अकबर की धार्मिक नीति || मुगल साम्राज्य Notes

Hello दोस्तों, स्वागत है आपका फिर से हमारी इतिहास नोट्स की सीरीज में इससे पहले हमने आपको अकबर का इतिहास के बारे में विस्तार से बताया था, इस पोस्ट से हम आपको अकबर की धार्मिक नीति के बारे में बतायेगे जिससे आपको  मध्यकालीन भारत के इतिहास की जानकारी मिल सके और आपकी तैयारी को और भी बल मिल सके तो चलिए शुरू करते है आज की पोस्ट 🙂

अकबर की धार्मिक नीति (Religious Policy of Akbar) –

अकबर स्वभाव से उदार एवं जिज्ञासु प्रवृत्ति का व्यक्ति था, वह प्रथम मुस्लिम शासक था, जिसके शासनकाल में हिन्दुओं ने स्वंत्रता की सांस ली और स्वयं को मुगल शासन के एक अंग के रूप में अनुभव किया। अपने पूर्वगामी शासकों के अनुभवो से अकबर ने यह अनुभव किया कि भारत में सफलतापूर्वक शासन करने के लिए आवश्यक है कि दोनों धर्मानुयायियों में फैले विद्वेष को कम किया जाए तथा गैर-मुस्लिमों के प्रति भेदभाव की नीति का परित्याग करना आवश्यक है। इसलिये अकबर ने उदारतापूर्ण एवं सहिष्णुतापूर्ण धार्मिक नीति का प्रतिपादन किया।

अकबर द्वारा धार्मिक सहिष्णता की नीति अपनाने के कारण –

अकबर द्वारा धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाने के कारण निम्नलिखित थे –

पैतृक प्रभाव – इसका पहला कारण पैतृक प्रभाव था। उसका पालन-पोषण उदार वातावरण में हुआ था।उसके माता-पिता में धार्मिक कट्टरता नहीं था। उनकी माता शिया तथा पिता सन्नी सम्प्रदाय के अनुयायी थे। उसकी माता हमीदाबानू बेगम उदार विचारों वाली महिला थी। दूसरी ओर उनके पिता हुमायूँ मे भी सल्तनतकालीन कट्टरता नहीं थी। इस प्रकार अकबर का पारिवारिक वातावरण भी सल्तनतकालीन शासको की भांति धार्मिक कट्टरता नहीं थी। इस प्रकार अकबर का पारिवारिक वातावरण उदार विचारों से प्रेरित था। अतः पैतृक विचारों से प्रभावित होना स्वाभाविक था।

शिक्षकों का प्रभाव – अकबर पर उनके शिक्षकों का गहरा प्रभाव पडा। अकबर के शिक्षक शिया तथा सुन्नी दोनों ही सम्प्रदाय के रहे थे। उदाहरण के लिये, अकबर का एक शिक्षक अब्दुल लतीफ शिया था और मुनीम खां सुन्नी था। ये दोनों ही उदार विचारों के व्यक्ति थे। इन शिक्षकों के प्रभावस्वरूप अकबर के विचारों में उदारता आना स्वाभाविक था।

रहस्यवादी तथा समन्वय स्वभाव – अकबर का स्वभाव रहस्यवादी तथा समन्वयवादी बन गया था। वह स्वभावतः धार्मिक कट्टरता तथा मतान्धता का कट्टर शत्रु था। उसे दार्शनिक वाद-विवाद में बड़ा आनन्द आता था। इतिहासकार बी. ए. स्मिथ ने लिखा है, “अकबर को युवावस्था से ही मनुष्य तथा ईश्वर के बीच सम्बन्ध के रहस्य में तथा तत्सम्बन्धी सभी प्रश्नों में गम्भीर रुचि थी। वह कहा करता था कि दार्शनिक वार्तालाप में मुझे इतना आनन्द आता है कि उसके कारण मेरा अन्य सभी चीजों से मन हट जाता है और बलपूर्वक मैं अपने को सुनने से रोकता हूँ, जिससे कि आवश्यक कर्तव्यों की अवहेलना न हो।’

राजनीतिक कारण – अकबर की धार्मिक नीति का आधार राजनीतिक था। वह इस बात को अच्छी प्रकार से जानता था कि भारत में धर्म सापेक्षता के आधार पर सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती। प्रशासन को सफल बनाना धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्त का अनुकरण करना आवश्यक है। वह सभी धर्मों की सत्यता में विश्वास करना सभी धमों के विद्वानों की बातो को बड़े ध्यान से सुनता था तथा उनका आदर करता था। इतिहासकार लॉरेंस विल्लियम्स का मत था कि अकबर के शासन की सफलता का मूल आधार उसकी धार्मिक नीति थी। उसने विभिन्न धर्मों के लोगों को एक सूत्र में पिरों दिया। इससे स्पष्ट है कि उसकी धार्मिक नीति का आधार राजनीति था।

साधु-सन्तों का प्रभाव – अकबर अनेक धर्मों के साधु-सन्तों के सम्पर्क में आया। उन्होंने अकबर के धार्मिक विचारो को प्रभावित किया। साधु-सन्तों में प्रमुख थे – सूफी सम्प्रदाय के शेख मुबारक, पारसी दस्तूर, हिन्दू आचार्य पुरुषोत्तम व देवा आदि। इबादतखाने में अनेक धर्मों के साधु-सन्त विद्वान एकत्रित होते थे। अबल फजल ने लिखा है, “शहंशाह का दरबार सातों दिशाओं के जिज्ञासुओं तथा सभी धर्मों और सम्प्रदायों का घर बन गया है।”

इबादतखाने का प्रभाव – सन् 1575 ई. में अकबर ने फतेहपर सीकरी में एक इबादतखाना बनवाया, जहाँ प्रत्येक गुरूवार को धार्मिक वाद-विवाद हुआ करता था। प्रारम्भ में इसमें केवल इस्लाम धर्म के लोग ही विचार-विमर्श करते थे। 1578 ई. में इबादतखाने के दरवाजे प्रत्येक धर्म के अनुयायियों के लिए खोल दिये। अकबर ने इस निर्णय के परिणाम बहुत अच्छे हुये, क्योंकि इसमें अकबर को प्रत्येक धर्म के विषय में जानने का अवसर मिला इससे यह ज्ञात हुआ कि सत्य केवल इस्लाम में ही नही अन्य धर्मो में भी है। इस प्रकार उसमें अन्य धर्मों के प्रति उदार भावनाएँ जागृत हुई।

अकबर की धार्मिक नीति का विकास –

  1. 1526 से 1575 ई. तक।
  2. 1575 से 1582 ई. तक।
  3. 1582 ई. के बाद का काल।

प्रथम काल 1526 से 1575 ई. तक (First Period 1526 to 1575 AD) –

इस काल में सुल्तान का व्यवहार एक सच्चे मुसलमान की भाँति था। वह इस्लाम के नियमों का पालन करता रोजा रखता तथा नमाज पड़ता था। इस काल में उसने निम्नलिखित कार्य किये –

बलात् मुसलमान बनाने की प्रथा का अन्त – अकबर के पूर्ववर्ती मुसलमान सम्राटों ने हिन्दुओं को बलात् मुसलमान बनाने की नीति का अनुसरण किया। वे युद्धबन्दियों को भी मुसलमान बनने के लिए बाध्य करते थे। अकबर ने प्रारम्भ से ही इस नीति की निन्दा की और बीस की आयु पूरी करने से पहले ही युद्ध-बन्दियों को मुसलमान बनाने की प्रथा का अन्त कर दिया। उसने यह भी आदेश जारी कर दिया कि किसी भी हिन्दु या अन्य धर्मावलम्बी को इस्लाम धर्म स्वीकार करने के लिए बाध्य न किया जाए। सभी को अपने-अपने धर्म के अनुसार आचरण करने की पूरी-पूरी स्वतन्त्रता हो।

यात्री-कर की समाप्ति – उम्र के साथ-साथ उसका दृष्टिकोण उदार होता चला जा रहा था। एक बार अकबर मथुरा गया, वहाँ पर उसे पता चला कि तीर्थ – यात्रियों पर कर लगाया जाता है। उसने इस कर को नितान्त गलत बताया और नियों पर लगने वाले कर को समाप्त कर दिया और 1563 ई. में उसने हिन्दु तीर्थ – यात्रियों पर लगाने वाला कर को समाप्त कर दिया और कहा, “उन लागों से कर वसूल करना जो सृष्टिकर्ता की पूजा करने के लिए एकत्र हुए है, ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध है, चाहे उनकी पूजा के रूप को गलत ही क्यों न माना जाता हो।’

जजिया-कर की समाप्ति – जजिया-कर हिन्दुओं पर लगाया जाता था। इसको वसूल करने का ढंग बडा ही अपमानजनक तथा कठोर था। जजिया कर देते समय हिन्दुओं को एक विशेष प्रकार के वस्त्र पहनाये जाते थे. उसकी दाढी को पकड़ कर उसके दोनों गालों पर थप्पड़ लगाये जाते और उससे कहा जाता था कि ‘ओ काफिर जजिया अदा कर।” इस प्रथा को अकबर ने अनचित समझा और 1564 ई. में जजिया कर को समाप्त कर दिया। यद्यपि कट्टर मुसलमान इस कर को समाप्त करने के पक्ष में नहीं थे तथा राज्य-कोष पर भी इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा, लेकिन सम्राट ने इसकी परवाह नही जजिया-कर को समाप्त करना राज्य की नीति में बहुत बड़े परिवर्तन का सूचक था। हिन्दु और मसलमान राज्य के एक समान नागरिक बन गये।

दूसरा काल 1575 ई. से 1575 ई. से 1582 ई. (Second Period 1575 to 1582 AD)


इबादतखाना में वाद-विवाद – सन् 1575 ई. में अकबर ने फतेहपुर सीकरी में एक इबादतखाना बनवाया बृहस्पतिवार को धार्मिक वाद-विवाद हआ करता था। पहले यह वाद-विवाद मुसलमान, शेखों और सैयदों तक ही सीमित था।
ईबादतखाने में इस्लाम की व्याख्या करने के लिए ‘मखदूम उल मुल्क’ तथा ‘अब्दुल नवी’ उपस्थित हुए। लेकिन पारस्परिक वाद-विवाद में दोनों आपस में लड बैठे और आरोप तथा प्रत्यारोपों ने वहाँ पर घृणित तथा अवांछनीय वातावरण पैदा कर दिया।

कटृर उलेमा के प्रभुत्व से मुक्ति – अकबर ने अपने को कट्टर उलेमा के प्रभुत्व से मुक्त करने का प्रयत्न किया। उसने उन्हें राजनितिक मामलो में हस्तक्षेप नहीं करने दिया। उसने यह भी घोषणा की कि मुसलमानों के धार्मिक झगडों और निर्णय करने का अधिकार सम्राट को ही है।

अन्य धर्मों के प्रति नीति तथा प्रभाव – उसने सभी धर्मों के छिपे हुए हैं सत्य को ढूंढ निकालने का प्रयत्न किया। उसने अन्य के सिद्धांतों को मान लिया। स्मिथ का कहना था कि अकबर ने पारसी धर्म से प्रभावित होकर सूर्य तथा अग्नि साष्टांग दण्डवत करना आरम्भ कर दिया, जैन धर्म के प्रभाव में आकर उसने पशु-वध बन्द करवा दिया। वह हिन्दओं के आदर्शवाद से भी बहुत प्रभावित हुआ। वह सूर्य की पूजा करने लगा, तिलक लगाने लगा, शिव रात्रि को हिन्दुओं के कार्यक्रमों में भाग लेता था, वह हिन्दुओं की सी पोशाक भी पहनने लगा। वह कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धांत को मानने लगा था। दरबार में दीपावली, दशहरा, रक्षाबन्धन आदि त्योहार भी मनाये जाने लगे। उसने ईसाई पादरियों को भी अपने दरबार में अनेक सुविधाएँ प्रदान कीं, उन्हें गिरजाघर बनाने की आज्ञा प्रदान की। इसके साथ ही वह स्वयं पूजा-पाठ, त्योहार तथा उत्सवों में भी भाग लिया करता था।

यह तो थी अकबर की धार्मिक नीति की जानकारी के नोट्स अगली पोस्ट में हम आपको अकबर की धार्मिक नीति धार्मिक नीति 1582 ई. के बाद का काल (दीन-ए इलाही धर्म) के बारे में जानकारी देंगे तो बने रहिए Upsc Ias Guru .Com के साथ 🙂

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