विजयनगर साम्राज्य की उत्पत्ति Notes

Hello दोस्तों, स्वागत है आपका फिर से हमारी इतिहास नोट्स की सीरीज में इससे पहले हमने आपको मुगलों की प्रशासनिक व्यवस्थाः केन्द्रीय शासन के बारे में विस्तार से बताया था, इस पोस्ट से हम आपको विजयनगर साम्राज्य की उत्पत्ति के बारे में बतायेगे जिससे आपको  मध्यकालीन भारत के इतिहास की जानकारी मिल सके और आपकी तैयारी को और भी बल मिल सके तो चलिए शुरू करते है आज की पोस्ट 🙂

विजयनगर साम्राज्य की उत्पत्ति (Origin of Vijay nagar Kingdom)


विजयनगर साम्राज्य की स्थापना मुहम्मद बिन तुगलक की शासनकाल की अव्यवस्था के दौरान हुई थी। उसकी उत्पत्ति के विषय में अनेक मत हैं और विवाद का अभी अन्त ही नहीं हुआ है। किन्तु इतना निश्चित है कि साम्राज्य की स्थापना 1346 ई. में संगम के पाँचों पुत्रों में से हरिहर और बुक्का दोनों ने की थी जो आरम्भ में होयसल राजा वीर बल्लाल तृतीय के यहाँ नौकर थे और जिन्हें दिल्ली सल्तनत की आक्रमणकारी नीति के विरुद्ध प्रतिरोध संगठित करने का श्रेय था। तुंगभद्रा के दक्षिणी तट पर स्थित अनेगुन्दी नगर की स्थापना सम्भवत: वीर बल्लाल तृतीय ने 1336 ई. में की थी। यही नगर आगे चलकर साम्राज्य का केन्द्र बिन्दु बना।

1346 ई. में वीर बल्लाल तृतीय के पुत्र तथा उत्तराधिकारी विरुपाक्ष तट बल्लाल की मृत्यु हो जाने पर हौयसलों का राज्य हारिहर तथा बुक्का के अधिकार में आ गया। तंगभद्रा के दक्षिणी तट पर स्थित विजयनगर को उन्होंने अपनी राजधानी बनाया। सम्भवतः इस नगर की स्थापना भी वीर बल्लाल तृतीय ने ही की थी, किंतु अपनी राजधानी बनाने के बाद हरिहर और बुक्का ने उसको अधिक समुन्नत किया होगा। ऐसा प्रतीत होता है कि विजयनगर के संस्थापकों को प्रसिद्ध विद्वान तथा सन्त माधव विद्यारण्य तथा उनके विख्यात अनुज वेदों के टीकाकार सायणाचार्य से अत्यधिक प्रेरणा और सहायता मिली। Origin of Vijay nagar Kingdom

संगम वंश –

हरिहर तथा बुक्का का वंश उनके पिता के नाम पर संगम वंश कहलाता है। हरिहर तथा बुक्का दोनों ने सावधानी तथा बुद्धिमत्ता से कार्य किया। उन्होंने सम्राट की उपाधि धारण नहीं की थी। यद्यपि दोनों सम्राट की तरह ही काम करते थे। इससे उनकी निःस्वार्थपरता तथा उन्हें अनुप्राणित करने वाले उच्च आदर्शों का परिचय मिलता है। दोनों ही भाई वीर तथा साहसी थे। उन्होंने लगभग उस समस्त प्रदेश पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था जो पहले होयसल राज्य में सम्मिलित था। बुक्का ने 1374 ई. में चीन में एक दूत मण्डल भेजा। हरिहर की 1355 ई. तथा बुक्का की 1379 ई. में मृत्यु हो गयी। इसके बाद बुक्का का पुत्र हरिहर द्वितीय उत्तराधिकारी हुआ। उसने महाराजाधिराज तथा राज परमेष्वर की उपाधि धारण की। वह एक महान योद्धा तथा विजेता था और उसने कनारा, मैसूर, त्रिचनापल्ली, कांची तथा चिंगलपट आदि को जीता। उसी समय में प्रसिद्ध रायचूर के दोआब (कृष्णा तथा तुंगभद्रा के बीच का प्रदेश) को लेकर विजयनगर तथा बहमनी राज्यों के बीच संघर्ष छिड़ गया जो दीर्घकाल तक चलता रहा। Origin of Vijay nagar Kingdom


हरिहर द्वितीय के बाद देवराय प्रथम और फिर वीर विजयनगर की गद्दी पर बैठा। संगम वंश का सबसे प्रतापी शासक देवराय द्वितीय हुआ। उसने शासन व्यवस्था को सुधारा और सेना को नये ढंग से संगठित किया। बहमनी सुल्तानों की घुड़सवार फौज अधिक अच्छी थी और मुसलमान हिन्दुओं से अधिक अच्छे धनुर्धारी थे। इन दुर्बलताओं को दूर करने के लिए उसने अपने यहाँ मुसलमान नौकर रखे। उसने उन्हें जागीरें दी और उनके लिए मस्जिदें बनवायीं। 1446 ई. में देवराय की मृत्यु के बाद मल्लिकार्जुन और निरुपाक्ष क्रमश: गद्दी पर बैठे। वे दुर्बल थे। 1486 ई. में निरुपाक्ष में मन्त्री नरसिंह सलुव ने विजयनगर की गद्दी पर अधिकार कर लिया।

सलुव वंश-

नरसिंह सलुव ने एक नये राजवंश की नींव डाली जो सलुव वंश के नाम से जाना जाता है। नरसिंह योग्य तथा लोक शासक था। उसने बहमनी के सुल्तानों तथा उड़ीसा के राजा के विरुद्ध युद्ध किया और अपने खोये हुए अनेक प्रान्तों को हस्तगत कर लिया। उसने छ: वर्ष तक शासन किया। उसकी मृत्यु के बाद उसके दो पुत्र क्रमश: गद्दी पर बैठे, किन्तु वे निर्बल तथा अयोग्य थे। उनके शासनकाल में शासन की शक्ति उनके सेनापति नरसनायक के हाथ में रही। 1505 ई. में सेनानायक की मृत्यु के बाद उसके पुत्र वीर नरसिंह ने नरसिंह सलुव के आयोग्य पुत्र को हटाकर गद्दी पर अधिकार कर लिया। Origin of Vijay nagar Kingdom

तुलुव वंश –

वीर नरसिंह – वीर नरसिंह ने एक नये राजवंश की नींव डाली जो तुलुव वंश के नाम से जाना जाता है। वह सफल शासक सिद्ध हुआ। 1509 ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।

कृष्णदेवराय – इसके बाद उसका छोटा भाई कृष्णदेवराय सिंहासन पर बैठा। कृष्णदेवराय विजयनगर का महानतम् शासक था। वह एक महान् योद्धा तथा सेनानायक था। उसने जो भी युद्ध किये उनमें उसे सफलता प्राप्त हुई। उसने अपने विद्रोही सामन्तों का दमन किया, रायचूर दोआब पर अधिकार किया, 1513 ई. में उसने उड़ीसा के राजा गजपति प्रतापरुद्र को पराजित किया और विजयनगर के छीने हुए राज्य को वापस ले लिया। 1520 ई. में कृष्णदेवराय ने बीजापुर के सुल्तान के परिणामस्वरूप इसकी पश्चिम में दक्षिणी कोंकण, पूर्व में विशाखपट्टनम और दक्षिण में भारतीय प्रायद्वीप के छोर तक पहुँच गयी। हिन्द महासागर में स्थित कुछ द्वीप भी उसका प्रभुत्व स्वीकार करते थे। कृष्णदेवराय के समय में विजयनगर साम्राज्य वैभव की चरम सीमा पर पहुँच गया। वह एक विजेता के साथ-साथ योग्य शासक भी था। उसने साम्राज्य की शासन व्यवस्था का पुनः संगठन किया। वह एक न्यायप्रिय व्यक्ति, विद्वानों का संरक्षक था। वह वैष्णव धर्म का मानने वाला था।

अच्युतराय – कृष्णदेवराय का उत्तराधिकारी उसका भाई आयुतराय हुआ जिसने 1530 ई. से 1542 ई. तक शासन‌ किया, किन्तु वह दुर्बल शासक था। उसके समय में दरबार में प्रतिद्वन्द्वी गुट उठ खड़े हुए इसलिए केन्द्रीय सत्ता कमजोर हो गयी।


सदाशिवराय तथा तालीकोट का युद्ध (1565 ई.) – उसकी मृत्यु के उपरान्त उसका भतीजा सदाशिव सिंहासन पर बैठा किन्तु राज्य की वास्तविक शक्ति उसके प्रसिद्ध मन्त्री रामराय के हाथों में रही। रामराय योग्य शासक था, किन्तु वह महत्वाकांक्षी तथा कूटनीतिज्ञ था। उसने दक्षिण के मुसलमान राज्यों के आन्तरिक कलह में हस्तक्षेप किया क्योंकि वह समझता था कि ऐसा करने से विजयनगर साम्राज्य की शक्ति तथा प्रतिष्ठा की पुनः स्थापना हो सकेगी। 1543 ई. में उसने बीजापुर के विरुद्ध गोलकुण्डा तथा अहमदनगर से मित्रता कर ली। कुछ वर्ष उपरान्त उसने अहमदनगर के विरुद्ध बीजापुर तथा गोलकुण्डा का साथ दिया। अहमदनगर पर सम्मिलित आक्रमण किया गया। विजयनगर की सेना ने शत्रु राज्य को खूब रौंदा और कहा जाता है कि उसने मस्जिदों को तोड़ा और कुरान का अपमान किया। इस्लाम के इस अपमान का स्वार्थी लोगों ने बढ़ा-चढ़ाकर प्रचार किया जिसके फलस्वरूप दक्षिण के सुल्तानों का विजयनगर के विरुद्ध एक संयुक्त मोर्चा बन गया।

बीजापुर, अहमदनगर, गोलकण्डा तथा बीदर की सम्मिलित सेनाओं ने विजयनगर पर आक्रमण किया और 23 जनवरी, 1565 ई. को तालीकोट के युद्ध में उसकी सेना को भयंकर पराजय दी। प्रधानमंत्री रामराय ने वीरतापूर्वक युद्ध किया, किन्तु पकड़ा गया और अहमदनगर के सुल्तान ने स्वयं अपने हाथों से उसका वध कर दिया। विजेताओं को घोड़ों तथा गुलामों के अतिरिक्त जवाहरात, तम्बू, हथियार तथा नकदी के रूप में अतुल लूट का माल मिला, इसके बाद वे विजयनगर शहर में पहुँचे और अत्यन्त निर्दयतापूर्वक उन्होंने उसका सत्यानाश कर दिया। ‘एक विस्तृत साम्राज्य’ नामक ग्रन्थ का लेखक सेवेल लिखता है कि “संसार के इतिहास में कभी भी इतने वैभवशाली नगर का इस प्रकार सहसा सर्वनाश नहीं किया गया. जैसा कि विजयनगर का।”


यद्यपि तालीकोट के युद्ध ने विजयनगर साम्राज्य को पंगु बना दिया किन्तु वह उसके अस्तित्व को नहीं मिटा सका। विजय के उपरान्त चारों सुल्तानों में पारस्परिक ईर्ष्या की ज्वाला पुनः प्रज्ज्वलित होने लगी, इसके कारण विजयनगर अपनी खोयी हुई भमि तथा शक्ति को पुनः प्राप्त करने में समर्थ हो सका। Origin of Vijay nagar Kingdom

अरविद वंश –

तालीकोट के युद्ध के उपरान्त रामराय के भाई तिरुमाल ने वैनुगेण्डा को राजधानी बनाया। उसे कुछ अंशों में साम्राज्य की शक्ति तथा प्रतिष्ठा की पुनः स्थापना करने में सफलता मिली। वह महत्वाकांक्षी व्यक्ति था और 1570 ई. में उसने सदाशिव को अपदस्थ करके सिंहासन हस्तगत कर लिया। उसने अरविद वंश की नींव डाली। उसका उत्तराधिकारी उसका पुत्र रंग द्वितीय हुआ। वह योग्य शासक था। उसके बाद उसका भाई वैंकट द्वितीय सिंहासन पर बैठा और उसने 1586 ई. तक राज्य किया। उसके शासनकाल में राज्य छिन्न-भिन्न होने लगा और उसने मैसूर राज्य की जिसकी स्थापना 1512 ई. में ओड्यार ने की थी पूर्व स्वायत्तता स्वीकार करके भयंकर भूल की। इस वंश का अन्तिम स्वतंत्र शासक रंग द्वितीय हुआ। उसमें इतनी शक्ति न थी कि विद्राहियों सामन्ता का दमन कर सकता और बीजापुर तथा गोलकुण्डा के सुल्तानों के आक्रमणों को रोक सकता। परिणामस्वरूप यह हुआ कि रगपट्टम, बेदनूर, मदुरा, तंजौर आदि के अधीनस्थ नायकों (सामन्तों) ने अपने आपको स्वतन्त्र कर लिया और इस प्रकार साम्राज्य का अन्त हो गया।

यह तो थी विजयनगर साम्राज्य की उत्पत्ति की जानकारी के नोट्स अगली पोस्ट में हम आपको विजयनगर साम्राज्य का शासन-प्रबन्ध के बारे में जानकारी देंगे तो बने रहिए Upsc Ias Guru .Com के साथ 🙂

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