु के जाल में फंस गया और अगस्त 1536 ई. से जलाई 1537 ई. तक का समय मूर्खता में बर्बाद कर दिय।

चुनार का दूसरा घेरा (अक्टूबर 1537 से मार्च 1538 ई.) –

जुलाई 1537 में बंगाल के शासक महमूदशाह ने हुमायूँ से शेरखाँ के विरुद्ध सहायता करने की प्रार्थना की, क्योंकि शेरखाँ का दबाव बंगाल पर बढ़ रहा था ओर बंगाल की अफगान के आधिपत्य में चले जाने की आशंका थी। हुमायूँ ने महमूदशाह की प्रार्थना पर ध्यान देते हुए बंगाल तथा बिहार की ओर बढ़ने का निश्चय किया। उस समय शेरखाँ ने गौंड पर आक्रमण कर दिया था और वहाँ के दुर्ग का घेरा डाले हुए था। हुमायूँ ने चुनार के पास पहुँच कर अमीरों से सलाह – मशवरा किया कि पहले गौंड पर आक्रमण किया जाये अथवा चुनार पर अधिकार कर लिया जाये। अमीरों की राय थी कि पहले चुनार के दुर्ग को हस्तगत करना चाहिए लेकिन यूसुफखैर ने सम्राट को गौंड पर आक्रमण की सलाह दी। परन्तु हुमायूँ ने अमीरों की बात मानकर चुनार को हस्तगत करने का निश्चय किया। उसने चुनार का घेरा डाल दिया। यह दुर्ग शेरखाँ के पुत्र कुतुबखाँ के नियन्त्रण में था। घेरा छ: माह तक पड़ा रहा और अन्त में उस पर हुमायूँ का अधिकार हो गया लेकिन इस विजय से सम्राट को कोई विशेष लाभ नहीं हुआ, क्योंकि दुर्ग की सहायता से वह आस -पास के क्षेत्रों पर अधिकार नहीं कर सकता था। साथ ही उसने चुनार के घेरे में 6 माह का अमूल्य समय नष्ट कर दिया था जिसका सदुपयोग करते हुए शेरखाँ ने गौंड पर अधिकार कर लिया ओर रोहतास का दुर्ग भी हड़प लिया।

हुमायूँ – शेरखाँ सन्धि –

चुनार पर अधिकार करने के बाद हुमायूँ बनारस रुक गया और वहाँ पर उसने कुछ समय के लिए पड़ाव डाल दिया और बिहार पर अधिकार के उद्देश्य से शेरखाँ के पास अपना दूत भेज। शेरखाँ भी इस समय युद्ध करने के लिए तैयार नहीं था। अंत दोनों के बीच सन्धि वार्ता प्रारम्भ हो गयी। अन्ततः शेरखाँ बिहार प्रान्त को समर्पित करने के लिए तैयार हो गया और इसके बदले में उसे बंगाल प्रान्त दिया गया तथा शेरखाँ ने 10 लाख रुपए प्रति वर्ष मुगल सम्राट को देना स्वीकार कर लिय। शेरखाँ ने यह वचन भी दिया कि वह सदैव मुगल सम्राट का स्वामिभक्त रहेग। history of humayun in hindi

बंगाल पर अधिकार 1538 ई. –

इस सन्धि के कारण हुमायूँ असमंजस तथा अनिर्णय की स्थिति में पड़ गया था कि वह इस संधि का पालन करे अथवा बंगाल पर आक्रमण कर दे। सन्धि-वार्ता के तीन दिन बाद ही उसे बंगाल के शासक महमूदशाह का एक सन्देश मिला जिसमें उसने शेरखाँ के वायदों पर विश्वास न करके बंगाल पर आक्रमण करने की प्रार्थना की थी। उसने यह भी वचन दिया कि मैं आपका साथ पूरी शक्ति के साथ दूँगा, अफगानों में इतनी शक्ति नहीं है कि वे आपका सामना कर सकें। इस सन्देश को प्राप्त करते ही हुमायूँ ने बंगाल की ओर कूच कर दिया। रास्ते में शेरखाँ की पुत्र जलालखाँ ने हुमायूँ पर अचानक आक्रमण कर दिया जिससे हुमायूँ को बहुत हानि उठानी पड़ी। जलालखाँ को जब यह सूचना मिली कि शेरखाँ ने गौंड से अपना राजकोष रोहतास रवाना कर दिया है तो वह भी रोहतास की ओर पलायन कर गया और अपने पिता से जा मिला। इसके परिणामस्वरूप हुमायूँ के लिए आगे बढ़ना आसान हो गया। उसने बिना किसी कठिनाई के गौंड पर अधिकार कर लिया और वहाँ से अफगानों को मार भगाया। बंगाल को जागीरों में विभाजित करके अपने अधिकारियों में बाँट दिया और स्वयं विजय की खुशी में भोग-विलास में लिप्त हो गया। history of humayun in hindi

चौसा का युद्ध (16 जून, 1539 ई.) –

हुमायूँ ने आगरा के लिए प्रस्थान किया। यह भी हुमायूँ की भूल थी, क्योंकि जिस मार्ग से वह लौटा वह शेरखाँ के प्रभाव क्षेत्र में था। जब हुमायूँ कर्मनासा नदी (उत्तर प्रदेश तथा बिहार की सीमा पर स्थित) के पास चौसा नामक स्थान पर पहुँचा तो उसे सूचना मिली की शेरखाँ भी अपनी सेना सहित थोड़ी ही दूर पर है। हुमायूँ के अधिकारियों ने उसे सलाह दी कि शेरखाँ पर तुरन्त आक्रमण का दिया जाये क्योंकि इस समय शेरखाँ की सेना लम्बे सफर के कारण थकी हुई थी लेकिन हुमायूँ ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया और तीन महीने तक गंगा के किनारे पड़ाव डाले पडा रहा। यह भी हुमायूँ की भूल थी, क्योंकि इस काल में शेरखाँ को अपनी तैयारी करने का अवसर प्राप्त हो गया और दूसरी ओर वर्षा ऋतु भी प्रारम्भ हो गयी, जिसका पूरा लाभ शेरखाँ ने उठाया। 26 जून, 1539 ई. को रात्रि के समय शेरखाँ ने अचानक आक्रमण कर दिया। हुमायूँ की सेना बेखबर थी इसलिए उसमें भगदड़ मच गयी। हुमायूँ स्वयं अपनी जान बचाकर घोडे समेत गंगा में कूद पड़ा, घोड़ा तो नदी में डूब गया लेकिन वह एक भिष्ती की सहायता से नदी को पार करने में सफल हो गया। इस प्रकार हुमायूँ आगरा की ओर भाग गया। इस युद्ध में हुमायूँ की पूरी सेना नष्ट हो गयी।

बिलग्राम का युद्ध (17 मई, 1540 ई.) –

चौसा की पराजय के पश्चात हुमायूँ ने अपने भाईयों से सहायता की अपील की, लकिन उन्होंने अपने स्वार्थवश सहायता देने से इन्कार कर दिया। यद्यपि हुमायूँ का भाई कामरान अपनी 20 हजार सेना के साथ शेरखाँ के विरुद्ध सहायता देने को तैयार था लेकिन इस सहायता के पीछे छिपे स्वार्थ को दृष्टिगत रखते हुए हुमायूँ ने इसे अस्वीकृत कर दिया। हुमायूँ का यह कार्य भी मुर्खतापूर्ण था। इसी विचार-विनिमय में हुमायूँ को महीनों लग गये, इस समय का सदपयोग शेरखाँ ने किया और सम्पूर्ण बंगाल पर अधिकार कर लिया तथा गौंड नामक स्थान से मुगलों की सेना को मार भगाया। उसने शेरखाँ के नाम से अपने को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। तत्पश्चात वह आगरा की ओर बढ़ा और लखनऊ तथा कन्नौज जा पहुँचा। शेरशाह की गतिविधियों से हुमायूँ को चिन्ता हुई और उसने शीघ्रता से 90 हजार सैनिक इकट्ठे करके कन्नौज की ओर कुच कर दिया। उसने कन्नौज के पास भोजपुर नामक स्थान पर अपना पड़ाव डाल दिया। एक महीने तक (अप्रैल, 1540 ई.) कोई सैनिक कार्यवाही नहीं हुई। इतना अवश्य है कि हुमायूँ ने गंगा नदी को पार करके बिलग्राम के पास अपनी सेना का अड्डा बना लिया। मई 1540 ई. में भयंकर वर्षा प्रारम्भ हो गयी जिसके परिणामस्वरूप हुमायूँ के शिविर में पानी भर गया, तब उसने अपनी सेना को किसी ऊँचे स्थान पर भेजने का प्रयत्न किया। इसी समय अचानक शेरशाह ने आक्रमण कर दिया और भयंकर मारकाट मचा दी। हुमायूँ की सेना की व्यवस्था बिगड़ गयी। यद्यपि मुगलों ने बड़ी वीरता तथा साहस से अफगानों का सामना किया लेकिन अन्त में हुमायूँ की सेना में भगदड़ मच गयी, अफगानों ने अपने दबाव को और बढ़ा दिया परिणामस्वरूप हुमायूँ को मजबूर होकर युद्ध क्षेत्र से भागना पड़ा। बड़ी कठिनाई से उसने गंगा को पार किया और आगरा की ओर भाग गया। इस युद्ध में भी विजयश्री अफगानों के ही हाथ लगी। history of humayun in hindi

हुमायूँ के निर्वासन का काल –

बिलग्राम के युद्ध में पराजित होने के बाद हुमायूँ ने आगरा छोड़ दिया और लाहौर पहुँचा। हुमायूँ ने अपने भाईयों से शेरशाह के विरुद्ध सहायता की अपील की लेकिन गद्दार भाईयों ने हुमायूँ का साथ नहीं दिया। कामरान तो अपने राज्य काबुल तथा पंजाब की खातिर शेरशाह से मिल गया और उसने हुमायूँ को कश्मीर जाने से रोका। मजबूर होकर उसे सिन्ध की ओर चला जाना पड़ा।

हुमायूँ सिन्ध में – हुमायूँ रास्ते में अनेक कष्टों को सहता हुआ सिन्ध में पहुँचा। 1541 ई. में जब हुमायूँ हिन्दाल के शिविर में ठहरा हुआ था तो हिन्दाल के आध्यात्मिक गुरु मीरअली अकबर जामी (शिया मतावलम्बी) की पुत्री हमीदाबानू से उसका प्रेम हो गया और 29 अगस्त, 1541 ई. को हुमायूँ और हमीदाबानू वैवाहिक-सूत्र में बंध गये। इससे हिन्दाल बहुत रुष्ट हो गया और वह अपने भाई का साथ छोड़कर कन्धार चला गया। history of humayun in hindi

जोधपुर की ओर प्रस्थान – जिस समय हुमायूँ सिन्ध में था उसी समय मारवाड़ के शासक मालदेव का एक पुत्र हुमायूँ को प्राप्त हुआ, जिसमें मालदेव ने हिन्दुस्तान विजय में हुमायूँ की सहायता करने का वचन दिया। history of humayun in hindi

अमरकोट में हुमायूँ – अमरकोट के राणा वीरसाल ने हुमायूँ का बड़ा स्वागत किया। उसकी बेगमों को दुर्ग में सम्मानपूर्वक स्थान दिया। 15 अक्टूबर, 1542 ई. को हमीदाबानू ने एक पुत्र को जन्म दिया जो आगे चलकर अकबर महान् के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

कन्धार होकर ईरान में शरण – हुमायूँ के कुछ अनुयायी वीरसाल के कुछ आदमियों से झगड़ा कर बैठे। परिणामस्वरूप उसे अमरकोट से प्रस्थान करना पड़ा और सौभाग्य से उसे कन्धार जाने का मार्ग भी मिल गया। सिन्ध के शासक शाह हुसैन ने हुमायूँ को मार्ग दे दिया। साथ ही रसद आदि से भी उसकी सहायता कर दी। कन्धार में उस समय कामरान की ओर से असकरी शासन कर रहा था। उसने पीड़ित भाई को शरण देने के स्थान पर उसका मार्ग रोकना चाहा और उसे बन्दी बनाने की जी-तोड़ कोशिश की लेकिन हुमायूँ वहाँ से बच निकला और ईरान पहुँचा लेकिन उसे अपने एक वर्ष के पुत्र अकबर को कन्धार ही छोड़ना पड़ा। history of humayun in hindi

कन्धार होकर ईरान में शरण – हुमायूँ के कुछ अनुयायी वीरसाल के कुछ आदमियों से झगड़ा कर बैठे। परिणामस्वरूप उसे अमरकोट से प्रस्थान करना पड़ा और सौभाग्य से उसे कन्धार जाने का मार्ग भी मिल गया। सिन्ध के शासक शाह हुसैन ने हुमायूँ को मार्ग दे दिया। साथ ही रसद आदि से भी उसकी सहायता कर दी। कन्धार में उस समय कामरान की ओर से असकरी शासन कर रहा था। उसने पीड़ित भाई को शरण देने के स्थान पर उसका मार्ग रोकना चाहा और उसे बन्दी बनाने की जी-तोड़ कोशिश की लेकिन हुमायूँ वहाँ से बच निकला और ईरान पहुँचा लेकिन उसे अपने एक वर्ष के पुत्र अकबर को कन्धार ही छोड़ना पड़ा। history of humayun in hindi

भारत की पुनर्विजय (1555 ई.)

1553 ई. में शेरशाह के उत्तराधिकारी इस्लामशाह के मृत्यु के बाद अफगान साम्राज्य विघटित होने लगा। इस समय पंजाब में सिकन्दर सूर, सम्भल में इब्राहिमसूर, चुनार से बिहार तक के क्षेत्र आदिल शाह सूर, मालवा में बाजबहादुर तथा बंगाल में मोहम्मद खाँ सूर अपने आपको स्वतंत्र घोषित कर शासन कर रहे थे। ये सभी गद्दी प्राप्त करने के लिए लालायित थे। ऐसी परिस्थिति में हुमायूँ को गद्दी प्राप्त करने के लिए सुनहरा अवसर था।

पंजाब पर अधिकार – भारत की पुनर्विजय की तैयारी कर हुमायूँ 12 नवम्बर 1554 ई. को काबुल से प्रस्थान किया। सिन्धु नदी के निकट बैरम खाँ भी अपनी सेना के साथ हुमायूँ से आ मिला। सिंध नदी पार कर हुमायूँ पंजाब में प्रवेश किया तथा रोहतास के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। दुर्ग का रक्षक तातार खाँ भाग निकला। इसके बाद हुमायूँ कलानोर पहुंचा। यहां उसने अपनी सेना को तीन भागों में विभाजित किया। एक भाग का नेतृत्व स्वयं संभाल, दूसरे भाग को बैरम खाँ एवं तरदी बेग के नेतृत्व में हिसार की ओर भेजा तथा तीसरे भाग को शहाबुदृदीन एवं फरहत खाँ के नेतृत्व में लाहौर की ओर भेजा। शहाबुद्दीन एवं फरहत खाँ के नेतृत्व में मुगल सेना ने लाहौर पर अधिकार कर लिया। उधर बैरम खाँ ने भी हिसार, जालंधर एवं निकटवर्ती क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया।

मच्छीवाड़ा का युद्ध (15 मई, 1555 ई.)

• तिथि – 15 मई, 1555 ई. में
• पक्ष – हुमायूँ व अफगानों के बीच।
• परिणाम – हुमायूँ विजयी हुआ।

पंजाब व उसके निकटवर्ती क्षेत्रों पर मुगलों के अधिकार के बाद अफगान सुल्तान सिकन्दर सूर आतंकित हो गया। उसने अपने सेनापति तातार खाँ एवं हैबात खाँ को मुगलों को रोकने के लिए भेजा। 15 मई, 1555 ई. को लुधियाना के निकट मच्छीवाड़ा नामक स्थान पर मुगल व अफगानों के मध्य युद्ध हुआ जिसमें अफगान पराजित हुए। इस विजय के बाद सम्पूर्ण पंजाब, हिसारफिरोजा और दिल्ली के कुछ सीमावर्ती क्षेत्रों पर मुगलों का आधिपत्य स्थापित हो गया।

सरहिन्द का यद्ध (22 जून, 1555 ई.)

• तिथि – 22 जून, 1555 ई. में।
• पक्ष – हुमायूँ व सिकन्दर सूर के बीच।
• परिणाम – हुमायूँ विजयी हुआ।

मच्छीवाड़ा के युद्ध में पराजित होने के बाद सिंकदर सूर एक विशाल सेना के साथ हुमायूँ का मुकाबला करने के लिए प्रस्थान किया। 22 जून, 1555 ई. को दोनों के मध्य सरहिन्द के निकट युद्ध हुआ जिसमें सिकन्दर सूर पराजित हुआ और भाग खड़ा हुआ। सरहिन्द के युद्ध में पराजय के साथ ही भारत में अफगानों की सत्ता का अन्त हो गया तथा मुगलों की सत्ता पुनः स्थापित हो गयी। सरहिन्द विजय के पश्चात हुमायूँ 23 जुलाई, 1555 ई. को अपने पस्तकालय की गिर कर गंभीर रूप से घायल हो गया, तथा अन्त में 24 जनवरी, 1556 ई. को उसकी मृत्यु हो गयी। लेनपुल ने हुमायूँ पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि हुमायूँ जीवन भर लड़खड़ाता रहा और लड़खड़ाते हुए ही अपनी जान दे दी।”

यह तो थी हुमायूँ की जानकारी के नोट्स अगली पोस्ट में हम आपको शेरशाह के बारे में जानकारी देंगे तो बने रहिए Upsc Ias Guru .Com के साथ 🙂

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