मौर्यकालीन राजनीतिक / प्रशासनिक व्यवस्था notes

स्वागत है आपका फिर से Upsc Ias Guru .Com की वेबसाइट पर अभी हम मौर्य काल के बारे में पढ़ रहे हैं और तीन पोस्ट पूरी हो चुकी है, जिस में पहली पोस्ट में हमने मौर्य काल के बारे में सामान्य जानकारी आपको बताई थी दूसरी पोस्ट में हमने आपको अशोक के प्रमुख अभिलेख के बारे में विस्तार से समझाया था तथा इससे पिछली पोस्ट में हमने आपको अशोक के सप्त स्तंभ-लेख और इसके महत्व को समझाया था

इस चौथी पोस्ट में हम आपको मौर्य काल के राजनीतिक जीवन की जानकारी देंगे तो चलिए शुरू करते

maurya kalin prashashan

चंद्रगुप्त मौर्य की उपलब्धियों का मूल्यांकन
चंद्रगुप्त मौर्य ने 322 ई. पू. में मगध पर विजय प्राप्त कर मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। इससे पूर्व उसने विदेशी सत्ता से पंजाब व सिंध को मुक्त कराया। उसने सिकंदर के सेनापति व सीरिया के शासक सेल्यूकस को भी पराजित कर उसे संधि हेतु विवश किया। संधि के अनुसार सेल्यूकस को अपनी पुत्री का विवाह चंद्रगुप्त से करना पड़ा तथा चंद्रगुप्त को दहेज में चार प्रदेश एरिया (हेरात), अराकोसिया (कंधार), जेड्रोसिया, पेरोपेनिसडाई (काबुल) भी प्राप्त हुए।
चंद्रगुप्त मौर्य ने जनता से अनुचित तरीके से धन प्राप्त करने वाले मगध के शासक धनानंद को पराजित कर एक अखिल भारतीय साम्राज्य की स्थापना की। उसने भारत को राजनीतिक एकता के सूत्र में बांधा। चंद्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य उत्तर पश्चिम में ईरान की सीमा से लेकर दक्षिण में कर्नाटक तक तथा पूर्व में बंगाल से लेकर पश्चिम में गुजरात तक विस्तृत था।
चंद्रगुप्त महान विजेता ही नहीं, एक योग्य शासक भी था। उसने एक विस्तृत नौकरशाही पर आधारित केंद्रीकृत प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना की। उसका शासन लोक कल्याणकारी भावना पर आधारित था। मेगास्थनीज के विवरण से ज्ञात होता है कि राजा दोपहर में आराम नहीं करता था तथा राज्य संचालन हेतु व्यस्त रहता था। उसके शासन का उद्देश्य कौटिल्य के इस विचार से अभिव्यक्त होता है कि- प्रजा के सुख में ही राजा का सुख है और प्रजा की भलाई में उसकी भलाई। राजा को जो अच्छा लगे वह हितकर नहीं है, हितकर वह है जो प्रजा को अच्छा लगे।
चंद्रगुप्त ने बिना विभेद किए विभिन्न सामाजिक वर्गों के कल्याण हेतु कार्य किया। उसने दासों, कर्म कारों के साथ सदैव अच्छा बर्ताव किया तथा उन्हें मालिकों के अत्याचार से बचाने के लिए कठोर दंड विधान लागू किए। उसके राज्य में दासो की स्थिति इतनी अच्छी थी कि  मेगास्थनीज कहता है कि भारत में दास प्रथा ही नहीं थी।
चंद्रगुप्त ने आर्थिक विकास को भी प्रोत्साहन दिया। उसने कृषकों के हित में सुदर्शन झील का निर्माण करवाया, श्रेणियों को स्वायत्तता दी, उत्तरापथ जैसे व्यापारिक मार्गों का निर्माण करवाया तथा व्यापारिक गतिविधियों के संचालन हेतु ‘पण’ मानक मुद्रा जारी की।
 चंद्रगुप्त यद्यपि व्यक्तिगत रूप से जैन धर्म का अनुयायी था, किंतु उसने अन्य धार्मिक संप्रदायों के प्रति सहिष्णुता की नीति अपनाई। हेमचंद्र ने लिखा है कि वह ब्राह्मणों का भी आदर करता था। maurya kalin prashashan
हालांकि की चंद्रगुप्त का शासन निरंकुश था, दंड व्यवस्था कठोर थी और व्यक्ति की स्वतंत्रता का सर्वथा अभाव था, किंतु यह सब नवजात साम्राज्य की सुरक्षा तथा प्रजा के हितों को ही ध्यान में रखकर किया गया था।
निष्कर्षतः चंद्रगुप्त मौर्य एक महान विजेता, साम्राज्य निर्माता तथा कुशल प्रशासक था। उसकी उपलब्धियों को देखते हुए हैं उसे भारत का प्रथम सम्राट कहा जाता है।

 मौर्यकालीन राजनीतिक / प्रशासनिक व्यवस्था maurya kalin prashashan

 मौर्यकालीन राजनीतिक/ प्रशासनिक व्यवस्था की जानकारी मुख्यतः मेगास्थनीज की इंडिका, कौटिल्य के अर्थशास्त्र एवं अशोक के शिलालेखों से मिलती है।
• उद्देश्य
मौर्य  राज्यव्यवस्था/ प्रशासन के निम्नलिखित प्रमुख उद्देश्य थे-
1) साम्राज्य की एकता व अखंडता को बनाए रखना।
2) साम्राज्य का विस्तार करना।
3) लोककल्याणकारी कार्य करना।
4) अधिकाधिक स्वराज प्राप्त करना, आदि।
• मौर्य  राज्यव्यवस्था/ प्रशासन स्वरूप एवं विशेषताएं
1) मौर्यकालीन प्रशासन के स्वरूप के संबंध में इतिहासकारों में विवाद है। फिर भी प्रायः यह माना जाता है कि राजा का प्रयास एक केंद्रीकृत प्रशासनिक व्यवस्था में था, हालांकि दूरस्थ क्षेत्रों में जनता एवं अधिकारियों को स्वायत्ता संबंधी अधिकार भी दिए थे। साथ ही मौर्य प्रशासन के स्वरूप के संबंध में यह भी माना जाता है कि राज्य का लोकप्रिय स्वरूप एक कल्याणकारी संस्था का था, तथापि साम्राज्य की एकता व अखंडता को बनाए रखने के लिए राज्य द्वारा कुछ नियंत्रण कार्य उपाय भी अपनाए जाते थे। maurya kalin prashashan
2) मौर्य कालीन राजनीतिक व्यवस्था राजतंत्रात्मक पद्धति पर आधारित थी, जिसमें प्रशासन का मुखिया राजा होता था। प्रायः राजा का पद वंशानुगत होता था तथा समानताः ज्येष्ठ पुत्र के उत्तराधिकार के नियम का पालन किया जाता था। हालांकि इस काल में राजगद्दी पर अधिकार करने के लिए राजकुमारों के मध्य संघर्ष के भी साक्ष्य प्राप्त होते हैं। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार अशोक ने अपने 99 भाइयों की हत्या कर राजगद्दी प्राप्त की थी।
3) मौर्य काल में राजा के पद का अर्द्ध देवीकरण भी हो चुका था। उदाहरणार्थ – अशोक के अभिलेखों में उसे देवानामपिय (देवताओं का प्रिय) कहा गया है। maurya kalin prashashan
4) मौर्य कालीन राजनीतिक व्यवस्था चक्रवर्ती राज्य की अवधारणा पर आधारित थी। इस काल में राजा से उम्मीद की जाती थी कि वह एक विशाल साम्राज्य की स्थापना करें। मौर्य शासकों के अंतर्गत एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की गई थी। चंद्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में गैसूर ताक तथा पश्चिम में ईरान की सीमा में स्थित हिंदूकुश पर्वत से लेकर पूर्व में बंगाल तक विस्तृत था। अशोक के शासनकाल में कलिंग (उड़ीसा) भी मौर्य साम्राज्य में शामिल हो गया। इस प्रकार मौर्य साम्राज्य को भारत का प्रथम अखिल भारतीय साम्राज्य भी कहा जाता है।
5) मौर्य कालीन राजनीतिक व्यवस्था लोककल्याणकारी अवधारणा पर आधारित थी। इस काल में शासक वर्ग के द्वारा कई लोककल्याणकारी कार्य किए गए, जैसे – सिंचाई का प्रबंध, वृक्षारोपण, मुक्त चिकित्सालय आदि।
6) मौर्य कालीन राजनीतिक व्यवस्था सप्तांग विचारधारा पर आधारित थी। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में उल्लेखित है कि राज रूपी शरीर के 7 अनिवार्य अंग होते थे, जैसे – राजा, अमात्य, जनपद, कोष, दुर्ग, सेना एवं मित्र। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण राजा को ही माना गया है। maurya kalin prashashan
7) मौर्य कालीन राजनीतिक व्यवस्था पितृसत्तात्मक अवधारणा पर आधारित थी। इस काल में राजा स्वयं को पिता एवं प्रजा को अपनी संतान मानता था। उदाहरणार्थ – अशोक धौली अभिलेख में कहता है ‘सारी प्रजा मेरी संतान है’।

 •केन्द्रीय शासन का संगठन: मौर्य प्रशासन Central Rule Organization: Maurya Administration

मौर्य काल में केंद्रीय प्रशासन का प्रमुख राजा होता था। राजा में समस्त प्रकार की शक्तियां (कार्यपालिका, व्यवस्थापिका एवं न्यायपालिका) निहित होती थी। इस काल में यद्यपि राजा की सहायता के लिए एक मंत्री परिषद होती थी, किंतु राजा मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं था। बावजूद इसके इस काल में राजा के निरंकुश होने के प्रमाण प्राप्त नहीं होते है। मेगास्थनीज के अनुसार ‘राजा (चंद्रगुप्त मौर्य) दिन में नहीं सोता था एवं कार्य करते हुए राज्यसभा में बैठा रहता था तथा मालिश इत्यादि के समय भी प्रजा की शिकायतों को सुनता था’। उसी प्रकार अशोक के छठे शिलालेख में उल्लेखित है कि राज्य के कर्मचारी प्रजा से किसी भी समय मिल सकते थे तथा उसे किसी महत्वपूर्ण मामले की जानकारी दे सकते थे। maurya kalin prashashan
मौर्यकालीन केंद्रीय प्रशासन विस्तृत नौकरशाहों पर आधारित था अर्थशास्त्र में केंद्रीय स्तर पर 18 तीर्थ एवं 27 महामात्र नामक अधिकारियों का उल्लेख मिलता है। इन में से तीर्थ उच्च स्तर के अधिकारी थे, जिनमें प्रधानमंत्री, समाहर्त्ता (राजस्व विभाग का अधिकारी), सन्निधाता ( कोषाध्यक्ष अधिकारी) सेनापति, युवराज, प्रदेष्टा (फौजदारी न्यायालय का प्रमुख) एवं व्यवहारी/धर्मस्थ (दीवानी न्यायालय का प्रमुख) का विशेष महत्व था। जबकि महामात्र मंत्रियों के निरीक्षण में कार्य करने वाले विभिन्न विभागों के अध्यक्ष थे। इन में पण्याध्यक्ष (वाणिज्य विभाग का अध्यक्ष), आकराध्यक्ष (खान विभाग का अध्यक्ष), लक्षणाध्यक्ष (छापेखाने का अध्यक्ष),  पौतवाध्यक्ष (माप तौल का अध्यक्ष) आदि प्रमुख थे। maurya kalin prashashan

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में वर्णित अध्यक्ष

पण्याध्यक्ष- वाणिज्य विभाग का अध्यक्ष
सुराध्यक्ष- आबकारी विभाग का अध्यक्ष
सूनाध्यक्ष- बूचड़खाने का अध्यक्ष
गणिकाध्यक्ष- गणिकाओं का अध्यक्ष
सीताध्यक्ष- कृषि विभाग का अध्यक्ष
अकराध्यक्ष- खान विभाग का अध्यक्ष
कुप्याध्यक्ष- वनों का अध्यक्ष
कोष्ठगाराध्यक्ष- कोष्ठगार का अध्यक्ष
आयुधगाराध्यक्ष- आयुधगार का अध्यक्ष
शुल्काध्यक्ष- व्यापार कर वसूलने वाला
सूत्राध्यक्ष- कताई-बुनाई विभाग का अध्यक्ष
लोहाध्यक्ष- धातु विभाग का अध्यक्ष
लक्ष्नाध्यक्ष- छापेखाने का अध्यक्ष
गो-अध्यक्ष- पशुधन विभाग का अध्यक्ष
विविताध्यक्ष- चरागाहों का अध्यक्ष
मुद्राध्यक्ष- पासपोर्ट विभाग का अध्यक्ष
नवाध्यक्ष- जहाजरानी विभाग का अध्यक्ष
पत्त्नाध्यक्ष- बन्दरगाहों का अध्यक्ष
संस्थाध्यक्ष- व्यापारिक मार्गों का अध्यक्ष
देवताध्यक्ष- धार्मिक संस्थाओं का अध्यक्ष
पोताध्यक्ष- माप-तौल का अध्यक्ष
मानाध्यक्ष- दूरी और समय से सम्बंधित साधनों की नियंत्रित करने वाला अध्यक्ष
अश्वाध्यक्ष- घोड़ों का अध्यक्ष
हस्ताध्यक्ष- हाथियों का अध्यक्ष
सुवर्णाध्यक्ष- सोने का अध्यक्ष
अक्षपटलाध्यक्ष- महालेखाकार

•मौर्यकालीन प्रांतीय प्रशासन

 केंद्र का विभाजन प्रांतों में होता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में 5 प्रांतों का उल्लेख मिलता है। उदाहरणार्थ – उत्तरापथ (राजधानी – तक्षशिला), दक्षिणापथ (राजधानी – सुवर्णगिरी), अवंती (राजधानी – उज्जैन), प्राची (राजधानी – पाटलिपुत्र) तथा कलिंग ( राजधानी – तोसाली)।
प्रांतों का प्रमुख अधिकारी कुमार या आर्यपुत्र कहलाता था, जो कि मुख्यताः राजवंश से संबंधित होता था। प्रांतों में केंद्र के सम्मान एक मंत्री परिषद होती थी। बौद्ध ग्रंथ दिव्यावदान में उल्लेखित है कि प्रांतीय मंत्रिपरिषद किसी महत्वपूर्ण मामले की जानकारी बिना प्रांतपति को बताएं सीधे केंद्र को भेज सकती थी। यह तथ्य मौर्यकालीन प्रशासन के केंद्रीकृत स्वरूप का समर्थन करता है। maurya kalin prashashan
•मौर्यकालीन मंडल, जिला एवं ग्रामीण प्रशासन
प्रांतों का विभाजन मंडल (संभाग) में, जबकि मंडल का विभाजन आहार या विषय (जिला) में होता था। मंडल का प्रमुख अधिकारी प्रदेशिक, जबकि विषय का प्रमुख अधिकारी विषयपति या स्थानिक होता था। प्रादेशिक एवं स्थानिक की तुलना वर्तमान के कमिश्नर एवं सहायक कलेक्टर से की जा सकती है। जिला में युक्त एवं रज्जुक नामक महत्वपूर्ण अधिकारी भी होते थे।
मौर्य प्रशासन का विभाजन निम्न प्रकार से था 
साम्राज्य
प्रान्त
आहार या विषय –  जिला
स्थानीय            – 800 गाँव
द्रोणमुख          – 400 गाँव
खार्वटिक         – 200 गाँव
संग्रहण           –  100 गाँव
ग्राम              – प्रशासन की सबसे छोटी इकाई
 संग्रहण का प्रमुख अधिकारी गोप होता था, जो कि मुख्यतः जनगणना के कार्य से संबंधित था। जबकि सबसे छोटी प्रशासनिक इकाई ग्राम होती थी, जिसका प्रमुख अधिकारी ग्रामीणी कहलाता था। ग्रामीण स्तर पर वंशानुगत एवं स्वशासन संबंधी अधिकार दिए गए थे।
 • मौर्यकालीन नगरीय प्रशासन
मौर्य काल में नगरीय प्रशासन के संबंध में जानकारी मेगास्थनीज की इंडिका से प्राप्त होती है।  इंडिका में उल्लेखित है कि पाटलिपुत्र नगर का प्रशासन 6 समितियों के माध्यम से किया जाता था तथा प्रत्येक समिति में 5 – 5 सदस्य होते थे। यह समितियां थी – शिल्प कला समिति, प्रदेश समिति, जनसंख्या समिति, उद्योग व्यापार समिति, वस्तु निरीक्षक समिति, तथा कर निरोधक समिति।

  • मौर्यकालीन न्यायिक के प्रशासन

मौर्य काल में सर्वोच्च न्यायालय राजा का न्यायालय, जब के सबसे छोटा न्यायालय ग्राम न्यायालय था। अर्थशास्त्र में 2 प्रकार के न्यायालयों का उल्लेख किया गया है। प्रथम ,धर्मस्थीय (दीवानी) न्यायालय, जिसका प्रमुख धर्मस्थ या व्यवहारिक होता था। द्वितीय, कंटकशोधन (फौजदारी) न्यायालय, जिसका प्रमुख प्रदेष्टा या प्रादेशिक कहलाता था। न्यायिक क्षेत्र में कठोर दंड विधान लागू थी। मृत्युदंड, अंग विच्छेद, कारावास व जुर्माना जैसे दंड प्रचलित थे।
  • मौर्यकालीन राजस्व प्रशासन
मौर्य काल में राजस्व प्रशासन भी विकसित अवस्था तक पहुंच चुका था। राजस्व प्रशासन में स्थानिक प्रदेशिक के प्रति, प्रादेशिक समाहार्ता के प्रति एवं समाहार्ता राजा के प्रति उत्तरदाई था। इस प्रकार राजस्व प्रशासन केंद्रीकृत पद्धति पर आधारित था।
•  मौर्यकालीन सैन्य प्रशासन
मौर्यकालीन सैन्य प्रशासन में स्थाई सेना का गठन हो चुका था। प्लूटार्क के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य की सैन्य संख्या लगभग 6,00,000 थी। मेगास्थनीज के अनुसार संपूर्ण सैन्य प्रशासन 6 समितियों में विभाजित था तथा प्रत्येक समिति में 5-5 सदस्य होते थे। यह समितियां थी – जल सेना संबंधी समिति, यातायात व रसद – आपूर्ति संबंधी सुमिति, पैदल सेना संबंधी समिति, अश्वरोही सेना संबंधी समिति, गज सेना संबंधी समिति एवं रथ सेना संबंधी समिति। maurya kalin prashashan
 •  मौर्यकालीन गुप्तचर प्रशासन
 मौर्य काल में सक्षम गुप्तचर व्यवस्था का विकास हो चुका था। अर्थशास्त्र में दो प्रकार के विचारों का उल्लेख मिलता है – संस्था (एक स्थान में रहने वाले गुप्तचर) एवं संचरा (भ्रमणशील गुप्तचर)। राजा गुप्तचरों के माध्यम से ही विरोध की संभावनाओं की जानकारी एवं राजकीय कार्यक्रमों के प्रति जनता की प्रतिक्रिया प्राप्त करता था।
 •  मौर्यकालीन राजनीतिक / प्रशासनिक व्यवस्था सकारात्मक पक्ष
मौर्य कालीन प्रशासनिक व्यवस्था के कई सकारात्मक पक्ष थे, जैसे –
1) राजा सर्व शक्तिशाली होते हुए भी निरंकुश नहीं ,बल्कि प्रजा हितेषी होता था।
2) मौर्य प्रशासन लोक कल्याणकारी भावना पर आधारित था।
3 मौर्य प्रशासन पितृसत्तात्मक अवधारणा पर आधारित था।
4) मौर्य प्रशासन चक्रवर्ती राज्य की अवधारणा पर आधारित था, आदि ।
 •  मौर्यकालीन राजनीतिक / प्रशासनिक व्यवस्था नकारात्मक पक्ष
मौर्य कालीन प्रशासनिक व्यवस्था के कुछ नकारात्मक पक्ष भी थे, जैसे –
1) मौर्य प्रशासन व्यापक नौकरशाही पद्धति पर आधारित था। व्यापक नौकरशाही ने न केवल साम्राज्य के आर्थिक वयय को बढ़ा दिया, बल्कि प्रशासनिक अधिकारियों के द्वारा शोषण को भी जन्म दिया गया।
2) मौर्य प्रशासन केंद्रीकृत पद्धति पर आधारित था। इसके संचालन के लिए राजा का योग्य होना आवश्यक था, किंतु परवर्ती अयोग्य मौर्य शासक इस केंद्रीकृत प्रशासनिक व्यवस्था का सफलतापूर्वक संचालन नहीं कर सके। परिणाम स्वरूप अशोक कोई मृत्यु के उपरांत शीघ्र ही मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया।
3) मौर्य प्रशासन कठोर दंडात्मक व्यवस्था पर आधारित था।
4) मौर्य प्रशासनिक व्यवस्था में गुप्तचरों के माध्यम से जनता के व्यक्तिगत जीवन में भी अनुचित हस्तक्षेप होता था,आदि।
  •  निष्कर्ष  एवं महत्व
 इस प्रकार हम देखते हैं कि मौर्यकालीन राजनीति /प्रशासनिक व्यवस्था व्यापक नौकरशाही एवं केंद्रीकृत पद्धति पर आधारित थी। इसी में यद्यपि सामान्य जनता के शोषण की संभावनाएं निहित थी, किंतु शासक वर्ग का झुकाव लोक कल्याणकारी उपायों के माध्यम से शासन करना था। maurya kalin prashashan
मौर्यकालीन राजनीतिक / प्रशासनिक व्यवस्था के बारे में हमने इस पोस्ट में आपको विस्तार से बताया और इसके सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं पर चर्चा की अगली पोस्ट में हम आपको मौर्य कालीन आर्थिक व्यवस्था के बारे में बताएंगे तो बने रहिए Upsc Ias Guru .Com के साथ 🙂

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