गयासुद्दीन बलवन (1265-1287 ई.) | गुलाम वंश | दिल्ली सल्तनत Notes

Hello दोस्तों, स्वागत है आपका फिर से हमारी इतिहास नोट्स की सीरीज में इस से पहले हमने आपको रजिया (1236-1240 ई) के बारे में विस्तार से बताया था, इस पोस्ट से हम आप को गयासुद्दीन बलवन (1265-1287 ई.) के बारे में बतायेगे जिससे आपको  मध्यकालीन भारत के इतिहास की जानकारी मिल सके और आपकी तैयारी को और भी बल मिल सके तो चलिए शुरू करते है आज की पोस्ट 🙂

बहरामशाह (1240-42 ई.)

रजिया की मृत्यु के बाद लगभग 6 वर्ष तक दिल्ली में अव्यवस्था तथा अराजकता का प्रभुत्व रहा। सर्वप्रथम बहरामशाह गद्दी पर बैठा। यह इल्तुतमिश का तीसरा पुत्र था। तुर्की अमीरों ने बहरामशाह को गुड़िया सुल्तान बनाया और वास्तविक राज-सत्ता का उपभोग स्वयं करने लगे। बहरामशाह ने शासन की सम्पूर्ण शक्ति अपने हाथ में लेनी चाही, तभी अमीरों से उसका संघर्ष प्रारम्भ हो गया। उसने कई प्रभावशील अमीरों का वध करवा दिया जिससे अधिकतर लोग उससे अप्रसन्न हो गये और उसके विरुद्ध षड्यन्त्र रचने लगे। इसी समय मंगोलों ने पंजाब पर आक्रमण करके लाहौर को अपने अधीन कर लिया। सुल्तान ने उसके विरुद्ध एक सेना भेजी लेकिन वह वजीर निजाउलमुल्क के षड्यन्त्रों के कारण मार्ग से ही लौट आयी और उसने सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, उसने सुल्तान को राजधानी में घेर लिया और उसका वध कर दिया।

नसीरूद्दीन महमुद (1246-66 ई.)

सुल्तान तथा तुर्की सरदारों चहलगनी के बीच सत्ता का संघर्ष जो रजिया के समय से प्रारंभ हुआ था, वह चलता रहा। रजिया की मृत्यु के बाद इन चहलगानियों की शक्ति इतनी बढ़ गई कि वे राजा को गद्दी पर बैठाने और उतारने के लिए बहुत हद तक काबिल हो गए। बेहराम शाह (1240-42) तथा मसूद शाह (1242-44) क्रमश: सुल्तान बनाए तथा हटाए गए। इसके बाद सन् 1246 में उलुग खान (कालांतर में जिसे बलवन के नाम से जाना गया) ने एक प्रयोग किया था उसने युवा नसीरूद्दीन (इल्तुतमिश के पोते) को सुल्तान बना कर, खुद उसका नाइब बना था। अपनी स्थिति को और सुदढ़ बनाने के लिए उसने अपनी पुत्री का विवाह नसीरूद्दीन से कर दिया। सुल्तान नसीरूद्दीन मसूद 1265 में मारा गया। इब्नबतूता तथा इलामी के अनुसार बलवन ने अपने राजा को जहर देकर मारा तथा उसके सिंहासन पर कब्जा कर लिया।

गयासुद्दीन बलवन (1265-1287 ई.) ghiyasuddin-balban-notes

प्रारम्भिक जीवन- बलवन का असली नाम बहाउद्दीन था। उसका जन्म तुर्किस्तान के इल्बारी कबीले में हुआ। उसका पिता दस हजार परिवारों का खान था। बचपन में उसको मंगोल पकड़ ले गये थे और गुलाम बनाकर गजनी में बसरा के ख्वाज जमालुद्दीन नामक व्यक्ति के हाथों बेच दिया। ख्वाजा बहाउद्दीन के गुणों से बड़ा प्रभावित हुआ, उसने उसे पढ़ाया-लिखाया तथा उसके साथ बहुत अच्छा बर्ताव किया। ख्वाजा उसे दिल्ली लाया और इल्तुतमिश के हाथ उसे बेच दिया। सुल्तान, बलवन की प्रतिभा से अधिक प्रभावित हुआ और उसे प्रसद्ध चालीस गुलामों के मण्डल का सदस्य बना लिया। अपनी योग्यता के कारण वह उन्नति करता गया। रजिया के शासनकाल में वह ‘अमीर शिकार’ के पद पर नियुक्त हुआ। उसने रजिया के विरुद्ध षड्यन्त्र रचने वाले अमीरों की मदद की और उसके बाद बहराम’ ने उसे गुड़गाँव जिले में रेवाड़ी की जागीर दे दी। 1246 ई. में नासिरुद्दीन को गद्दी पर बैठाने का श्रेय भी बलवन को ही था। नासिरुद्दीन के काल में बलवन ने राजसत्ता पर एकाधिकार कर लिया। नायब की हैसियत से उसने दिल्ली सल्तनत की जो सेवाएँ की, उनका हम उल्लेख कर चुके हैं। ghiyasuddin-balban-notes

  1. ताज गद्दी की शक्ति तथा प्रतिष्ठा में वृद्धि –

इल्तुतमिश के बाद कोई योग्य शासक गद्दी पर नहीं बैठा था। अतः शासन प्रबन्ध बिगड़ गया था और चारों ओर अव्यवस्था का राज्य था। तुर्की सरदार शक्तिशाली तथा अंहकारी हो गये थे और सुल्तान उनके हाथो की कठपुतली थे। सुल्तान की स्थिति गिरकर एक साधारण सामन्त की रह गयी। इतिहासकार बरनी लिखता है कि सभी लोगों के हृदय से राज्य का भय जो सुव्यवस्थित सरकार का आधार तथा राज्य के गौरव एवं ऐश्वर्य का साधन होता है, निकल गया था और देश की बड़ी दुर्दशा हो रही थी। बलवन ने सर्वप्रथम इस दुर्दशा का अन्त करने तथा ताज की शक्ति तथा प्रतिष्ठा की स्थापना करने का निश्चय किया। गद्दी पर बैठते ही उसने साधारण लोगों से मिलना-जुलना छोड़ दिया, बहुत शान-शौकत से रहना प्रारम्भ किया। राजत्व के सम्बन्ध मे उसने राजाओं के दैवी अधिकारों का समर्थन किया। उसने सिजदा तथा कदमबोसी (सुल्तान के चरण छूना) का नियम जारी किया तथा दरबार में शराब आदि पीकर जाने तथा हँसने का कठोर निषेध कर दिया। सुल्तान स्वयं इन नियमों का कठोरता से पालन करता था। साधारण लोगों का तो कहना ही क्या, उसने नीचे दर्जे के अमीरों से भी बातचीत करना त्याग दिया। दरबारी वैभव की तड़कभड़क बढ़ाने के लिए उसने प्रतिवर्ष ईरानी त्यौहार नोरोज का मनाना आरम्भ किया। इस प्रकार बलवन ने लोगों के हृदय में ताज की प्रतिष्ठा पुनः स्थापित की। ghiyasuddin-balban-notes

  1. चालीस के मण्डल का नाश –

जैसा पहले बताया जा चुका है कि इल्तुतमिश के शासनकाल में चालीस गुलामों के मण्डल का संगठन हुआ था। अब इस मण्डल के सदस्य बहुत शक्तिशाली हो गये थे और सुल्तानों तक को नाच नचाने लगे थे। सल्तनत की सभी महत्वपूर्ण जागीरें तथा पद इसी मण्डल के सदस्यों के अधिकार में थें चालीस का मण्डल सुल्तान की निरंकुशता के मार्ग में बड़ी बाधा थी, इसलिए बलवन ने उनको नष्ट करने का संकल्प किया। बलवन ने वफादार छोटे सरदारों को ऊँचे पदों पर नियुक्त किया और उन्हें चालीस के बराबर स्थान दिया। इसके बाद उसने पधारण से अपराधों के लिए मण्डल के सदस्यों को अत्यन्त कठोर दण्ड देना आरम्भ किया। बदायूँ के गवर्नर मलिक जिसने कि एक नौकर को इतना पिटवाया कि उसकी मृत्यु हो गयी, उसने शराब के नशे में एक व्यक्ति का वध कर दिया था। बलवन ने उसमें 500 कोड़े लगाने और मृतक की विधवा के सुपुर्द करने का आदेश दिया। 20.000 टका देकर उसने मुक्ति तो प्राप्त कर ली किन्तु इससे वह इतना लज्जित हुआ कि मरणोपरान्त तक वह घर से नहीं निकला। अवध के शेरख़ाँ को विश देकर मरवा डाला। इस प्रकार उसने कपटपूर्ण तथा बर्बर तरीके से चालीस के मण्डल का नाश कर दिया। इस प्रकार राजसत्ता पर उसकी निरंकुशता स्थापित हो गयी। ghiyasuddin-balban-notes

विद्रोहों का दमन –

बलवन के गद्दी पर बैठने के समय हिन्दुओं ने सर्वत्र विद्रोह मचा रखा था। वास्तव में पृथ्वीराज की पराजय के बाद अब तक वे निरन्तर अपनी स्वाधीनता के लिए संघर्ष करते आये थे। दोआब तथा अवध के लोगों ने कभी हथियार नहीं डाले थे। बदायूँ, अमरोहा, पटियाली तथा कम्पिल उनके केन्द्र थे जहाँ से निकलकर वे तुर्कों पर आक्रमण करते थे और फिर वे अपने स्थानों को लौट जाते थे। कटेहर (आधुनिक रूहेलखण्ड) में सुल्तान के लोग किसानों से कर तक वसूल नहीं कर पाते थे। दिल्ली के आस-पास उन्होंने बहुत लूटमार मचा रखी थी। बंगाल और बिहार में भी हालत अच्छी नहीं थी। बलवन ने नये प्रदेश जीतने का प्रयत्न नहीं किया। उसने अपनी पूरी शक्ति उन विद्रोहों को कुचलने में लगा दी। उसने निम्नलिखित विद्रोहों का नृशंसतापूर्वक दमन किय।

(अ) दोआब के विद्रोह का दमन –

इन दिनों दोआब में भी हिन्दुओं ने विद्रोह का झण्डा बुलन्द कर रखा था। नासिरुद्दीन के समय में भी बलवन ने इस विद्रोह को दबाने का प्रयत्न किया था। किन्तु उस समय उसको पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हुई थी। दोआब की सड़के बड़ी असुरक्षित थीं, डाकू लोग व्यापारियों तथा सरकारी कर्मचारियों को लूट लिया करते थो बलवन ने यहाँ पर भी नृशंसतापूर्वक कत्लेआम कराया. विद्रोहियों के गाँवों में आग लगवा दी, जंगलों को कटवा कर साफ करा दिया, विद्रोहियों के दुर्गो पर अधिकार कर लिया अथवा उन्हें नष्ट कर दिया। भोजपुर, पटियाली, कम्पिल तथा जलाली में उसने सैनिक चौकियाँ स्थापित की और उनमें खूख्वान अफगान सैनिक रख दिये।

(ब) बंगाल के विद्रोह का दमन –

सन् 1279 में बंगाल मै तुगरिल बेग ने विद्रोह का झण्डा खड़ा किया। उसने अपने को सुल्तान घोषित कर दिया, अपने नाम के सिक्के जारी किये तथा खुतवा पढ़वाया। इस विद्रोह का दमन करने के लिए बलवन ने पहले अवध के शासक अमीनखाँ को उसके विरुद्ध भेजा, किन्तु अमीनखाँ की पराजय हुई। क्रोधित होकर सुल्तान ने उसे अवध के फाटक पर लटकवा दिया। इसके बाद दो बार और सेनाएँ भेजी गयीं किन्तु उनकी भी हार हुई। तब सुल्तान स्वयं दो लाख सेना लेकर बंगाल पहुँचा। तुगरिल भाग खड़ा हुआ, किन्तु ढाका के पास पकड़ा गया। उसका तुरन्त ही वध कर दिया गया उसके सम्बन्धियों तथा साथियों को लखनौती के बाजार में सुल्तान ने फाँसी पर लटकवाया। इतिहासकार बरनी लिखता है कि मुख्य बाजार के दोनों ओर एक-दो मील सड़क पर एक खूटों की पॉति गाढ़ी गयी और उन पर तुगरिल के साथियों के शरीर को ठोंका गया। देखने वालों ने ऐसा भयंकर दृश्य कभी नहीं देखा था और बहुत से लोम तो आतंक तथा घृणा से मूर्छित हो गये।” सुल्तान ने अपने बड़े लड़के बुगराखाँ को बंगाल का गर्वनर नियुक्त किया और उसे चेतावनी दी कि यदि उसने दिल्ली के विरुद्ध कभी सिर उठाया तो उसके साथ ऐसा ही व्यवहार किया जायेगा जैसा कि तुगरिल बेग के साथ किया गया है। इसके पश्चात बलवन दिल्ली लौट आया।

  1. उलेमा को राजनीति से पृथक करना –

बलवन से पहले उलेमा का राजनीति में बड़ा प्रभाव था। किन्तु बलवन ले समय में उलेमा का पतन हो गया था। उनके आदर्श गिर गये थे, उनमें धार्मिकता का अभाव था। वे व्यर्थ के झगड़ों में व्यस्त रहते थे और राजनीति में भी भाग लेते थे। बरनी के अनुसार, बलवन के समय के उलेमा न तो ईमानदार थे और व उनमें धार्मिकता रह गयी थी। ghiyasuddin-balban-notes

बलवन का शासन-प्रबन्ध

बलवन ने अपने राज्य में शान्ति और व्यवस्था की स्थापना करने तथा ताज की प्रतिष्ठा की स्थापना करने के लिए दृढ शासन व्यवस्था की स्थापना की। उसका शासन अर्द्ध नागरिक तथा सैनिक था। सम्पूर्ण शक्ति सम्राट में निहित थी। अपनी आज्ञाओं का दृढतापूर्वक पालन करवाता था। किसी भी अधिकारी को अपने विवेक से काम करने का अधिकार नहीं बक।
क्षेत्र में सुल्तान की आज्ञा से ही काम होता था। उसने शासन में लौह तथा रक्त नीति का पालन करते हुए शान्ति तथा व्यवस्था की स्थापना की।

  1. राजत्व के सिद्धांत –

जैसा हम पहले बता चुके हैं कि ताज की प्रतिष्ठा की स्थापना के लिए उसने कुछ सिद्धान्तों का अनुसरण किया जो कि उसकी शासन व्यवस्था के आधार थ।

(अ) राजा के दैवीय अधिकारों का समर्थन –

बलवन ने राजाओं के दैवीय अधिकारों का समर्थन करते हुए कहा कि सम्राट भगवान का प्रतिनिधि होता है। राजा का हृदय ईश्वरीय कृपा का विशेष भण्डार होता है और इस दृष्टि से कोई भी मनुष्य उसकी समानता नहीं कर सकता। बलवन यह मानता था कि राजत्व उत्तराधिकार अथवा शक्ति से प्राप्त नहीं किया जा सकता बल्कि वह ईश्वर की इच्छा से प्राप्त होता है। अपने कार्यों का पालन करने के लिए सम्राट को ईश्वर से प्रेरणा मिलती है। अतः सम्राट का पद पवित्र तथा उच्च होता है।

(ब) निरंकुशता तथा स्वेच्छाचारिता –

दैवीय सिद्धांत का समर्थन करते हुए उसने निरंकुशता तथा स्वेच्छाचारिता का समर्थन किया। सुल्तान के अधिकार असीमित थे। वह मानता था कि सम्राट के ऊपर ईश्वर का ही नियन्त्रण हो सकता है और किसी का नहीं। उसका यह विश्वास था कि एक निरंकुश और स्वेच्छाचारी सम्राट ही राज्य में शान्ति और व्यवस्था की स्थापना कर सकता है और वहीं राज्य की रक्षा कर सकता है। उसकी आज्ञाओं का पालन जनता पूर्णरूप से करती है। निरंकुश शासक के रूप में सफलता प्राप्त करने के लिए बलवन ने अपनी निजी प्रतिष्ठा को बढ़ाने का प्रयत्न किया।

(स) ताज की प्रतिष्ठा में वृद्धि –

जैसा पहले बताया जा चुका है कि बलवन ने ताज की प्रतिष्ठा की स्थापना करने के लिए अपने व्यवहार में परिवर्तन कर दिया। गद्दी पर बैठते ही वह गम्भीर रहने लगा, साधारण लोगों से मिलना-जुलना बन्द कर दिया। उसने उच्च पदों पर उच्च-कुल के व्यक्तियों को नियुक्त किया। वह नीच-कुल के व्यक्तियों को घृणा की दृष्टि से देखता था। उसके दरबार के निश्चित नियम थे जिनका उल्लंघन करने वालों को कठोर दण्ड दिया जाता था। दरबार की एक निश्चित पोशाक थी जिसको सभी के लिए पहनना आवश्यक था। दरबार में कोई हँसी-मजाक नहीं कर सकता था।

(द) सम्राट की रक्त तथा लौह नीति –

इतिहासकार लेनपूल ने लिखा है “ गुलाम, भिश्ती, शिकारी, सेनानायक, राजनीतिज्ञ तथा सुल्तान आदि विभिन्न रूपों में कार्य करने वाला बलवन, दिल्ली शासकों की दीर्घ परम्परा में सबसे अधिक आकर्षक व्यक्तियों में से एक है।” यह धारणा सुल्तान बलवन ने अपने बीस वर्षों के रक्त व लौह नीति के शासक से लोगों की स्मृतियों में बिठा दी थी। बलवन ने अपने शासनकाल में रक्त तथा लौह नीति का अनुसरण किया। अपने विरोधियों के साथ वह किसी भी प्रकार की रियासत करने के पक्ष में नहीं था। वह उनका निर्दयतापूक दमन करने में विश्वास करता था। इसी नीति का परिपालन करते हए उसने चालीस के मण्डल का नाश किया, मेवातियों, दोआब के हिन्दओं, कटेहर के हिन्दओं तथा बंगाल के विद्रोहियों का दमन किया। ghiyasuddin-balban-notes

(य) सम्राट की कर्तव्यपरायणता –

बलवन यह मानता था कि सम्राट को कर्तव्यपरायण होना चाहिए। उसे सब अपनी प्रजा के हित के लिए कार्य करने चाहिए, उसे केवल मसलमान प्रजा का ही नहीं बल्कि समस्त जनता की प्रगति तथा रक्षा के लिए प्रयत्न करना चाहिए। बलवन ने अपने पुत्र मुहम्मद से सम्राट की कर्तव्यपरायणता के सम्बन्ध में कहा था कि अपने कर्तव्य के महत्व को उचित ध्यान देना। अपने बुरे व्यवहार से अपनी प्रतिष्ठा को न गिरने देन। उसने स्वयं भी इन कर्तव्यों का पालन किया।

  1. सेना का संगठन – बलवन ने अपनी निरंकुशता कायम रखने के लिए सेना के संगठन की ओर भी ध्यान दिया। क़ुतुबुद्दीन ऐबक के समय से तुर्की सैनिकों को सैनिक सेवा के बदले में जागीर देने की प्रथा चली आ रही थी। अधिकांश भूमि बूढ़े सैनिक के अधिकार में थी, जो सैनिक सेवा के सर्वथा अयोग्य थे। बहुत सी भूमि विधवाओं तथा नाबालिगों के अधिकार में थी। ऐसी भूमि छीनने के लिए बलवन ने आदेश जारी कर दिये और उन्हें नगद पेशन देने की व्यवस्था की गयी। जो युवक सैनिक सेवा के योग्य थे, उनके पास जागीरें रहने दी गयीं। लेकिन इस आदेश से लोगों में बड़ा असन्तोष फैला। कुछ लोगों ने दिल्ली के कोतवाल काजी फखरुद्दीन से प्रार्थना की कि वह इस आदेश को वापस लेने के लिए सुल्तान से सिफारिश कर दें। कोतवाल के कहने से सुल्तान ने अपने आदेश में इतना परिवर्तन कर दिया कि वृद्ध सैनिक जीवनकाल में जागीरो की आय का उपयोग कर सकते । ghiyasuddin-balban-notes

सैनिकों की संख्या में वृद्धि की गयी और उनके बेतन बढ़ा दिये। बलवन ने घोड़ों को दागने की प्रथा का भी प्रचलन किया । उसने सेना को इमादुलमुल्क के नियन्त्रण में रख दिया जो कि बड़ा ही ईमानदार, योग्य पदाधिकारी था। यद्यपि सेना में कोई बड़ा क्रान्तिकारी परिवर्तन नहीं किया था लेकिन योग्य अधिकारियों के नियन्त्रण के कारण सेना में नवजीवन का संचार हुआ। सेना पूर्ण अनुशासित तथा सुव्यवस्थित थी।

  1. गुप्तचर विभाग का संगठन – बलवन की शासन-व्यवस्था को सुचारु रूप से संचालित करने का श्रेय गुपचर व्यवस्था को था। गुप्तचर विभाग के संगठन की ओर उसने विशेष ध्यान दिया। उसने राज्य के प्रत्येक विभाग में गुप्तचर रखें और प्रत्येक प्रान्त तथा जिले में गुप्त सम्वाददाता नियुक्त किये। ।

कैकुबाद (1287-1290 ई.)

बलवन की मृत्यु के बाद बुगरा खां का पुत्र कैकुबाद गद्दी पर बैठा। उस समय उसकी अवस्था केवल 16 वर्ष की थी। उसका पालन-पोषण बलवन के संरक्षण में हुआ था। इसलिए उस पर आचार-विचार सम्बन्धी अनेक नियन्त्रण लगा रखे थे, लेकिन बलवन की मृत्यु के बाद वह स्वतंत्र हो गया और उसने अपने को भोग-विलास में लिप्त कर लिया। दरबार के अन्य अधिकारियों ने भी उसका साथ दिया क्योंकि बलवन के कठोर अनुशासन से वे भी अब ऊब चुके थे। शासन की वास्तविक सत्ता दिल्ली के कोतवाल के दामाद निजामुद्दीन नामक एक चरित्रहीन कुचक्री के हाथ में चली गयी। ghiyasuddin-balban-notes

यह तो थी गयासुद्दीन बलवन (1265-1287 ई.) | गुलाम वंश | दिल्ली सल्तनत Notes की जानकारी के नोट्स अगली पोस्ट में हम आपको ख़िलजी वंश के बारे में जानकारी देंगे तो बने रहिए Upsc Ias Guru .Com के साथ 🙂

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