मौर्योत्तर काल के विदेशी शासक और आक्रमण Notes

Hello दोस्तों, स्वागत है आपका फिर से Upsc Ias Guru .com की वेबसाइट पर आज की पोस्ट में हम आपको मौर्योत्तर काल के विदेशी शासकों के बारे में बताएंगे इससे पहले वाली पोस्ट में हमने आपको मौर्य शासन के अंत के बारे में विस्तार से बताया था तो चलिए शुरू करते हैं आज की पोस्ट

मौर्योत्तर काल के विदेशी शासक औरआक्रमण mauryottar kaal videshi aakrman Notes

मौर्योत्तर काल (200 ई. पू. से 300 ई.)

       मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद भारत का इतिहास दो भागों में बट जाता है। एक तरफ मध्य एशिया से क्रमशः हिन्द-यवन/इंडो-ग्रीक, शक/सीथियन,  पहलव/पार्थियन एवं कुषाण शासकों के नेतृत्व में विदेशी आक्रमण हुए तथा इन्होंने उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत व मध्य भारत के एक बड़े क्षेत्र पर अपना अधिकार कायम कर लिया। दूसरी तरफ भारतीय शासकों क्रमश शुंग, कण्व, आन्ध्र-सातवाहन, वाकाटक आदि वंश के राजाओं ने भी अपने राज्य स्थापित किए। ये दोनों प्रवृतियां साथ-साथ हुई।

मौर्योत्तर काल विदेशी शासक

 हिंदी यवन/ इण्डो-ग्रीक

 मौर्योत्तर काल में बैक्ट्रिया (अफगानिस्तान) के यवनों ने लगभग 183 ई. पू. में डेमेट्रियस प्रथम के नेतृत्व में आक्रमण कर पंजाब का एक बड़ा भाग जीत लिया तथा साकल को अपनी राजधानी बनाई । इसी समय बैक्ट्रिया में यूक्रेटाइड्स ने अधिकार स्थापित कर लिया। फिर यूक्रेटाइड्स ने भी भारत पर आक्रमण कर तक्षशिला को अपनी राजधानी बनाई। इस प्रकार भारत में यवन साम्राज्य दो कुलों में बंट गया – डेमेट्रियस एवं यूक्रेटाइड्स के वंश

डेमेंट्रीयस वंश की राजधानी साकल (स्योलकोट) थी। इस वंश का सबसे प्रतापी शासक मिनाण्डर (मिनांडर मनेन्दर’, ‘मीनेंडर’ या ‘मीनांडर’)(165 ई. पू.-145 ई. पू.)  हुआ, जिसे बौद्ध साहित्य में मिलिंद कहा गया है। बौद्ध ग्रंथ मिलिंदपन्हो में मिनांडर के बौद्ध भिक्षु नागसेन के साथ वाद-विवाद के उपरांत बौद्ध धर्म का अनुयाई बनने की कथा है।

यूक्रेटाइड्स वंश की राजधानी तक्षशिला थी। इस वंश का सबसे प्रतापी शासक एंटियालकिडास था। इसने शुंग शासक भागभद्र के विदिशा स्थित दरबार में एक राजदूत हेलिओडोरस (Heliodorus) को भेजा, जिसने विदिशा में एक गरुड़ स्तंभ स्थापित किया। इससे पता चलता है कि हेलिओडोरस ने स्वयं भागवत धर्म ग्रहण किया था।

यूनानी संपर्क का प्रभाव

1) ज्योतिष के क्षेत्र में भारतीयों ने यूनानीयों से बहुत कुछ सीखा। नक्षत्रों को देखकर भविष्य बताने की कला भी भारतीयों ने यूनानीयों से ही सीखी।

2) सिक्के बनाने की कला में भी भारतीयों ने यूनानीयों से बहुत कुछ सीखा। यूनानी यों ने ही सर्वप्रथम सोने के लिखित सिक्के चलाए, जिन पर एक और राजाओं की तथा दूसरी और देवता या अन्य चिन्हों की आकृति होती थी।

3)हिंद-यवन संपर्क के कारण हेलेनिस्टिक जन्म हुआ, जिसका आदर्श रूप गांधार कला में दिखाई देता है।

4)यूनानीयों पर भी भारत का प्रभाव पड़ा। कई यूनानी राजाओं में भारतीय धर्म को अपनाया। हेलिओडोरस नामक राजदूत ने भागवत धर्म एवं मिनांडर ने बौद्ध धर्म अपनाया। संभवतः तपस्या व योग की क्रियाएं यूनानीयों ने भारतीयों से ही सीखी।

पह्रलव/पार्थियन

पार्थियन मध्य एशिया में ईरान में आए थे। भारत में इस वंश का प्रथम शासक मिथ्रीडेट्स था, जबकि सबसे महत्वपूर्ण शासक गोण्डोफर्नीज (Gondophares) हुआ। गोंडोफर्नीजप ने तक्षशिला को अपनी राजधानी बनाई। इनके शासनकाल का तख्तेबही अभिलेख पेशावर जिले से प्राप्त हुआ है।इसके काल में पहली सदी ईस्वी में ईसाई संत सेंट थॉमस भारत आए। बाद में वे दक्षिणी चले गए, जहां तमिलनाडु में उन्हें मार डाला गया।


कुषाण

कुषाण मध्य एशिया में पश्चिमी चीन के यूची जाति के थे। लगभग 165 ई.पू. में पश्चिम चीन से खदेड़े जाने के बाद उनकी एक शाखा अफगानिस्तान (बैक्ट्रिया) चली गई, जबकि दूसरी शाखा तिब्बत आ गई। इसी दूसरी शाखा ने भारत पर आक्रमण किया।

भारत में कुषाण वंश का प्रथम शासक कुजुल कडफिसेस था। जिसके तांबे के सिक्के प्राप्त होते है।  किंतु भारत में कुषाण वंश का वास्तविक संस्थापक विम कडफिसेस को माना जाता है। विम कडफिसेस ने सोने व तांबे के सिक्के चलाए, जिन पर शिव की आकृति, नंदी बैल और त्रिशूल आदि भी अंकित है, जो उसके शैव धर्म में आस्था को घोतीत करते हैं। विम कडफिसेस ने अपने सिक्कों पर महेश्वर की उपाधि भी धारण की है कुषाण वंश का सबसे महान शासक कनिष्क हुआ।

कनिष्क की उपलब्धियों का मूल्यांकन

कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि 78 ई. है, जो भारत में शक संवत् का सूचक है। कनिष्क कुषाण वंश का महान शासक था। उसके राज्यारोहण की तिथि (78 ई.) को शक संवत के रूप में मनाया जाता है। उसने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना कर उत्तर भारत को राजनीतिक एकता के सूत्र में बांधा। उसका साम्राज्य मध्य एशिया तक विस्तृत था, जिसकी राजधानी पुरुषपुर (पेशावर) थी।


कनिष्का एक साम्राज्य निर्माता ही नहीं, बल्कि एक योग्य प्रशासक भी था। उसने प्रशासन की सुविधा को ध्यान में रखते हुए अपने साम्राज्य को अनेक क्षत्रपों में विभाजित कर क्षत्रपों की सहायता से शासन किया।

कनिष्क ने आर्थिक उन्नति के लिए भी कई महत्वपूर्ण कार्य किए। उसने उत्तरापथ का विस्तार बैक्टीरिया तक किया, जिससे चीन से रोम तक जाने वाले रेशम मार्ग पर उसका नियंत्रण स्थापित हो गया तथा चुंगी कर के रूप में भारत को एक बड़ी राशि प्राप्त होने लगी। साथ ही कनिष्क ने सर्वाधिक संख्या में तांबे के सिक्के भी जारी किए, जिससे व्यापारी लेनदेन में सहायता मिली।


कनिष्क ने भारतीय धर्म, कला एवं विद्दता को भी संरक्षण प्रदान किया। यद्यपि वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था। उसके समय ही कश्मीर के कुण्डलवन में चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ था, जिसमें महायान बौद्ध संप्रदाय का प्रादुर्भाव हुआ। किंतु उसने अन्य धर्मों को भी संरक्षण प्रदान किया। उसकी मुद्राओं में हिंदू देवी- देवताओं को भी आकृति मिलती है। ईरान में प्रचलित मिहिर पूजा (सूर्य पूजा) के अनुरूप मुल्तान में एक सूर्य मंदिर का भी निर्माण करवाया।


कनिष्क ने कला के विकास में भी रुचि दिखाई। उसके समय में भारत में मूर्ति निर्माण की गांधार कला शैली एवं मथुरा कला शैली का विकास हुआ। उसने कश्मीर में कनिष्कपुर नामक नगर तथा पेशावर में एक विशाल बौद्ध स्तूप का निर्माण करवाया।


कनिष्क ने अपने दरबार में 9 विद्वानों (नवग्रह) को भी सरंक्षण प्रदान किया, जिनमें वसुमित्र, अश्वघोष, पार्श्व व नागार्जुन जैसे बौद्ध विद्वान तथा चरक जैसे प्रसिद्ध चिकित्सक थे।


हालांकि कनिष्क कुषाण साम्राज्य को स्थायित्व प्रदान नहीं कर सका तथा उसकी मृत्यु के साथ ही कुषाण वंश का पतन प्रारंभ हो गया। किंतु इस हेतु परवर्ती कुषाण शासकों की अयोग्यता ही अधिक उत्तरदायी कारण था।


निष्कर्षत: कनिष्क प्राचीन भारत के विदेशी शासकों में सबसे सफल साम्राज्य-निर्माता तथा धर्म, कला ,साहित्य व विज्ञान का महान संरक्षक था। एक विदेशी शासक होने के बावजूद उसने स्वयं को भारतीय संस्कृति में पूर्णता विलीन कर दिया तथा मध्य व पूर्वी एशिया में भारतीय संस्कृति के प्रवेश के द्वार खोल दिए।

कनिष्क का उत्तराधिकारी बासिष्क तथा हुविष्क हुआ। हुविष्क ने कश्मीर में हुष्कपुर नगर की स्थापना करवाई। यह शिव व विष्णु का उपासक था। इसके सिक्को में चतुर्भुजी विष्णु, हरिहर, उमा, बुध, सूर्य, चंद्रमा आदि की आकृतियां मिलती हैं। कुषाण वंश का अंतिम शासक वासुदेव था।

दोस्तों इस पोस्ट में हमने आपको विस्तार से मौर्योत्तर काल के विदेशी शासकों के बारे में बताया अगली पोस्ट में हम आपको मौर्योत्तर काल के भारतीय शासकों के बारे में संक्षिप्त जानकारी देंगे तो बने रहिये Upac Ias Guru के साथ 🙂

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