मौर्योत्तर काल धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन Notes

Hello दोस्तों, पोस्ट में हमने आपको पिछली मौर्योत्तर काल के आर्थिक और सामाजिक जीवन की जानकारी दी थी इस पोस्ट में हम आपके लिए मौर्योत्तर काल धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन की संपूर्ण जानकारी देंगे

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मौर्योत्तर काल का सामाजिक और आर्थिक जीवन Notes

मौर्योत्तर काल का धार्मिक जीवन Mauryottr kaaliin Social System and Religious Condition     

मौर्योत्तर काल के धार्मिक क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए, जिन्हें निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत देखा जा सकता है –

• विभिन्न धर्मों के स्वरूप में परिवर्तन –

ब्राह्मण धर्म के स्वरूप में परिवर्तन – मौर्योत्तर काल में परंपरागत ब्राह्मण धर्म के स्वरूप में निम्नलिखित परिवर्तन हुए –

1) इस काल में भूमि अनुदान पद्धति से दूरस्थ जनजाति प्रदेश भी राज्य के प्रभावी नियंत्रण में आ गए। इससे इन जनजाति क्षेत्रों की जनता भी समाज का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गई। इसके परिणाम स्वरूप परंपरागत ब्राह्मण धर्म में जनजाति लोगों में प्रचलित कई धार्मिक मान्यताएं एवं देवी – देवताओं को शामिल कर लिया गया, जैसे – शिव पूजा, गणेश पूजा, वृक्ष पूजा, नाग पूजा, आदि।

2) मौर्योत्तर काल में ही कई विदेशी शक्तियों का भारत में आगमन हुआ। इन विदेशी राजवंशों ने भी मौर्योत्तर कालीन धर्म को प्रभावित किया। उदाहरणार्थ – कुषाण राजवंश के अंतर्गत मृत शासकों की मूर्ति पूजा की जाने लगी। साथ ही 3 विदेशी तत्वों के आगमन से ब्राह्मण धर्म में अध्यात्मिकता की बजाए भौतिकतावादी स्वरूप को अधिक महत्व दिया जाने लगा। इसके प्रमाण गांधार कला – शैली में निर्मित विभिन्न धर्मों के देवी – देवताओं की मूर्तियों को देखा जा सकता है।

3) मौर्योत्तर काल में भी ब्राह्मण धर्म में अवतारवाद की अवधारणा का विकास हुआ। समकालीन साहित्यक ग्रंथों में विष्णु के 10 एवं शिव के 28 अवतार उल्लेख मिलता है। इस काल में समाज में व्याप्त असंतोष को अवतारवाद के माध्यम से दूर करने का प्रयास किया गया। यही कारण है कि विष्णु या शिव के विभिन्न अवतारों भिन्न-भिन्न वर्णों को माना गया है।  उदाहरणार्थ –  वामन अवतार (ब्राह्मण), रामअवतार (क्षत्रिय), कृष्ण अवतार (निम्न कुल के यादव वंश) आदि।

4) मौर्योत्तर काल में ब्राह्मण धर्म में भक्ति की अवधारणा के भी प्रारंभिक साक्ष्य प्राप्त होते हैं। प्रायः भक्ति के बीज जनजातियों की धार्मिक मान्यताओं में निहित माने जाते हैं। मौर्योत्तरकालीन ग्रंथ  श्वेताशवर उपनिषद में शिव भक्ति का प्रारंभिक साक्ष्य प्राप्त होता हैं। 

बौद्ध धर्म के स्वरूप में परिवर्तन – इस काल में बौद्ध धर्म के स्वरूप में भी कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए जैसे –  

1) मौर्योत्तर काल में कनिष्क के शासनकाल में महायान बौद्ध पंथ का उद्भव हुआ। महायान पंथ के अंतर्गत बोधिसत्व की परिकल्पना विकसित हुई। बोधिसत्व से तात्पर्य था, जो निर्वाण प्राप्ति की योग्यता रखता हो, किंतु जिस ने निर्वाण प्राप्ति नहीं किया हो, बल्कि वह संसार के सभी प्राणियों का निर्माण के लिए प्रयासरत हो।

2)  महायान बौद्ध पंथ के अंतर्गत बौद्ध धर्म का स्वरूप अधिक आशावादी हो गया, क्योंकि हीनयान के विपरीत महायान बौद्ध पंथ के निर्माण का दरवाजा सभी लोगों के लिए खोल दिया गया।

3) महायान बौद्ध पंथ के अंतर्गत बुध एवं बोधिसत्व की मूर्ति पूजा भी प्रारंभ हो गई।

4) महायान बौद्ध पंथ के अंतर्गत बुद्ध से संबंधित विभिन्न स्थलों से स्तूपों एवं चैत्यों का निर्माण कर उनकी उपासना पर भी बल दिया जाने लगा। यही कारण है कि मौर्योत्तर काल में अनेक स्तूपों एवं चैत्यों का निर्माण किया गया। इसी काल में भरहुत स्तूप (सतना), अमरावती स्तूप (आंध्र प्रदेश) का तथा नासिक, कालें, भज, कन्हेरी आदि स्थानों पर चैत्यों का निर्माण हुआ।

5) महायान बौद्ध पंथ के द्वारा धर्म के प्रचार प्रसार हेतु सामान्य लोगों की भाषा पाली के अतिरिक्त अभीजातीय वर्ग की भाषा संस्कृत को भी अपना लिया गया । 

जैन धर्म के स्वरूप में परिवर्तन – मौर्य पर काल में जैन धर्म के स्वरूप में भी कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इस काल में दिगंबर जैन पंथ के अंतर्गत जैन तीर्थकरों  की मूर्ति पूजा प्रारंभ हो गई।     इस प्रकार मौर्योत्तर काल के धार्मिक जीवन में कुछ ऐसे महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए, जिन्होंने वर्तमान के धर्म की आधारशिला निर्मित कर। 

मौर्योत्तर काल का सांस्कृतिक जीवन Mauryottr kaaliin Social System and Religious Condition   

मौर्योत्तर काल के सांस्कृतिक जीवन को निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत समझा जा सकता है –

• स्थापत्य कला (स्तूप)   

प्राचीन भारतीय इतिहास में यद्यपि  स्तूपों का निर्माण अशोक के काल में ही प्रारंभ हो गया था, किंतु मौर्योत्तर काल में स्तूपों का न केवल परिवर्धन हुआ था, बल्कि कलात्मक दृष्टि से उनकी शोभा में भी वृद्धि हुई थी।     

मौर्योत्तर काल में शुंग वंश के शासकों ने मौर्य काल में निर्मित भरहुत (सतना), साँची (रायसेन) एवं गया (बिहार) आदि के स्तूपों का परिवर्धन करवाया। उसी प्रकार सातवाहन एवं आंध्र इक्ष्वाकु वंश के शासकों ने भी अनेक  स्तूपों का निर्माण करवाया, जिनमें अमरावती, नागार्जुनकोंडा, घंटशाला के स्तूप प्रमुख थे।       

स्तूपों का आकार अर्धगोलाकार/ घंटाकार होता है। इस संरचना को अंड कहा जाता है।  स्तूप में  सर्वाधिक पूजनीय भाग हर्मिका होती थी, जो स्तूप की चोटी पर होती थी। इसी पर धातु पात्र रखा जाता था। इसके ऊपर एक छत्र भी लगाया जाता था। स्तूप का आधार चबूतरा मेधि कहलाता था तथा इससे लगा हुआ प्रदक्षिणा पर होता था। स्तूप के चारों ओर से पाषाण वैदिक काल से घेरा जाता था। इन वैदिक काल में लगभग 80 स्तंभ एवं 4 तोरण द्वार होते थे। प्रायः वेदिका एवं तोरण द्वार की दीवारों में बुद्ध के जीवन की घटनाओं, जातक कथाओं, यक्ष, यक्षिणी, वृक्ष, पुष्प, लता, आदि की आकृतियों को उकेरा जाता था। 

•  विहार एवं चैत्य   

विहार बौद्ध भिक्षुओं के निवास स्थान होते थे। बौद्ध भिक्षु वर्षा ऋतु के चार महीने विहारों में ही रहते हुए पूजा इत्यादि करते थे। मौर्योत्तर काल में मुख्यतः सातवाहन, आंध्र इक्ष्वाकु एवं वाक्टक वंश के राजाओं के द्वारा अनेक विहारों का निर्माण करवाया गया था।     

चैत्य प्रायः विहारों के निकट ही मिलते हैं। (चिता) से तात्पर्य शरीर के अवशेषों को लेकर बनाए गए देवस्थानों से हैं। चैत्य का आकार मुख्यताः घोड़े की नाल के समान होता था। इस काल निर्मित प्रमुख चैत्य पितलखोरा, भज, काले, कन्हेरी, अजंता आदि है।   

•  मूर्तिकला

मौर्योत्तर काल में मूर्ति कला की 2 शैलियों का विकास हुआ –

1) गांधार मूर्तिकला शैली। 

2)  मथुरा मूर्ति कला शैली।

गांधार मूर्तिकला शैली को इंडो – ग्रीक शैली भी कहा जाता है। यह कला शैली मुख्य रूप से गंधार या उसके समवर्ती क्षेत्रों में फैली थी, इसीलिए इसे गांधार मूर्तिकला शैली कहा जाता है। इसमें बुध एवं बोधीसत्य की मूर्तियां काले  स्लेटी पत्थर से बनाई गई थी, जो यूनानी देवता अपोलो की नकल प्रतीत होती है। इस शैली की मूर्तियों में आध्यात्मिकता की जगह भौतिकता का अधिक पुट है।

इसके विपरीत मथुरा मूर्ति कला शैली को भारतीय शैली भी कहा जाता है। यह कला शैली मुख्य रूप से मथुरा या उसके सीमावर्ती क्षेत्रों में फैली थी, इसीलिए इसे मथुरा मूर्तिकला शैली कहां जाता है। इसमें बौद्ध, जैन तथा ब्राह्मण धर्म से संबंधित मूर्तियां लाल बलुआ पत्थर से बनाई गई थी। इस कला शैली में निर्मित मूर्तियों में आध्यात्मिकता का अधिक फूट दिखाई देता है

आगे गुप्त काल में इन दोनों कला  शैलियों के प्रभाव से सारनाथ मूर्ति कला शैली का विकास भी हुआ। 

• साहित्य   

मौर्योत्तर काल में सातवाहन शासक हाल द्वारा प्राकृत भाषा में गाथासप्तशती नामक प्राचीनतम मुवतककाव्य की रचना की गई। इसी काल में पतंजलि ने पाणिनी  की अष्टाध्यायी  पर महाभाष्य नामक टीका लिखी। उसी प्रकार  भरत का नाट्यशास्त्र,वात्सायन का कामसूत्र, चरक संहिता आदि इस काल की प्रमुख रचनाएं हैं। इसी काल में भाषा में संस्कृत भाषा में प्रथम नाटक स्वप्नवासवदक्ता की रचना की थी। साथ ही इसी समय अश्वघोष ने  बुद्धचरित्र, सौंदराननद  एवं सारिपुत्र प्रकरण की रचना की थी।     

इस प्रकार सांस्कृतिक दृष्टिकोण से मौर्योत्तर काल का प्राचीन भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। वस्तुतः इस काल के दौरान विकसित हुई कला एवं साहित्य ने ही स्वर्ण युग माने जाने वाले गुप्त काल के सांस्कृतिक जीवन की आधारशिला निर्मित कर दी। Mauryottr kaaliin Social System and Religious Condition

दोस्तों यह तो थी मौर्योत्तर काल के सामाजिक और धार्मिक जीवन की संपूर्ण जानकारी इसी के साथ मौर्योत्तर काल किया सीरीज इस पोस्ट के साथ खत्म होती है।  अगली पोस्ट में हम आपको गुप्त काल के बारे में जानकारी देंगे तो बने रहिए Upsc Ias Guru के साथ 🙂

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