Hello दोस्तों, पिछली पोस्ट में हमने आपको पिछली मौर्योत्तर कालीन भारतीय शासक Notes की जानकारी दी थी इस पोस्ट में हम आपके लिए मौर्योत्तर काल का सामाजिक और आर्थिक जीवन की संपूर्ण जानकारी देंगे
मौर्योत्तर काल का सामाजिक और आर्थिक जीवन social system and economic life in post mauryan period mauryottr kaaliin arthika jivana aur saamaajik jeevan
मौर्योत्तर काल का सामाजिक जीवन
मौर्योत्तर काल के सामाजिक जीवन की महत्वपूर्ण विशेषताओं को निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत देखा जा सकता है –
• वर्णसंकर जातियों में वृद्धि
बौद्ध युग में जहां वर्णसंकर ओं की संख्या 12 थी, वही इस काल के ग्रंथ मनुसंहिता में वर्णसंकर जातियों की संख्या 61 बताई गई है। वर्णसंकर जातियों की संख्या में हुई वृद्धि के पीछे मुख्यतः दो कारण उत्तरदाई थे। प्रथम, इस काल में भूमि अनुदान पद्धति के अंतर्गत दुरस्थ क्षेत्रों में भी राज्य का प्रभावी नियंत्रण स्थापित हो गया था। इससे दुरस्थ क्षेत्रों के निवासियों (जनजाति लोगों) को भी वर्णाश्रम व्यवस्था में शामिल किया गया, किंतु उन्हें परंपरागत वर्ण का नहीं बल्कि नवीन वर्ण का दर्जा दिया गया। द्वितीय, इस काल में भारतीय समाज में विदेशी तत्वों का भी आगमन हुआ। चूंकि विदेशियों की उपेक्षा मलेच्छ कहकर अधिक दिनों तक नहीं की जा सकती थी, अतः इन्हें निम्न स्तर के क्षत्रिय का दर्जा दिया गया।
• कठोर वर्णाश्रम व्यवस्था
इस काल में वर्णसंकर जातियों की संख्या में हुई वृद्धि से सामाजिक तनाव उत्पन्न हुआ। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप मनु ने वर्णाश्रम व्यवस्था की शुद्धता को बनाए रखने हेतु इसे और भी अधिक कठोर बना दिया। तात्पर्य यह है कि इस काल में किसी निम्न वर्ग के व्यक्ति का अपनी योग्यता से किसी उच्च वर्ग में शामिल होना अत्यंत मुश्किल हो गया।
वर्ण – व्यवस्था में ब्राह्मणों को सर्वोच्च एवं शुद्रों को सबसे निम्न स्थान दिया गया था। इस काल में यद्यपि उद्योग – धंधों एवं वाणिज्य – व्यापार में लगाए जाने के कारण शुद्रों की आर्थिक स्थिति सुधरी थी, किंतु मनु ने उन्हें वर्णाश्रम व्यवस्था में सबसे निम्न स्थान ही दिया था इस काल में भी शुद्रों के साथ अस्पृश्यता का बर्ताव किया जाता रहा तथा उनका प्रमुख कार्य ऊपर के तीनों वर्णों की सेवा करना ही माना गया । social system and economic life in post mauryan period mauryottr kaaliin arthika jivana aur saamaajik jeevan
• स्त्रियों की स्थिति
इस काल में स्त्रियों की दशा में तुलनात्मक रूप से गिरावट आई। चूंकि वर्ण – व्यवस्था की शुद्धता को बनाए रखने की हेतु महिलाओं को पुरुषों के अधीन करना आवश्यक था। अतः मनु ने महिलाओं के प्रति कठोर रुख अपनाया तथा उन्हें सामान्य अधिकारों से वंचित किया गया। मनुसंहिता में बाल विवाह को प्रोत्साहन एवं विधवा विवाह पर पाबंदी लगाई गई। पुरुषों को महिलाओं को तलाक देने का अधिकार भी दिया गया। हालांकि सातवाहन एवं वाकाटक वंश के अंतर्गत महिलाओं की स्थिति बेहतर थी तथा प्रशासन में उनकी महत्वपूर्ण भागीदारी होती थी।
• दासों की स्थिति
मौर्योत्तर काल में भी दास व्यवस्था का प्रचलन था। मनुसंहिता में सात प्रकार के दसों का उल्लेख किया गया। चूंकि इस काल में शिल्प -उद्योग एवं वाणिज्य – व्यापार में वृद्धि हुई थी तथा इन क्षेत्रों में दासों को लगाया जाता था। अतः यह अनुमान लगाया जा सकता है कि दासों की आर्थिक स्थिति सुधरी होगी, किंतु समाज में अभी भी उनको घृणित दृष्टी से देखा जाता था।
इस प्रकार मौर्योत्तरकालीन समाज में वर्णसंकर जातियों की संख्या में वृद्धि हुई स्त्रियों, शुद्रों, एवं दासो की स्थिति दयनीय ही बनी रही। यही कारण है कि कुछ इतिहासकारों ने मौर्योत्तर कालीन समाज को अंधकार युग की संज्ञा दी।
मौर्योत्तर काल का आर्थिक जीवन
मौर्योत्तर काल आर्थिक दृष्टि से भारतीय इतिहास का स्वर्ण काल माना जाता है। इस काल में कृषि, शिल्प – उद्योग, वाणिज्य – व्यापार, मुद्रा – व्यवस्था एवं नगरीकरण सभी क्षेत्रों में अभूतपूर्व विकास हुआ।
• कृषि :-
इस काल की कृषि विकसित अवस्था में थी। कृषि उत्पादन को प्रेरित करने वाले निम्नलिखित कारक थे –
1) इस काल में भूमि अनुदान पद्धति के कारण कृषि योग्य भूमि का विस्तार हुआ, क्योंकि अनुदान में उपजाऊ भूमि के साथ अनूपजाऊ भूमि भी दी जाती थी।
2) इस काल में भूमि की निजी स्वामित्व का अवधारणा को बल दिया गया। उदाहरणार्थ – मनु कहता है कि भूमि उसकी होती है जो उसे आबाद करता है।
3) इस काल में राज्य द्वारा कृषि को प्रोत्साहन देने हेतु कृषि से संबंधित अपराधों के लिए सजा का प्रबंध किया गया, जैसे – कृषि उपकरण चुराना, नकली बीज बेचना आदि।
4) इस काल में राज्य की ओर से सिंचाई को प्रोत्साहन दिया गया। उदाहरणार्थ – रुद्रदामन ने सुदर्शन झील की मरम्मत कराई।
• शिल्प उद्योग :-
मौर्योत्तर काल में शिल्प उद्योगों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। इस काल के ग्रंथों में शिल्पियों के जितने प्रकार मिलते हैं, उतने पहले के लेखों में नहीं मिलते। मौर्य पूर्व काल के ग्रंथ दीघनिकाय में 24 प्रकार के शिल्प तथा मौर्य काल के ग्रंथ महावस्तु में 36 प्रकार के शिल्पों का उल्लेख है, जबकि मौर्योत्तर काल के ग्रंथ मिलिंदपन्हो में 75 प्रकार के व्यवसायों का उल्लेख है, जिनमें से 60 विभिन्न प्रकार के शिल्पों के संबंध थे। इस काल के शिल्प – उद्योगों के विकास को प्रेरित करने वाले निम्नलिखित प्रमुख कारक थे –
1) इस काल में श्रेणी अवस्था का विकास हुआ। शिल्पियों के संगठन को श्रेणी कहा जाता था। श्रेणियों के विस्तार ने शिल्प – उद्योगों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। श्रेणियां न केवल माप तोल के पैमाने व वस्तुओं का मूल्य निश्चित करती थी, बल्कि श्रेणी व्यवस्था हमसे जुड़े परिवार के सदस्यों हेतु व्यवसायिक शिक्षा का प्रबंध भी करती थी। साथ ही श्रेणी संगठन द्वारा निर्मित माल को एक साथ दूसरे स्थान तक ले जाने के दौरान सुरक्षा भी प्रदान की जाती थी। इस कार्य हेतु सार्थवाह नामक अधिकारी का नाम प्राप्त होता है।
2) इस काल में राज्य द्वारा भी शिल्प – उद्योगों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई गई। राज्य ने न केवल श्रेणी संगठन को स्वायत्तता बल्कि उन्हें सुरक्षा भी प्रदान की थी।
मौर्योत्तर काल में हुए शिल्प – उद्योगों के विकास का ही यह परिणाम था कि उत्तर भारत में कई प्रकार के उत्पादन केंद्रों का विकास हुआ। उदाहरणार्थ – मथुरा शाटक नामक वस्त्र के उत्पादन के लिए, उज्जैन मनका बनाने के कारखाने के लिए, मगध वृक्षों के रेशे से वस्त्र व लौह उपकरण बनाने के लिए, कश्मीर केसर के उत्पादन के लिए तथा उड़ीसा हाथी दांत के उत्पादन के लिए जाना जाता था। social system and economic life in post mauryan period mauryottr kaaliin arthika jivana aur saamaajik jeevan
• वाणिज्य – व्यापार :-
इस काल में वाणिज्य -व्यापार में भी महत्वपूर्ण प्रगति हुई। वाणिज्य – व्यापार के विकास को प्रेरित करने वाली निम्नलिखित प्रमुख कारक थे –
1) कृषि एवं उद्योग – धंधों के विकास के कारण एक संपन्न वर्ग का उद्भव हुआ, जिसने वस्तुओं की मांग बढ़ा दी।
2) इंडोग्रीक, शक एवं कुषाण शासकों का साम्राज्य मध्य एशिया एवं भारत तक विस्तृत था। इससे वाणिज्य व्यापार का एकीकरण हुआ। कुषाण शासकों का शिल्क मार्ग पर नियंत्रण था, जिससे वे चीन व रोम के मध्य होने वाले रेशम व्यापार पर कर प्राप्त करते थे।
3) महाराष्ट्र में सातवाहन शासकों ने उत्तर एवं दक्षिण के व्यापारिक एकीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। साथ ही दक्षिण में संगम काल के अंतर्गत चोल, चेल एवं पाण्ड्या राज्य के उद्भव से भी वहां वाणिज्य व्यापार को प्रोत्साहन मिला।
4) 45 ई. में अरबी नाविक हिप्पोलस द्वारा मानसून की खोज से भी वाणिज्य व्यापार को प्रोत्साहन मिला।
5) इस काल में बौद्ध धर्म के अंतर्गत महायान संप्रदाय का उद्भव हुआ। महायान संप्रदाय के अंतर्गत मूर्ति पूजा का प्रचलन शुरू हुआ, जिससे पूजा सामग्री के व्यापार को प्रोत्साहन मिला। साथ ही इस संप्रदाय के अंतर्गत दान दक्षिणा को स्वीकार किया गया, जिससे बौद्ध मठ धन के केंद्र बन गए और इस धन का निवेश व्यापार में करने लगे।
• यातायात व संचार के साधन
मौर्योत्तर काल में यातायात व संचार के साधनों में भी विकास हुआ। इस काल में उत्तरापथ जो कि सोनारगांव से पेशावर तक जाता था, का विस्तार वैकिट्रया तक हो गया। इससे यह मार्ग रौम व चीन को जोड़ने वाले सिल्क मार्ग से जुड़ गया। साथ ही इस काल में कई बंदरगाहों का भी विकास हुआ, जिनमें तम्रलिप्ती (उड़ीसा), भड़ौच (गुजरात), अरिकमेडु (पांडिचेरी), कोरकई ( तमिलनाडु), मुजरिस (केरल), आदि प्रमुख थे।
• व्यापारिक संबंध एवं आयात – निर्यात
मौर्योत्तर काल में भारत का व्यापार रोम, अरब देश, मध्य एशिया, पूर्वी अफ्रीका, चीन तथा दक्षिणी – पूर्वी एशियाई देशों के साथ होता था। विदेशी व्यापार का संतुलन भारत के पक्ष में था, क्योंकि रोमन यात्री प्लिनी ने रोम से सारा सोना भारत पहुंचाने पर दुःख व्यक्त किया है। इस काल में भारत में विदेशी व्यापार में मध्यस्थ की भूमिका के रूप में भी महत्वपूर्ण लाभ प्राप्त किया। भारत दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों एवं चीन से क्रमशः एवं रेशम का निर्यात कर उन्हें अधिक कीमतों पर रोम को बेचता था।
भारत विदेशों को मुख्यतः मसाले, लौह उपकरण, सूती व रेशमी वस्त्र, कीमती पत्थर व मोती, औषधि एवं अनाजों का निर्यात करता था, जबकि भारत विदेशों से मुख्यतः कीमती धातु, शराब व शराब के दोहत्थे कलश, शीशे की बनी वस्तुएं, अरेटाइन मृदभांड का आदि का आयात करता था।
• मुद्रा
मुद्रा विकास की दृष्टि से यह काल प्राचीन भारत के इतिहास में चमोत्कर्ष को दर्शाता है। इस काल में बढ़ी संख्या में सोने, चांदी, तांबे एवं कांसे के सिक्के जारी किए गए। सर्वप्रथम इंडोग्रीक शासकों ने लेख एवं आकृति युक्त स्वर्ण सिक्के जारी किए। कुषाणों के स्वर्ण सिक्के सर्वाधिक शुद्ध होते थे।कुषाणों को सबसे अधिक तांबे के सिक्के जारी करने का श्रेय प्राप्त है। उसी प्रकार सातवाहन राजाओं ने शीशे के सिक्के भी जारी किए, जिन्हें पोटीन कहा जाता था।
• नगरीकरण
कृषि, शिल्प – उद्योग, वाणिज्य -व्यापार, मुद्रा अर्थव्यवस्था के विकास में नगरीकरण की प्रतिक्रिया को बल प्रदान किया। इस काल के ग्रंथों में कई नगरों का उल्लेख है, जिनमें तक्षशिला, सालक, मथुरा, पाटलिपुत्र, उज्जैन, अरिकमेडु, मुजरिस आदि प्रमुख थे।
इस प्रकार हम देखते हैं कि मौर्योत्तर काल में अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति हुई। विदेशी व्यापारिक संबंधों में प्रगाढ़ता आई, परिणाम स्वरुप विदेशी संबंध भी मजबूत हुए। social system and economic life in post mauryan period mauryottr kaaliin arthika jivana aur saamaajik jeevan
दोस्तों यह तो थी मौर्योत्तर काल के सामाजिक और धार्मिक जीवन की संपूर्ण जानकारी, अगली पोस्ट में हम आपको मौर्योत्तर काल धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन के बारे में जानकारी देंगे तो बने रहिए Upsc Ias Guru के साथ 🙂